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Saturday, January 20, 2018

लोग बुद्ध से लोग पूछते कि कैसे आपने पाया?



बुद्ध ने छह वर्ष तक तपश्चर्या की। जो भी जिसने कहा, वही उन्होंने किया। किसी ने कहा, उपवास, तो उन्होंने उपवास किए लंबे। और किसी ने कहा कि शीर्षासन, तो शीर्षासन किया। और किसी ने कहा, नाम जपो, तो नाम जपा। और जिसने जो कहा, वे करते रहे। छह वर्ष निरंतर प्रयास करके भी कहीं पहुंचे नहीं, वहीं थे जहां से यात्रा शुरू की थी। निरंजना नदी में स्नान करने उतरे थे। देह दुर्बल हो गई थी। लंबे उपवास किए थे। नदी में तेज धार थी। नदी से निकलने में इतनी भी शक्ति न थी कि बाहर निकल आएं। तो एक जड़ को पकड़ कर वृक्ष की किसी तरह रुके रहे। उस जड़ को पकड़े समय उनके मन में खयाल आया: इतना निर्बल हो गया हूं कि नदी भी पार नहीं होती, तो उस जीवन की बड़ी नदी को कैसे पार कर पाऊंगा? और छह वर्ष हो गए, सब कर चुका जो कर सकता था, अब तो करने योग्य शक्ति भी नहीं बची है। अब क्या होगा? और सब कर लिया है निष्ठापूर्वक, लेकिन उसके कोई दर्शन नहीं हुए। धन तो छोड़ आए थे, यश तो छोड़ आए थे, राज्य तो छोड़ आए थे, उस दिन निरंजना नदी के उस तट पर अंतिम अहंकार भी व्यर्थ हो गया कि मेरे प्रयास से पा लूंगा। 


फिर वे किसी भांति निकले और पास के एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। उस संध्या उन्होंने साधना भी छोड़ दी। कहना चाहिए, साधना भी छूट गई। सब छूट गया। यह भी छूट गया कि मैं पा लूंगा। छह साल की असफलता ने बता दिया यह भी नहीं हो सकता है। उस रात, उस संध्या बुद्ध के मन की कल्पना करना हमें बड़ी कठिन है। उस रात उनका मन कुछ भी करने की हालत में न रहा। 

धन की दौड़ नहीं थी, यश की दौड़ नहीं थी, आज सत्य की दौड़ भी नहीं थी। क्योंकि दौड़ कर पा लूंगा, यह बात ही समाप्त हो गई थी। उस रात वे परम निश्चिंत थे। कोई चिंता न थी। धर्म की चिंता भी न थी। परमात्मा को पाने का भी खयाल न था। कोई खयाल ही न था, कुछ पाने को न था, पैरों में कोई ताकत न थी। वे अत्यंत असहाय, हारे हुए, सर्वहारा, उस रात सो गए। वह पहली रात थी, जिस रात वे पूरी तरह सोए। क्योंकि मन में अब कुछ करने को न बचा था, सब व्यर्थ हो गया था। करना मात्र व्यर्थ हो गया था और कर्ता मर गया था। 


सुबह पांच बजे के करीब उनकी आंख खुली। आखिरी तारा डूब रहा था। उन्होंने आंख खोल कर उस आखिरी डूबते तारे को देखा। आज उनकी समझ के बाहर था कि क्या करूंगा! सुबह उठ कर क्या करूंगा! क्योंकि करना सभी समाप्त हो गया। धन की दौड़ पहले छूट चुकी; यश की दौड़ पहले छूट चुकी; रात धर्म की दौड़ भी छूट चुकी। अब मैं क्या करूंगा! वे एक शून्य में थे, जहां करना भी नहीं सूझ रहा था, एकदम खाली थे। और अचानक उन्हें लगा--जिसे मैं खोज रहा था, वह मिल गया है, वह भीतर से उभर आया है। उस शांत क्षण में, जब झील की सब लहरें ठहर गई थीं, आखिरी लहर जो धर्म के लिए मचलती थी, वह भी ठहर गई थी, उस क्षण में उन्होंने जाना कि जिसे मैं खोज रहा था वह तो मिल गया है। 

जब लोग उनसे पूछते कि कैसे आपने पाया? तो वे कहते कि जब तक कैसे मैंने उपाय किया, तब तक तो पाया ही नहीं। जब मेरे सब उपाय खो गए, तब मैंने देखा कि जिसे मैं खोज रहा था वह तो मेरे भीतर मौजूद है। 

असल में जिसे हम खोज रहे हैं वह भीतर मौजूद है और खोज में हम इतने व्यस्त हैं कि वह जो भीतर मौजूद है उसकी खबर ही नहीं आती। खोज भी खो जानी चाहिए, खोज भी मिट जानी चाहिए, तभी उसका पता चलेगा जो भीतर है। क्योंकि तब हम कहां जाएंगे


खोज में चित्त कहीं चला जाता है। जब कहीं भी खोजेंगे नहीं, तो अपने पर ही लौट आएंगे। फिर कोई रास्ता न रह जाएगा। उस क्षण में मिलेगा। तो उस क्षण में जब मिलेगा, तो कैसे कहें कि मैंने पा लिया!

समाधी के द्वार पर 

ओशो

 

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