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Friday, March 1, 2019

भिन्न दृष्टि



एक रात एक जंगल में दो साधु निकलते थे। वृद्ध साधु, जैसे ही सांझ ढलने लगी और सूरज ढलने लगा, अपने युवा साथी से पूछा, कोई खतरा तो नहीं है इस जंगल में? कोई डर तो नहीं है? वह युवा संन्यासी हैरान हुआ। आज तक ऐसी बात उसके वृद्ध गुरु ने कभी न पूछी थी। अंधेरे से अंधेरे, बीहड़ से बीहड़, निबिड़ से निबिड़ जंगलों में से वे निकले थे, लेकिन कभी उसने न पूछा था कि कोई भय तो नहीं, कोई फियर तो नहीं, कोई डर तो नहीं। संन्यासी को डर कैसा? वह थोड़ा चिंतित हुआ। आज यह बात क्यों उठ आई है मन में? क्या हो गया है आज? कुछ गड़बड़ जरूर है। कोई फर्क जरूर है।
थोड़ी देर बाद वे एक कुएं के पास रुके हाथ-मुंह धो लेने को। सूरज ढल गया था। वृद्ध ने अपनी झोली युवा को दी और कहाः जरा सम्हाल कर रखना, मैं हाथ-मुंह धो लूं। तब उस युवक को खयाल आया, झोली में जरूर कुछ होना चाहिए। शायद कुछ है झोली में, उसी का भय है। उसने झोली में हाथ डाला, देखा, एक सोने की ईंट। उसने उस ईंट को तो फेंक दिया जंगल के रास्ते के किनारे, उतने ही वजन का एक पत्थर झोली के भीतर रख दिया।

फिर यात्रा फिर शुरू हो गई। गुरु आ गया और उसने जल्दी से अपनी झोली ले ली और वे फिर चलने लगे। थोड़ी ही देर बाद फिर गुरु ने कहाः जंगल में कोई डर तो नहीं है? रात घनी होती जाती है। रास्ता तुम्हारा परिचित है, भटक तो न जाएंगे? जल्दी ही गांव आ जाएगा या नहीं? जल्दी ही गांव आ जाएगा या नहीं? उस युवक ने कहाः भयभीत न हों, अब कोई भय नहीं, मैं भय को पीछे फेंक आया हूं। उसने घबड़ा कर झोली में हाथ डाला, वहां तो एक पत्थर का टुकड़ा रखा था। वह वृद्ध हंसने लगा और उसने कहाः कितने आश्चर्य की बात है, मुझे खयाल था कि सोने की ईंट ही रखी है, तो मैं सम्हाले चला जा रहा था, बार-बार टटोल कर देख लेता था। मुझे क्या पता है कि भीतर पत्थर है?


पत्थर उसने फेंक दिया और वह बोला कि अब चलने की कोई जरूरत नहीं है, अब यहीं सो जाएं। अब गांव फिर सुबह उठ कर चलेंगे। उस ईंट में अर्थ था तो मन वहां बंधा था। अब ईंट पत्थर हो गई तो रात वहीं सो गए वे। फिर कोई भय न था, फिर कोई चिंता न थी, फिर कोई विचार न था। फिर वह झोला एक तरफ पड़ा रहा और वह पत्थर भी एक तरफ पड़ा रहा।


जहां हमारा अर्थ है, चाहे उसमें अर्थ हो या न हो, जहां हमें अर्थ का बोध है, जहां हमारे चित्त को लगता है कि वहां अर्थ है, वहां हम बंधे रह जाते हैं। बाहर, बाहर जो जगत है उसमें लगता है अर्थ है, इसलिए बंधन है।


 बाहर का जगत नहीं बांधता है किसी को--वह घर नहीं बांधता जिसमें आप रहते हैं, वह पत्नी और बच्चे नहीं बांधते जो आपके पास हैं। कोई नहीं बांधता आपको। आपके अर्थ का बोध बांधता है। आपको लगता है कि वहां अर्थ है, तो चित्त बंध जाता है, अटक जाता है, उलझ जाता है।

 
फिर कुछ नासमझ हैं कि इस बाहर के जगत को छोड़ कर भागते हैं--पत्नी को छोड़ कर, बच्चे को छोड़ कर, घर-द्वार छोड़ कर जंगल की तरफ भागते हैं। जो भागता है वह भी मानता है कि अर्थ वहां था। नहीं तो भागने का कोई कारण नहीं।



जिसके पीछे हम भागते हैं उसमें भी अर्थ है और जिससे हम भागते हैं उसमें भी अर्थ है। अगर अर्थ न हो तो उससे भागने का कोई कारण भी तो नहीं। दो तरह के लोग हैं जमीन पर। एक तो वे जो बाहर की चीजों के पीछे भागते हैं और एक वे जो बाहर की चीजों से डर कर भागते हैं। लेकिन दोनों एक बात में सहमत हैं कि बाहर की चीज में अर्थ है।


ये दोनों ही व्यक्ति धार्मिक नहीं हैं। यह गृहस्थ धार्मिक नहीं जो घर में रह रहा है और वह संन्यासी धार्मिक नहीं जो घर छोड़ कर भागता है। इन दोनों का जहां तक इस बात का संबंध है कि बाहर अर्थ है, ये दोनों सहमत और राजी हैं। यह एक ही आदमी की दो शक्लें हैं। यह एक ही आदमी के दो पहलू हैं। यह एक ही दृष्टि के दो रूप हैं। यह भिन्न दृष्टि नहीं है।
 

भिन्न दृष्टि तो उसकी है जिसे बाहर अर्थ दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। तो न तो वह बाहर की चीजों के पीछे भागता है और न उनसे डर कर भागता है। उसका भागना, उसका दौड़ना बंद हो जाता है। न तो वह धन के पीछे भागता है और न धन को छोड़ कर भागता है।

अज्ञात की और 

ओशो

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