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Friday, June 9, 2017

जिसकी स्वतंत्रता खो जाए, वह मोक्ष कैसे पाएगा?



ऐसा हुआ, मैं हैदराबाद में था। एक जैन मुनि को मेरी बात जंच गई। युवा थे, अभी हिम्मत थी। तो उन्होंने छोड़ दिया मुनि-वेश। उन्होंने कहा: आप ठीक कहते हैं। मेरे मन में सारी वासनाएं तो चल ही रही हैं। कुछ भी गया नहीं है। तो क्या सार है! शायद आप ठीक कहते हैं कि मैं कच्चा छोड़ कर आ गया।

अभी उम्र भी ज्यादा नहीं थी, कोई तीस साल उम्र थी। और दस साल हो गए थे उनको मुनि हुए। हिम्मतवर थे, अभी जवान थे। हिम्मत की कि ठीक है, मेरा मन तो अभी यहां लगता नहीं, यहां मुझे कुछ मिलता भी नहीं। दस साल देख लिया। और जो संसार है वह मुझे अभी खींच रहा है, तो शायद आप ठीक कहते हैं: मैं कच्चा टूट गया। मैं पकूंगा। फिर जब सौभाग्य का क्षण आएगा, सहज संन्यास फलित होगा, तो ठीक है।

यह आदमी ईमानदार था, प्रामाणिक था। लेकिन जैन समाज तो बहुत नाराज हो गया। इस आदमी के पैर छूते थे, वे इस आदमी को मारने को तैयार हो गए! कहते हैं अहिंसक हैं, मगर कहां कौन अहिंसक है! पानी छान कर पीते हैं, खून बिना छाने पी जाते हैं। वे तो मारने को...क्योंकि उनके तो यह भारी सदमा हो गया, उनका मुनि और छोड़ कर चला गया।

मैं एक सभा में बोलने गया था। जैनों की ही सभा थी। वे मुनि भी मेरे साथ आ गए। अब तो वे मुनि नहीं थे। तो एक आदमी ने उनको नमस्कार नहीं किया। यह तो बात चलो ठीक है, लेकिन वे मंच पर मेरे साथ बैठ गए, तो मेरे पास चिट्ठियां आने लगीं कि इनको मंच से नीचे उतारिए। मैंने उनसे कहा: भई, मैं मुनि तुम्हारा नहीं हूं, मैं मंच पर बैठा, तो ये बेचारे कभी तो मुनि थे, भूतपूर्व सही! भूतपूर्व मंत्री भी आता है तो भी आदमी इज्जत करता है। ये भूतपूर्व मुनि हैं, तुम्हारे ही मुनि हैं।

मगर उन्होंने कहा कि जब तक ये नीचे न उतरेंगे, सभा आगे न बढ़ेगी। बड़ा शोरगुल मचाने लगे। लोग उठ कर खड़े हो गए। मुझे यह लगा कि वे उनको खींच कर ही उतार लेंगे। मंच घेर लिया। मैंने उन मुनि महाराज से कहा कि अब तुमने मुनि-व्रत भी छोड़ दिया, अब तुम यह मंच का भी थोड़ा मोह छोड़ो। यह झंझट फिजूल की हो रही है। अब मुनि ही जब न रहे, तो अब मंच भी जाने दो।

मगर वे भी जिद्दी! जिद्दी न होते तो वे मुनि ही कैसे हुए होते! वे भी छोड़ने को राजी नहीं, क्योंकि वह भी प्रतिष्ठा का सवाल कि मंच कैसे छोड़ दें! और वह जनता भी अहिंसकों की!...मगर इस तरह खूनी आंख कि उनको मार डालें! आखिर सिवाय इसके कोई रास्ता नहीं था, मैं मंच से उतर कर चला गया। जब मैं उतर गया, तो मुनि महाराज मेरे पीछे उतर गए। वह सभा नहीं हो सकी। और उनको हैदराबाद छुड़वा कर रहे लोग। वही लोग जो पैर छूते थे, मंच पर न बैठने देंगे।

तो कौन किसका मालिक है? तुम जिनको मुनि कहते हो, जिनको त्यागी कहते हो, साधु कहते हो--वे तुम्हारे गुलाम हैं। वे तुम पर निर्भर हैं। तुम जैसा चलाते हो, वैसे चलते हैं। तुम जहां बिठाते हो वैसे बैठते हैं। तुम जो करवाते हो वैसा करते हैं। कठपुतलियां हैं। 

जब तुम साधु हो जाओगे--जबरदस्ती के साधु--तब तुमको पता चलेगा कि तुमने एक और बड़ी गुलामी ले ली। पहले कम से कम गुलामी थी--पत्नी थी, बच्चे थे, थोड़ा सा परिवार था--अब यह पूरी भीड़ के तुम गुलाम हो गए। स्वतंत्रता खो गई। और जिसकी स्वतंत्रता खो जाए, वह मोक्ष कैसे पाएगा? स्वतंत्रता तक न रही, तो परम स्वतंत्रता तो कैसे मिलेगी? परम स्वतंत्रता की तरफ जाना हो तो स्वतंत्रता को बढ़ना चाहिए, तो ही पहुंच पाओगे।

पद घूँघरु बांध 

ओशो 


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