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Thursday, July 14, 2016

कृष्णमूर्ति

जो मुझे समझे वे मेरी बातों में कृष्णमूर्ति को भी पा सकते  हैं। जो कृष्णमूर्ति को समझे वे कृष्णमूर्ति की बातों में मुझे नहीं पा सकते। कृष्णमूर्ति को समझेंगे वे कृष्णमूर्ति की बातों में मुझे नहीं पा सकते। कृष्णमूर्ति का तो छोटा सा आंगन है साफ सुथरा, कृष्णमूर्ति की तो छोटी सी बगिया है साफ सुथरी। बगिया भी विक्टोरिया के जमाने की, इंग्लैंड की बगिया! कटी छंटी, साफ सुथरी सिमिट्रीकल। एक झाड़ इस तरफ तो दूसरा झाड़ ठीक उसके ही अनुपात का, माप का दूसरी तरफ। लान कटा हुआ।

कृष्णमूर्ति में बहुत कुछ है जो विक्टोरियन है। वे असल में बड़े हुए इस तरह के लोगों के साथ–ऐनीबीसेंट, लीडबीटर, इन लोगों के साथ बड़े हुए। इन्होंने उन्हें पाला पोसा। इन्होंने उन्हें शिक्षा दी। इंग्लैंड में बड़े हुए। वह छांट उन पर रह गई है।
 
तुम मेरे बगीचे को देखो, जंगल है! जैसे मेरा बगीचा है वैसा ही मैं हूं। कहीं कोई सिमिट्री नहीं, कोई तालमेल नहीं। एक झाड़ ऊंचा, एक झाड़ छोटा। रास्ते इरछे-तिरछे। मुक्ता है मेरी मालिन। मुक्ता ग्रीक है। ग्रीक तर्क! बहुत चेष्टा की उसने शुरू में कि इस तरफ भी ठीक वैसा ही झाड़ होना चाहिए जैसा उस तरफ है, दोनों में समतुलता होनी चाहिए। बहुत चेष्टा की उसने कि किसी तरफ झाड़ों को काट-छांट कर आकार दिया जा सके। लेकिन धीरे-धीरे समझ गई कि मेरे साथ यह न चलेगा। चुराकर, चोरी से, मेरे अनजाने, पीठ के पीछे छिपाकर, कैंची लेकर वह झाड़ों को रास्ते पर लगाती थी। धीरे-धीरे उसे समझ आ गया कि यह मेरा बगीचा जंगल ही रहेगा।


जंगल में मुझे सौंदर्य मालूम होता है; बगिया में मौत। आदमी का कटा-छंटा हुआ बगीचा सुंदर नहीं हो सकता। कटे-छंटे होने के कारण ही उसकी नैसर्गिकता नष्ट हो जाती है। मैं  नैसर्गिक का प्रेमी हूं। और निसर्ग बड़ा है। निसर्ग बहुत बड़ा है।


एक झेन फकीर ने एक सम्राट को बागवानी की शिक्षा दी और जब शिक्षा पूरी हो गई तो वह परीक्षा लेने उसके बगीचे में आया। सम्राट ने एक हजार माली लगा रखे थे। और परीक्षा के दिन के लिए तीन वर्ष तैयारी की थी। और सोचता था कि गुरु आकर प्रसन्न हो जाएगा, कोई भूल चूक न छोड़ी थी। यही भूल चूक थी! यह तो बहुत बाद में पता चला। बिलकुल समग्ररूपेण बगिया पूर्ण थी; यही अपूर्णता थी। क्योंकि पूर्ण चीजों में मृत्यु आ जाती है। जहां पूर्णता है वहां मृत्यु छा जाती है। जब गुरु आया तो सम्राट सोचता था, अपेक्षा करता था–बहुत प्रसन्न होगा, आह्लादित होगा; लेकिन गुरु बड़ा उदास होता चला गया; जैसे-जैसे बगिया में भीतर गया, और उदास होता चला गया। सम्राट ने कहा: आप उदास! मैंने बहुत मेहनत की है। एक-एक नियम का परिपूर्णता से पालने किया है।


