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Thursday, June 22, 2017

माला और भगवे कपड़े में बांधने के आपके प्रयास में हमें परंपरा की बू मालूम पड़ती है..



बंधी परंपराओं के विरुद्ध आपके विचार बहुत अच्छे व प्रेरणादायी लगते हैं। किंतु माला और भगवे कपड़े में बांधने के आपके प्रयास में हमें परंपरा की बू मालूम पड़ती है। हमें लगता है कि भगवान का संबोधन स्वीकार करने और माला तथा भगवे रंग के कपड़ों को देने के पीछे आपकी एक पीर-पैगंबर या अवतारी पुरुष होने की वासना छिपी हुई है। यह मेरा नितांत भ्रम भी हो सकता है। कृपा करके इसका निवारण करें!

शांतानंद सरस्वती! सबसे पहला काम तो तुम यह करो कि माला छोड़ो और गेरुए वस्त्र छोड़ो। जिस चीज में तुम्हें परंपरा की बू आती हो, उसमें उलझना क्यों? मैं तुम्हें बुलाने नहीं गया। मेरी कोई उत्सुकता नहीं है कि तुम संन्यासी होओ। तुम आकर प्रार्थना करते हो कि संन्यासी होना है; मैं तो अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकलता। दरवाजे के बाहर नहीं गया वर्षों से। मेरी कोई उत्सुकता नहीं है तुम में, तुम्हारे संन्यास में। तुम माला और गेरुए वस्त्र छोड़ दो। क्यों इस परेशानी में पड़ना? जिस चीज में बू आती हो परंपरा की तुम्हें, तुमसे कहता कौन है कि उलझो? और अगर तुम्हारी हिम्मत न पड़ती हो माला छोड़ने की, तो संत महाराज को मैं कहे देता हूं, तुम जब बाहर जाओगे दरवाजे के, वे माला तुमसे वापस ले लेंगे, ताकि तुम्हारा छुटकारा हो। 

इस तरह के लोगों को मैं यहां चाहता भी नहीं। मेरा कोई भी रस नहीं है इस तरह के लोगों में।

मैंने गैरिक वस्त्र इसीलिए चुने हैं कि गैरिक वस्त्रों को परंपरा ने बदनाम कर दिया। मैं गैरिक वस्त्रों को चुन कर परंपरा से मुक्त कर रहा हूं। गैरिक वस्त्र प्यारे वस्त्र हैं, बड़े प्रतीकात्मक वस्त्र हैं। गैरिक रंग वसंत का रंग है। और वसंत तुममें आए तो ही परमात्मा आए। गैरिक रंग सूर्योदय का रंग है। तुम्हारे भीतर भी ध्यान का सूर्योदय हो तो परमात्मा तुम्हारे भीतर आए। गैरिक रंग फूलों का रंग है, मस्ती का रंग है, खिलावट का रंग है। तुम्हारे भीतर समाधि का फूल खिले, सहस्रदल कमल खिले, तो ही तुम जान सकोगे कि सत्य क्या है। गैरिक रंग लहू का रंग है; वह जीवन का प्रतीक है।

बुद्ध ने पीत वस्त्र चुने थे अपने भिक्षुओं के लिए--पीले, क्योंकि पीत रंग, पीले पत्ते का रंग, मौत का प्रतीक है। और बुद्ध की पूरी की पूरी देशना यही थी कि जीवन असार है, व्यर्थ है, छोड़ देने योग्य है; मृत्यु वरण करने योग्य है। इसलिए पीला रंग उन्होंने चुना था। वह प्रतीक रंग है।

जैनों ने सफेद रंग चुना है अपने साधुओं के लिए--सफेद वस्त्र। सफेद वस्त्र त्याग का प्रतीक है। अगर तुम प्रकाश के विज्ञान से परिचित हो तो सफेद वस्त्र त्याग का प्रतीक है। क्यों? क्योंकि सफेद कोई रंग नहीं है, सब रंगों का अतिक्रमण है। सफेद न लाल है, न पीला है, न हरा है, न नीला है। सारों रंगों के मिलने से, सारे रंगों के एक साथ जुड़ जाने से, संगम हो जाने से--एक अतिक्रमण पैदा होता है, वह सफेद रंग है। सफेद रंग रंगों के पार जाना है। जीवन सतरंगा है। जीवन इं(धनुष जैसा है। उसमें सातों रंग हैं। जीवन में सातों राग हैं--सा, रे, , , , , नि। सफेद राग-रहित है, वह विराग है। उसमें सातों राग खो गए, सातों रंग खो गए। वह कोरा है। इसलिए जैनों ने सफेद वस्त्र चुने थे। 

हिंदुओं ने गैरिक वस्त्र चुने थे। सिर्फ इसलिए कि हिंदुओं ने गैरिक वस्त्र चुने, मैं गैरिक वस्त्र न चुनूं, यह नहीं हो सकता। यह तो परंपरा से डरना हो जाएगा। मैं न तो परंपरावादी हूं और न परंपरा से भयभीत हूं। मुझे तो जो उचित लगता है, जो प्रीतिकर लगता है, वह मेरा है। वह फिर किसी का हो, मैं फिक्र नहीं करता इसकी; वह बाइबिल में हो, कुरान में हो, गीता में हो, धम्मपद में हो, समयसार में हो--मैं किसी की बपौती नहीं मानता। मैं गैरिक रंग को सफेद और पीत दोनों रंगों से ऊंचाई पर मानता हूं।

