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Saturday, January 20, 2018

आपने कहा कि जगत और जीवन अतिशय रहस्य से भरा है। और उसका जर्रा-जर्रा चमत्कारपूर्ण है. ...

तो उस रहस्य और चमत्कार के प्रति हमारी आंखें क्यों और कैसे अंधी हो रही हैं? और क्या उस रहस्यबोध को फिर से उपलब्ध हुआ जा सकता है?

आंखें अंधी हो रही हैं? अति-विचार से। रहस्य को समझने के लिए विचार का थिर हो जाना जरूरी है, क्योंकि उसी संधि में से रहस्य दिखाई पड़ता है। आंखें तो तुम्हारी खुली हैं, लेकिन विचार से भरी हैं। उसी कारण खुली आंख भी देख नहीं पा रही है। 


देखते हो फूल को, जानते हो गुलाब का फूल है, बहुत बार देखा है, हजार-हजार स्मृतियां हैं गुलाब के फूल की; न मालूम कितनी कविताएं पढ़ी हैं गुलाब के फूल के संबंध में; चित्र और पेंटिंग्स देखी हैं; सब तुम्हारे मन में भरी हैं। जब तुम गुलाब के फूल के करीब जाते हो तब तुम्हारी सारी जानकारी बीच में पर्दे की तरह खड़ी हो जाती है। पर्त दर पर्त तुमने जो जो जाना है, वह बीच में आ जाता है। तुम्हारा जानना ही तुम्हारा अंधापन हो जाता है।


छांटो जानने को थोड़ी देर। थोड़ी देर गुलाब के पास ऐसे हो जाओ जैसे तुम अज्ञानी हो; जैसे न तुमने कभी गुलाब के फूल कभी देखे हैं, न उनके संबंध में कभी कुछ सुना है, न कोई चित्र देखे हैं, न कोई गीत गाए हैं। इस गुलाब को ही अपना गीत गाने दो। तुम्हारे गीतों को बंद करो। इस गुलाब को, जो मौजूद है, इसको ही प्रगट होने दो। तुम्हारे अतीत में देखें गए चित्रों को छोड़ो। वे जा चुके। दर्पण पर जमी धूल से ज्यादा उनका कोई मूल्य नहीं है। आकृतियां हैं सपनों की। 


यह वास्तविक है। वास्तविक को तुम छिपा रहे हो अवास्तविक से। अतीत को हटाओ, ताकि थोड़ी सी झलक इस गुलाब की, जो इस क्षण खिला है और फिर कभी दुबारा तुम इसे न मिल सकोगे। इसे जरा देखो, बैठो इसके पास। इस गुलाब को गुनगुनाने दो गीत। इस गुलाब को नाचने दो हवाओं में। इस गुलाब को मौका दो, कि अपनी सुगंध को तुम्हारी नासापुटों तक भेज सके। छुओ इसे, इसकी कोमलता को स्पर्श करो। इसकी पंखुड़ियों पर जमी हुई ओस की बूंदों को देखो, सब मोती फीके हैं।


यह जो गुलाब इस क्षण खिला है, इस क्षण का गुलाब--इसे तुम अपनी आत्मा पर फैलने दो। तुम थोड़ी देर मौन और शांत इसके पास बैठ जाओ। और तुम पाओगे, अचानक आंखें खुल गई। एक रहस्य से तुम भरे जा रहे हो। यह छोटा सा गुलाब एक स्रोत है। इससे अनंत प्रकाश और अनंत सुगंध और अनंत रहस्य की ऊर्जा प्रगट हो रही है। तुम उसमें डूबो, तुम रससिक्त हो जाओ। जानकारी अलग करो, जीना शुरू करो।


बैठे हो नदी के तट पर, इस नदी को होने दो। छोड़ो उन नदियों को, जिन घाटों पर तुम कभी थे। मीठी स्मृतियां, कड़वी, स्मृतियां, जाने दो उन्हें। उनसे अब कुछ लेना-देना न रहा। अब सिवाय तुम्हारी स्मृति में, उनका कोई मूल्य नहीं है, उनकी कोई सत्ता नहीं है। और छोड़ो उन भविष्य की कल्पनाओं को भी उन नदियों के तटों पर जिन पर तुम कभी रहोगे।


इस नदी को थोड़ी देर अवसर दो, तुम्हारे संग-साथ हो ले। तुम इसके संग-साथ हो लो। थोड़ी देर इसके साथ चलो, थोड़ी देर इसके साथ बहो, थोड़ी देर इसमें डुबकी लो। थोड़ी देर इसके साथ एक हो जाओ--और रहस्य का द्वार खुल जाएगा।


सब तरफ रहस्य मौजूद है। तुम्हारी आंखें भी खुली हैं। किसने कहा, कि तुम अंधे हो? और किसने कहा, कि तुम्हारी आंखें बंद हैं? सिर्फ धुंधली है, धुएं से भरी हैं। और धुआं कुछ नहीं, तुम्हारी अतीत की पर्तें है, विचारों की पर्तें हैं। उनको थोड़ा हटाकर देखो। ऐसे देखो, जैसे छोटा बच्चा देखता है। उसके पास कोई जानकारी नहीं होती। अज्ञान से देखता है। 


