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Monday, July 18, 2016

विवेक रक्षा

इन दो छोटे शब्दों में बहुत कुछ छिपा है। सब साधना का सार छिपा है। एक ढंग तो है व्यवस्था से जीने का। क्या करना है, यह हम पहले ही तय कर लेते हैं। कहां से जाना है, कैसे गुजरना है, यह हम पहले ही तय कर लेते हैं। क्योंकि हमारा अपनी ही चेतना पर कोई भरोसा नहीं। इसलिए हम सदा ही भविष्य का चिंतन करते रहते हैं और इसीलिए हम सदा ही अतीत की पुनरुक्ति करते रहते हैं। क्योंकि जो हमने कल किया था, उसी को आज करना सुगम पड़ता है, क्योंकि उसे हम जानते हैं, परिचित हैं, पहचाना हुआ है।

लेकिन संन्यासी जीता है क्षण में अभी और यहीं। अतीत को दोहराता नहीं, क्योंकि अतीत को केवल मुर्दे दोहराते हैं। भविष्य की योजना नहीं करता, क्योंकि भविष्य की योजना केवल अंधे करते हैं। इस क्षण में उसकी चेतना जो उसे कहती है, वही उसका कृत्य बन जाता है। इस क्षण के साथ ही सहज जीता है। खतरनाक है यह।

इसलिए उपनिषद कहता है, विवेक ही उसकी रक्षा है।

होशपूर्वक जीता है, बस इतनी ही उसकी रक्षा है। और उसके पास कोई उपाय नहीं है। होशपूर्वक जीता है। पहले से तय नहीं करता कि कसम खाता हूं क्रोध नहीं करूंगा।

जो आदमी ऐसी कसम खाता है, पक्का ही क्रोधी है। एक तो तय है बात कि वह क्रोधी है। यह भी तय है कि वह जानता है कि मैं क्रोध कर सकता हूं। यह भी वह जानता है कि अगर कसमों का कोई आवरण खड़ा न किया जाए, तो क्रोध की धारा कभी भी फूट सकती है। इसलिए अपने ही खिलाफ इंतजाम करता है कसम खाता है, क्रोध नहीं करूंगा। फिर कल कोई गाली देता है और क्रोध फूट पड़ता है। फिर और गहरी कसमें खाता है, नियम बांधता है, संयम के उपाय करता है, लेकिन क्रोध से छुटकारा नहीं होता। क्योंकि जिस मन ने नियम लिया था और मर्यादा बांधी थी और जिस मन ने कसम खाई थी उतना ही मन नहीं है; मन और बड़ा है, बहुत बड़ा है।

तो जो मन तय करता है कि क्रोध नहीं करेंगे, जब गाली दी जाती है तो मन के दूसरे हिस्से क्रोध करने के लिए बाहर आ जाते हैं। वह छोटा सा हिस्सा जिसने कसम खाई थी, पीछे फेंक दिया जाता है। थोड़ी देर बाद जब क्रोध जा चुका होगा, वह हिस्सा, जिसने कसम खाई थी, फिर दरवाजे पर आ जाएगा मन के। पछताएगा, पश्चात्ताप करेगा, कहेगा, बहुत बुरा हुआ। कसम खाई थी, फिर कैसे किया क्रोध! लेकिन क्रोध के क्षण में इस हिस्से का कोई भी पता नहीं था।
 
मन का बहुत छोटा सा हिस्सा हमारा जागा हुआ है। शेष सोया हुआ है। क्रोध आता है सोए हुए हिस्से से और कसम ली जाती है जागे हुए हिस्से से। जागे हुए मन की कोई खबर सोए हुए मन को नहीं होती। सांझ आप तय कर लेते हैं, सुबह चार बजे उठ आना है। और चार बजे आप ही करवट लेते हैं और कहते हैं, आज न उठें तो हर्ज क्या है! कल से शुरू कर देंगे। छह बजे उठकर आप ही पछताते हैं कि मैंने तो तय किया था चार बजे उठने का, उठा क्यों नहीं। निश्चित ही आपके भीतर एक मन होता, तो ऐसी दुविधा पैदा न होती।

लगता है, बहुत मन हैं। मल्टी साइकिक है आदमी। ऐसा भी कह सकते हैं कि एक आदमी एक आदमी नहीं, बहुत आदमी हैं एक साथ, भीड़ है, क्राउड़ है। उसमें एक आदमी भीतर कसम खा लेता है सुबह चार बजे उठने की, बाकी पूरी भीड़ को पता ही नहीं चलता। सुबह उस भीड़ में से जो भी निकट होता है, वह कह देता है, सो जाओ, कहो की बातों में पड़े हो! ऐसी हमारी जिंदगी नष्ट होती है।


नियम से बंधकर जीने वाला व्यक्ति कभी भी, कभी भी परम सत्य के जीवन की तरफ कदम नहीं उठा पाता है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि नियम तोड़कर जीएं। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि मर्यादाएं छोड़ दें। उस फकीर ने भी उस अंधे को नहीं कहा था कि जब तक आंख ठीक न हो जाए, तो तू अपनी लकड़ी फेंक दे। मैं भी नहीं कहता हूं। लकड़ी रखनी ही पड़ेगी, जब तक आंख फूटी है; लेकिन लकडी को ही आंख समझ लेना नासमझी है। और यह जिद करना कि आंख खुल जाएगी, तब भी हम लकड़ी को सम्हालकर ही चलेंगे, पागलपन है।


संन्यासी वह है, जो अपने को जगाने में लगा है। और इतना जगा लेता है अपने भीतर सारे सोए हुए अंगों को, अपने सारे खंडों को जगाकर एक कर लेता है। उस अखंड चेतना का नाम विवेक है इंटीग्रेटेड कांशसनेस। जब मन टुकड़े—टुकड़े नहीं रह जाता, इकट्ठा हो जाता है और एक ही व्यक्ति भीतर हो जाता है, ही का मतलब हो और न का मतलब न होने लगता है। उस एक सुर से बंध गई चेतना का नाम विवेक है। जागी हुई चेतना का नाम विवेक है। होश से भर गई चेतना का नाम विवेक है।

निर्वाण उपनिषद 

ओशो 

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