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Friday, June 9, 2017

परमात्मा शब्द ही मेरी समझ में नहीं आता है। परमात्मा यानी क्या?



स्वरूप! जो समझ में नहीं आता है, उसी का नाम परमात्मा है। जो समझ में आ जाता है, उसका नाम संसार। जो समझ में नहीं आता, वह भी है। समझ पर ही अस्तित्व की परिसमाप्ति नहीं है, समझ के पार भी अस्तित्व फैला हुआ है, इस बात की उदघोषणा ही परमात्मा है। 
 
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। इसलिए जो परमात्मा को व्यक्ति मान कर खोजने चलेंगे, व्यर्थ ही भटकेंगे, कहीं न पहुंचेंगे। परमात्मा तो अज्ञात का नाम है। अज्ञात का ही नहीं वरन अज्ञेय का। जिसे जानो तो जान न पाओगे। जिसे जितना जानने की चेष्टा करोगे, उतना ही पाओगे कि अनजाना हो गया। 

लेकिन फिर भी, एक और द्वार से परमात्मा में प्रवेश होता है--उस द्वार का नाम ही प्रेम है। जानने से नहीं जाना जाता, लेकिन प्रीति से जाना जाता है, प्रेम से जाना जाता है। जानना ही अगर जानने का एकमात्र ढंग होता, तो परमात्मा से संबंधित होने का कोई उपाय न था। लेकिन एक और ढंग भी है। बुद्धि ही नहीं है तुम्हारे भीतर सब कुछ, हृदय का भी स्मरण करो। सोच-विचार ही सब कुछ नहीं है तुम्हारे भीतर, भाव की आर्द्रता को भी थोड़ा अनुभव करो। आंखें सिर्फ कंकड़-पत्थर ही नहीं देखती हैं, उनसे प्रीति के आंसू भी झरते हैं। अगर विचार पर ही ठहरे रहे तो परमात्मा नहीं है। इसलिए नहीं कि परमात्मा नहीं है, बल्कि इसलिए कि विचार की क्षमता नहीं है परमात्मा को जानना।

यह तो ऐसा ही हुआ कि कोई आदमी आंख से संगीत सुनना चाहे। और फिर संगीत सुनाई न पड़े। और वह कहे कि आंख से जब तक सुनाई न पड़ेगा संगीत, मैं मानूंगा नहीं। तो क्या करेंगे हम? आंख से संगीत सुना नहीं जा सकता। उसकी जिद्द है कि आंख से सुनेगा। कान से सुना जा सकता है, उसकी जिद्द है कि कान खोलेगा नहीं।

प्रत्येक उपकरण की सीमा है। बुद्धि पदार्थ को जान सकती है, परमात्मा को नहीं। हृदय परमात्मा को जान सकता है, पदार्थ को नहीं। कान संगीत सुन सकते हैं, रोशनी नहीं देख सकते। आंखें रोशनी देख सकती हैं, संगीत नहीं सुन सकतीं। हाथ छू सकते हैं, स्पर्श कर सकते हैं, गंध का अनुभव नहीं कर सकते। उसके लिए तो नासापुटों की जरूरत होगी। प्रत्येक अनुभूति का अपना द्वार है। और प्रत्येक अनुभूति केवल अपने ही द्वार से उपलब्ध होती है।

तुम पूछते हो, स्वरूप: "परमात्मा शब्द मेरी समझ में नहीं आता।

किसकी समझ में कब आया? किसी की समझ में कभी आया है? समझ से नाता ही नहीं है। यह तो नासमझों के लिए संभावना है। यह तो दीवानों का रास्ता है। यह तो मस्तों का मार्ग है। इसीलिए तो इतना कठिन है प्रेम का पंथ। प्रेम-पंथ ऐसो कठिन! 


प्रेम-पंथ ऐसो कठिन

ओशो 

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