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Saturday, June 10, 2017

ओशो, गीता जैसे अमृत तुल्य परम रहस्यमय उपदेश को भगवान ने अर्जुन को ही क्यों दिया? अर्जुन में ऐसी कौन सी योग्यता थी कि वह इसके लिए पात्र था? उसका ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तप था?


कुछ बातें खयाल में लेने जैसी हैं, वे गीता को समझने में उपयोगी होंगी, स्वयं को समझने में भी।
 
अर्जुन का कोई भी तप नहीं है। तप की भाषा ही अलग है। अर्जुन का प्रेम है, तप नहीं है। तप की भाषा अलग है। तप की भाषा है संकल्प की भाषा। एक आदमी कहता है कि मैं पाकर रहूंगा। अपनी सारी ताकत लगा दूंगा। जो भी त्याग करना है, करूंगा। जो भी खोना है, खोऊंगा। जो भी श्रम करना है, करूंगा। अपनी सारी ताकत लगा दूंगा।

आपको खयाल है, हिंदुस्तान में दो संस्कृतियां हैं। एक तो है आर्य संस्कृति और दूसरी है श्रमण संस्कृति। श्रमण संस्कृति में जैन और बौद्ध हैं। आर्य संस्कृति में बाकी शेष लोग हैं।

कभी आपने समझा इस श्रमण शब्द का क्या अर्थ होता है? श्रमण का अर्थ है, श्रम करके ही पाएंगे। चेष्टा से मिलेगा परमात्मा तप से, साधना से, योग से। मुफ्त नहीं लेंगे। प्रार्थना नहीं करेंगे, प्रेम में नहीं पाएंगे; अपना श्रम करेंगे और पा लेंगे। एक सौदा है, जिसमें अपने को दांव पर लगा देंगे। जो भी जरूरी होगा, करेंगे। भीख नहीं मांगेंगे, भिक्षा नहीं लेंगे, कोई अनुग्रह नहीं स्वीकार करेंगे।

तो महावीर परम श्रमण हैं। वे सब दांव पर लगा देते हैं और घोर संघर्ष, घोर तपश्चर्या करते हैं। महातपस्वी कहा है उन्हें लोगों ने। बारह वर्ष तक, बारह वर्ष तक निरंतर खड़े रहते हैं धूप में, छांव में, वर्षा में, सर्दी में। बारह वर्ष में कहते हैं कि सिर्फ तीन सौ साठ दिन उन्होंने भोजन किया। मतलब ग्यारह वर्ष भूखे, बारह वर्ष में। कभी एक दिन भोजन किया, फिर महीने भर भोजन नहीं किया, फिर दो महीने भोजन नहीं किया। सब तरह अपने को तपाया और तप कर पाया।

यह समर्पण के विपरीत मार्ग है, संकल्प का। इसमें अहंकार को तपाना है। और इसमें अहंकार को पूरी तरह दांव पर लगाना है। इसमें अहंकार को पहले ही छोड़ना नहीं है। अहंकार को शुद्ध करना है। और शुद्ध करने की प्रक्रिया का नाम तप है। अहंकार को शुद्ध करने की प्रक्रिया का नाम तप है।
जैसे सोने को हम आग में डाल देते हैं। तप जाता है। जो भी कचरा होता है, जल जाता है। फिर निखालिस सोना बचता है। महावीर कहते हैं कि जब निखालिस अस्मिता बचती है तपने के बाद, सिफ मैं का भाव बचता है, शुद्ध मैं का भाव, तपते तपते, तब आत्मा परमात्मा हो जाती है। वह शुद्धतम अहंकार ही आत्मा है। यह एक मार्ग है, इसमें सोने को तपाना जरूरी है।

एक दूसरा मार्ग है, जो समर्पण का है, जिसमें तपाने वगैरह की चिंता नहीं है। सोने को, कचरे को, सबको परमात्मा के चरणों में डाल देना है। सोने को कचरे से अलग नहीं करना है। कचरे सहित सोने को भी परमात्मा के चरणों में डाल देना है। और कह देना है, जो तेरी मर्जी

समर्पण का अर्थ है, अपने को छोड़ देना है किसी के हाथों में। 'अब वह जो चाहे। यह छोड़ना ही घटना बन जाती है। यह प्रेम का मार्ग है। आप तभी छोड़ सकते हैं, जब प्रेम हो। संकल्प में प्रेम की कोई जरूरत नहीं है; समर्पण में प्रेम की जरूरत है।

