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Saturday, July 2, 2016

अनंत में ही मुक्ति

हमारे टालने का बड़ा सुंदर ढंग है। हम कहते हैं : यह उपनिषद के वचन, ये तो द्रष्टाओं के, ऋषियों के वचन हैं; पारलौकिक हैं, स्वर्गीय हैं; कहां हम पृथ्वी के वासी, कहां यह स्वर्ग की वाणी, हमारा इसमें तालमेल कहां! बस इतना काफी कि हम पूजा कर लें, कि दो फूल चढ़ा दें, कि उपनिषद को सिर झुका लें, कि गीता को गुनगुना लें अहोभाव से, समझ के ये हमारे परे हैं! हमारे—इसके बीच बड़ी अलंघ्य खाई है। यह अवतारों की वाणी, तीर्थंकरों की, पैगंबरों की, हम साधारणजन, जमीन पर सरकते, घिसटते, ये आकाश में उड़नेवालों के वचन; अपौरुषेय हैं! ये पुरुषों के वचन नहीं। ये वेदों की ऋचाएं, स्वयं परमात्मा से उतरीं, यह ब्रह्मा की वाणी, हम कैसे समझेंगे? हम तो सुन भी लें तो धन्यभाग!

चालाकी समझ लेना।


यह बहुत चालाकी की बात है। यह ये कहना है कि हमें क्षमा भी करो, हमें और भी जरूरी काम करने हैं! अभी हमें जीवन जीना है; धन जोड़ना है, पद प्रतिष्ठा कमानी है। अभी कैसे तुम हमारे जीवन में प्रवेश पा सकोगे? अभी कैसे हम तुम्हें प्रवेश पाने दें? हम बड़े प्रीतिकर ढंग से द्वार बंद कर लेते हैं। बड़े सौम्य, सुसंस्कृत ढंग से द्वार बंद कर लेते हैं। तीर्थंकर कह कर, अवतार कह कर हम दूर कर देते हैं।

इस चालबाजी से बचना! यह चालबाजी सदियों सदियों पुरानी है।

और या फिर अगर हम समझें ठीक से तो एक अद्भुत रहस्यमय अनुभव होता है। ऐसा नहीं लगता कि यह वाणी बुद्ध की है, महावीर की है, कबीर की है, नानक की है, मलूक की है, ऐसा लगता है : अपनी है, अपने ही हृदय की है। अपने ही अंतस्तल की है। अपने ही भीतर उठी है। जैसे मलूक वही कह गए जो हम कहना चाहते थे, जो हम न कह पाते थे, जिसके लिए हमारे पास शब्द न थे, जिसे हम बांधते थे और बंधता नहीं था, बांध गए मलूक उसे। जिसे हम शब्द देते थे और छूट छूट, छिटक छिटक जाता था, भर गए उसे शब्दों में। हमने भी गुनगुनाना चाहा था, मगर बांसुरी हमें बजानी न आती थी। तूत्तू कर के रह गए थे। मलूक गा गए। जो हमसे न हो सका, कर गए। उनकी अनुकंपा है। तब तुम्हें लगेगा : तुम्हारा ही प्राण बोला।


और जब ऐसा लगे कि तुम्हारा ही प्राण बोला, तभी जानना कि सत्संग शुरू हुआ। जब तक तुमने कहा : “भगवान उवाच”, तब तक समझना अभी सत्संग शुरू नहीं हुआ। जब तुम्हें ऐसा लगा : अपने ही अंतस का उद्गार, तो सत्संग का प्रारंभ है। और जब लगेगा कि मेरे ही प्राणों की पुकार है यह, कि सद्गुरु केवल दर्पण है और मैंने अपने ही वास्तविक चेहरे को उस दर्पण में देख लिया है, कि सद्गुरु तो वीणा है और मैंने अपनी ही झंकार, प्राणों में जो छिपी थी, उस वीणा पर सुन ली है; कि मेरी हृदयत्तंत्री ही सद्गुरु के रूप में बजी है, झंकृत हुई है।


तो तीसरी बात भी समझ में आ जाएगी कि तब लगेगा : यह मेरी ही नहीं, सबकी है। जिसको अपने अंतस की आवाज सुनाई पड़ी उसको जगत् के अंतस की आवाज सुनाई पड़ जाती है। तब ऐसा लगेगा कि पक्षी भी यही गा रहे हैं; और वृक्षों में भी हवाएं सन सन कर के जो गुजरती हैं, उपनिषदों की ऋचाएं पैदा हो रही हैं; और पहाड़ों से झरने उतरते हैं, झर झर, मर मर, उनकी ध्वनि वेदों की पुकार है; कि सुबह गाते पक्षी हों, कि आकाश में गरजते बादल, कि कड़कती बिजलियां, परमात्मा की ही विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं। सब कुछ तब श्रीमद्भगवद्गीता है। तब हर ध्वनि कुरान है।

और जब तीसरी बात लगेगी, तो चौथी भी दूर नहीं। तब फिर लगेगा : न यह मेरी है, न यह तेरी है, इस पर मैं और तू का कोई बंधन नहीं बांधा जा सकता, यह तो बस सत्य है। किसका? सत्य किसी का नहीं होता। सत्य के हम होते हैं, सत्य हमारा नहीं होता। सागर नदियों का नहीं होता, नदियां सागर की हो जाती हैं। तब चौथी बात दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी। सत्य तो बस सत्य है। न हिंदू का, न मुसलमान का, न ईसाई का, न जैन का, न बौद्ध का। अव्याख्य, अनिर्वचनीय है। विशेषण शून्य है। और जिस दिन ऐसा सत्य दिखे, जानना उस दिन ही मुक्ति करीब आयी। ऐसा सत्य ही मुक्त करता है।

जब तक हिंदू हो, बंधे रहोगे। मुसलमान हो, जकड़े रहोगे। ईसाई हो, कारागृह में पड़े हो। जैन हो, जंजीरों में हो। जिस दिन जैन, हिंदू, ईसाई, बौद्ध, ये सारी सीमाएं पीछे छूट जाएंगी, सत्य केवल सत्य रह जाएगा, उस दिन ही जानना आकाश मिला, असीम मिला, अनंत मिला। और अनंत में ही मुक्ति है। उसी अनंत की तरफ मलूक के इशारे हैं।

राम दुवारे जो मरे 

ओशो 

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