गुरु ने कहा: वही चूक हो गई। तुम ने नियमों का इतनी परिपूर्णता से पालन किया है कि सारा निसर्ग नष्ट हो गया। यह बगीचा झूठा मालूम पड़ता है, सच्चा नहीं। और मुझे सूखे पत्ते नहीं दिखायी पड़ते। सूखे पत्ते कहां हैं? जहां इतने वृक्ष हैं वहां एक सुखा पता रास्तों पर नहीं है!


सम्राट ने कहा: आज ही सारे सूखे पत्ते इकट्ठे करवा कर मैंने बाहर फिंकवा दिए कि आप आते हैं तो सब शुद्ध रहे। टोकरी उठाकर बूढ़ा गुरु बाहर गया, रास्ते पर फेंक दिए गए सूखे पत्तों को ले आया टोकरी में भरकर, फेंक दिए रास्तों पर; आई हवाएं, सूखे पत्ते खड़-खड़ की आवाज करके उड़ने लगे और गुरु प्रसन्न हुआ। उसन कहा: अब देखते हो, थोड़ा प्राण आया। यह आवाज देखते हो, यह संगीत सुनते हो! ये सूखे पत्तों की खड़-खड़, इसके बिना मुर्दा था तुम्हारा बगीचा। मैं फिर आऊंगा, साल भर फिर तुम फिक्र करो। अब की बार फिक्र करना कि इतनी पूर्णता ठीक नहीं, कि इतना नियमबद्ध होना ठीक नहीं, कि थोड़ी अपूर्णता शुभ है, कि थोड़ा नियम का उल्लंघन शुभ है, क्योंकि हों। तुमने वृक्षों की मौलिकता छीन ली, उनकी अद्वितीयता छीन ली। कोई वृक्ष किसी दूसरे वृक्ष जैसा नहीं है, प्रत्येक वृक्ष बस अपने जैसा है।


मैं प्रत्येक व्यक्ति की निजता को स्वीकार करता हूं, सम्मान करता हूं। मैं तुम्हें काट छांट कर एक जैसे नहीं बना देना चाहता। जब मैं देखता हूं कि तुम्हारे भीतर प्रेम का गुलाब खिलेगा तो मैं तुम से ध्यान की बात नहीं करता। और जब मैं देखता हूं तुम्हारे भीतर ध्यान की जूही खिलेगी तो मैं तुमसे गुलाब की बात नहीं करता। और चूंकि मैं किसी से गुलाब की बात करता हूं, किसी से जूही की, किसी से चंपा की और किसी से केवड़े की, मेरी बातों में असंगति हो जानी स्वाभाविक है।


मेरे पास तो वही आ सकता है जो मेरी हजार-हजार असंगतियों को झेलने की छाती रखता हो। बड़ी छाती चाहिए! कृष्णमूर्ति को सुनने के लिए बहुत छोटी सी खोपड़ी काफी है। बहुत छोटी खोपड़ी चाहिए–थोड़ा सा तर्क आता हो, थोड़ा सा गणित आता हो, थोड़े कालेज स्कूल की पढ़ाई लिखाई हो, कृष्णमूर्ति समझ में आ जाएंगे।

मेरे साथ इतने सस्ते में नहीं चलेगा। मेरे साथ तो पियक्कड़ों की दोस्ती बनती है। मुझ से तो नाता ही दीवानों का जुड़ता है, प्रेमियो का जुड़ता है–जो संगति की मांग नहीं करते; जो असंगति में भी संगति देखने का हृदय रखते हैं और जो विरोधाभासों में भी सेतु बना लेने की क्षमता रखते हैं। यह एक और ही तरह का जगत है।

अमी झरत बिसगत कंवल

ओशो 

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