अर्जुन का प्रेम है कृष्‍ण से गहन, वही उसकी पात्रता है। वहां प्रेम ही पात्रता है। उसका प्रेम अतिशय है। उस प्रेम में वह इस सीमा तक तैयार है कि अपने को सब भांति छोड़ सका है।

क्या घटना घटती है जब कोई अपने को छोड़ देता है? हमारी जिंदगी का कष्ट क्या है? कि हम अपने को पकड़े हुए हैं, हम अपने को सम्हाले हुए हैं। यही हमारे ऊपर तनाव है, यही हमारे मन का खिंचाव है कि मैं अपने को सम्हाले हुए हूं पकड़े हुए हूं।

प्रेम जागते हुए नींद में गिर जाना है। थोड़ा कठिन लगेगा समझना। प्रेम का मतलब है, होशपूर्वक, जागते हुए किसी में गिर जाना और छोड़ देना अपने को कि अब मैं नहीं हूं तू है। प्रेम एक तरह की नींद है जाग्रत। इसलिए प्रेम समाधि बन जाती है। कोई ध्यान करके पहुंचता है, तब बड़ा श्रम करना पड़ता है। कोई प्रेम करके पहुंच जाता है, तब श्रम नहीं करना पड़ता।

लगेगा कि प्रेम बहुत आसान है। लेकिन इतना आसान नहीं है। शायद ध्यान ही ज्यादा आसान है। अपने हाथ में है। कुछ कर सकते हैं। प्रेम आपके हाथ में कहां? हो जाए, हो जाए; न हो जाए, न हो जाए। लेकिन अगर छोड़ने की कला धीरे— धीरे आ जाए..।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि संकल्प से नहीं पहुंचा जा सकता। संकल्प से लोग पहुंचे हैं, संकल्प से पहुंचा जा सकता है। मगर गीता का वह मार्ग नहीं है। और अर्जुन की वह पात्रता नहीं है।

इसलिए प्रेम का मार्ग मानकर चलता है कि ईश्वर है परम केंद्र जीवन का, अस्तित्व का। उसमें हम अपने को छोड़ देते हैं। हम अपनी तरफ से अपने को नहीं ढोते। प्रेम के पथिक का कहना है कि सब तरह के प्रयास ऐसे ही हैं, जैसे कोई आदमी अपने जूते के फीते पकड़कर खुद को उठाने की कोशिश करे। यह नहीं हो सकता। छोड़ दो।

कृष्‍ण के सामने अर्जुन की एक ही योग्यता है कि वह छोड़ सका पूरा का पूरा। अगर आप भी छोड़ सकते हैं, तो जो अर्जुन को घटा, वह आपको भी घट जाएगा। नहीं छोड़ सकते हैं, तो बेहतर है फिर अर्जुन के रास्ते पर न चलें। फिर महावीर का रास्ता है, पतंजलि का रास्ता है, उस पर चलें। फिर चेष्टा करें, श्रम करें।

जिसको हम तैरने वाला कहते हैं, वह क्या सीख लेता है, आपको पता है! तैरना कोई कला थोड़े ही है। वह यही सीख लेता है कि नदी में मुर्दा कैसे हुआ जाए, बस। तैरना कोई कला है? तैरने में करते क्या हैं आप? हाथ—पैर थोड़े तड़फड़ा लेते हैं। वह भी जो सिक्खड़ है, वह तड़फड़ाता है। जो जानता है, वह हाथ—पैर छोड्कर भी नदी पर तैर लेता है। वह मुर्दा होना सीख गया है। अब वह नदी से लड़ता नहीं है। वह नदी के खिलाफ कोई कोशिश नहीं करता। वह नदी को कहता है कि तू भी ठीक, मैं तेरे साथ राजी हूं! वह तैरने लगता है।

नदी में मुर्दे की भांति हो जाएं, तो आप अर्जुन हो जाएंगे। फिर कोई आपको डुबा न सकेगा। अर्जुन की योग्यता थी कि वह अपने को छोड़ सका। वही भक्त की योग्यता है।

गीता दर्शन 

ओशो 

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