अगर रहस्य को चाहते हो, अज्ञान से देखो। पांडित्य को हटाओ, उतारो, वही तुम्हारा दुश्मन है। पाप के कारण तुम परमात्मा से अलग नहीं हो, पांडित्य के कारण तुम अलग हो। मेरे देखे पांडित्य एक मात्र पाप है। पापी भी पहुंच सकता है, पंडित कभी पहुंचते हुए नहीं सुने गए। तुम्हारी गीता तुम्हारा कुरान, तुम्हारी बाइबिल--हटाओ आंखों से। परमात्मा मौजूद है; तुम उसे क्यों नहीं देखते? तुम अपना वेद-पाठ किए जा रहे हो। द्वार पर परमात्मा खड़ा दस्तक दे रहा है, तुम अपनी पूजा किए चले जा रहे हो। 


तुम थोड़े खाली हो जाओ, बस! अज्ञान, नहीं कुछ जानता हूं ऐसी भावदशा ज्ञान की तरफ पहला कदम है। जानता हूं, ऐसी भाव-दशा--तुम सख्त हो गए। तुम्हारी तरलता खो गई। तुम जाम हो गए, जम गए। तुम बर्फ की तरह जम गए, पत्थर हो गए। अब तुममें बहाव न रहा।


प्रतिपल मौका मिल रहा है तुम्हें। सुबह उठे हो, आंखें नहीं खोली है अभी, पक्षियों ने गीत गाए हैं? रास्ते पर धीमे-धीमे लोग चलने लगे हैं, दूधवाले ने आवाज दी है, सुनो। जैसे पहली बार सुन रहे हो। रातभर के बाद मन ताजा है। थोड़ा सुनो, थोड़े पड़े रहो आंख बंद किए ही। थोड़ा सुनो, थोड़े कानों को इस रहस्य का अनुभव करने दो। आंख खोलो, अपने ही घर अजनबी हैं। सभी घर सराएं हैं। आज हो, कल नहीं रहोगे। कल कोई और घर था आज कोई और घर है। कल कोई और मालिक था, कल और मालिक होगा; आंख खोलो। 


अपने ही बच्चे को ऐसा देखो, जैसे अतिथि है। और बच्चे अतिथि हैं, मेहमान हैं। कौन जानता है, आज बच्चा है, कल न हो। फिर रोओगे, छाती पीटोगे, तड़पोगे, कि एक बार और आंख भरकर देख लिया होता। लेकिन आंख भरकर देखने का मौका ही नहीं मिला। मौके हजार थे, तुम चूकते ही चले गए। अपनी ही पत्नी को ऐसे देखो, जैसे आज ही उसे लिवा लाए हो, आज ही विवाह कर लाए हो, आज ही भांवर पड़ी है। 


चीजों को नए सिरे से देखना शुरू करो, बासी मत होने दो। उधार आंखों से मत देखो, ताजी आंखों से देखो। कल की आंखों से मत देखो, आज की आंखों से देखो। रोज झाड़ते जाओ धूल को, दर्पण को धूल से मत भरने दो। और तुम्हारे जीवन में रहस्य का आविर्भाव होने लगेगा। सब तरफ तुम पाओगे रहस्य। सब तरफ तुम पाओगे उसी की धुन बज रही है।


कोई भी चीज तो तुमने जानी नहीं है। आदमी परमात्मा को जानने की बात करता है, राह पर पड़े हुए पत्थर को भी नहीं जानता। पत्थर भी रहस्य है। और जिस दिन पत्थर रहस्य हो गया, उसी दिन पत्थर भी परमात्मा हो गया। उस दिन उसके सिवाय तुम कुछ भी न पाओगे। पक्षी की गुनगुनाहट में उसी की धुन सुनाई पड़ेगी। हवाओं की थिरकन में, वृक्षों से गुजरते हवा के झोंके में उसी की आवाज, सरसराहट मालूम पड़ेगी। किसी की आंख में झांकोगे और उसी का झरना दिखाई पड़ेगा। किसी का हाथ छुओगे और वही तुम्हारे हाथ में आ जाएगा।


लेकिन इसके लिए एक गहरी क्रांति जरूरी है। उस क्रांति को ही मैं ध्यान कहता हूं। ध्यान का अर्थ है, मन को झाड़ना, मन को स्नान देना; जैसे तुम रोज स्नान कर लेते हो, शरीर गंदा नहीं हो पाता, मन गंदा हो जाता है--क्योंकि मन का स्नान तुम भूल ही गए हो। 


ध्यान मन का स्नान है, जितनी बार धो सको। 


हिंदू व्यवस्था थी कि सुबह उठकर ध्यान कर लो, ताकि दिनभर के लिए मन ताजा हो जाए। रात सोते वक्त ध्यान कर लो, ताकि दिनभर की धूल फिर झड़ जाए। मुसलमान तो पांच बार प्रार्थना करते रहे हैं, ताकि दिन में बार-बार धूल जमने ही न पाए। जब भी जरा सी धूल जमे, फिर प्रार्थना कर लो, फिर नमाज में उतर जाओ। फिर जरा धो डालो, साफ कर लो, दर्पण साफ रहे। उस दर्पण में ही तो तुम किसी दिन परमात्मा को पकड़ोगे। 


बस, इतनी ही कला है। ध्यान कला है रहस्य का द्वार खोलने की। ध्यान में ही घूंघट उठ जाता है। घूंघट परमात्मा के चेहरे पर नहीं है, तुम्हारे मन पर है। तुम्हारी धूल हट गई, परमात्मा सदा से सामने मौजूद था।


पिव पिव लागी प्यास 

ओशो

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