इस्लाम ने हरा रंग चुना है, क्योंकि वह हरियाली का प्रतीक है, वृक्षों का प्रतीक है। लेकिन इन सारे रंगों पर विचार करने के बाद मुझे तो गैरिक जमा। इसलिए नहीं चुना है कि वह परंपरा का प्रतीक है, क्योंकि मैं कोई हिंदू घर मैं पैदा नहीं हुआ, हिंदू होना मेरी परंपरा नहीं है। मैं पैदा तो जैन घर में हुआ, लेकिन सफेद वस्त्र मैंने नहीं चुने। वे मेरे लिए परंपरागत वस्त्र थे। मैंने चुने गैरिक वस्त्र, क्योंकि मुझे लगा कि इन सारे रंगों में गैरिक रंग की जितनी विधाएं हैं, जितना बहुआयामी है, उतना कोई दूसरा रंग नहीं है। यह मुझे प्रीतिकर लगा। इसलिए मैंने चुना है। और इसलिए भी कि मैं चाहता हूं कि पृथ्वी पर इतने गैरिक संन्यासी हों मेरे कि वे पुराने ढब के जो गैरिक संन्यासी हैं, डूब ही जाएं, उनका पता चलना मुश्किल हो जाए। उन्हें मैं डुबाना चाहता हूं। मुक्तानंद, अखंडानंद, नित्यानंद, शिवानंद...इनको मैं डुबाना चाहता हूं। इसलिए मैं अपने संन्यासियों को नाम भी दे रहा हूं--शिवानंद, मुक्तानंद, नित्यानंद--ताकि यह तय करना ही मुश्किल हो जाएगा एक दस साल के भीतर कि कौन कौन है। मैं इतने शिवानंद और इतने नित्यानंद और इतने मुक्तानंद खड़े कर दूंगा कि वे जो पिटे-पिटाए मुक्तानंद थे, इस भीड़-भाड़ में कहीं खो जाएंगे, उनकी कुछ पूछ न रह जाएगी।

और सवाल इसका नहीं है कि क्या परंपरागत है। क्योंकि जीवन कोई एकदम से थोड़े ही आविर्भूत होता है। सारी चीजें संबद्ध हैं, शृंखलाबद्ध हैं। जो गंगा तुम प्रयाग में पाते हो, वह गंगोत्री से चल रही है। वही गंगा नहीं है, लेकिन फिर भी वही है। दोनों बातें ध्यान में रखना। बहुत कुछ नया आ गया है उसमें, लेकिन शुरुआत, प्रारंभ, स्रोत तो पुराना ही है।

तो मेरा संन्यास प्राचीन से प्राचीन है और नवीन से नवीन। इसलिए मैंने पुराने से पुराना रंग चुना है उसके लिए और नये से नया ढंग चुना है उसके लिए। यह मेरा चुनाव है। तुम्हें प्रीतिकर लगे, ठीक; तुम्हें प्रीतिकर न लगे, तुम छोड़ने को मुक्त। 

तुम पूछते हो कि "भगवान का संबोधन स्वीकार करने...'

मैंने किसी का संबोधन स्वीकार नहीं किया; यह मेरी घोषणा है। यह किसी का संबोधन नहीं है। यह मेरी घोषणा है कि प्रत्येक व्यक्ति भगवान है। तो क्या तुम सोचते हो, सिर्फ मैं अपने को अपवाद मान लूं कि मुझे छोड़ कर सब व्यक्ति भगवान हैं? भगवत्ता प्रत्येक व्यक्ति के भीतर छिपी है, यह मेरी उदघोषणा है। और जो मेरी उदघोषणा तुम्हारे बाबत है, वह मेरे बाबत भी है। यह तुम्हारा संबोधन नहीं है। दुनिया में मुझे एक भी व्यक्ति भगवान न कहे तो भी मैं अपने को भगवान कहूंगा। मैं क्या कर सकता हूं इसमें, कोई कहे या न कहे! यह तुम्हारी मौज, तुम्हें जो कहना हो। मुझे शैतान कहने वाले लोग हैं। यह मेरी उदघोषणा है, खयाल रखना।

उपनिषदों में जब ऋषियों ने घोषणा की अहं ब्रह्मास्मि, तो वह किसी का संबोधन नहीं है। वे कहते हैं: मैं ब्रह्म हूं! जब अलहिल्लाज मंसूर ने उदघोषणा की अनलहक, कि मैं ईश्वर हूं, तो वह किसी का संबोधन नहीं है। तुम क्या संबोधन करोगे? तुम्हें अपना पता नहीं, तुम मुझे क्या संबोधन करोगे? तुम्हें अपने भीतर की भगवत्ता का बोध नहीं है, तुम मेरी भगवत्ता को कैसे पहचानोगे? मुझे मेरी भगवत्ता का बोध है, इसलिए तुम्हारी भगवत्ता को भी पहचानता हूं।

और तुम कहते हो कि "आपकी एक पीर-पैगंबर या अवतारी पुरुष होने की वासना छिपी हुई है।

भगवान से ऊपर तो नहीं होते पीर-पैगंबर। या अवतारी पुरुष भगवान से ऊपर तो नहीं होते। और मैं भगवान से इंच भर नीचे उतरने को राजी नहीं हूं। तुम कहां की बातें कर रहे हो!

और इस तरह के प्रश्न रोज लिख कर भेजते हो। अब तुम चाहते हो, इनके उत्तर होने चाहिए। इतने लोगों का समय खराब करवाना है?

रहिमन धागा प्रेम का 

ओशो


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