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Tuesday, September 22, 2015

मैं आपके पदचिह्नों पर चलना चाहता हूं। आपका आशीर्वाद चाहिए।

    मुझे समझे नहीं। पदचिह्नों पर चलना नहीं है। पदचिह्नों पर चलोगे, उधार हो जाओगे, नकली हो जाओगे, कार्बन कॉपी हो जाओगे। मेरी सुनो, मुझे समझो, मुझे देखो, मुझे पहचानो लेकिन मेरा अनुकरण मत करना। मेरी पुकार सुनो और जागो लेकिन जब तुम जागोगे, तो तुम जैसे तुम्हीं होओगे। तुम किसी की कॉपी नहीं होओगे, तुम किसी की नकल नहीं होओगे। और तुम जिस रास्ते पर चलोगे वह तुम्हारा ही होगा। न तो पहले कोई उस ढंग से चला है और न फिर कभी कोई उस ढंग से चलेगा। 
जीवन के वास्तविक रास्ते चलने से बनते हैं, पहले से बने बनाए नहीं होते। सीमेंट के बने हुए रोड नहीं हैं जीवन के रास्ते। जीवन के रास्ते तो पहाड़ों में बनी पगडंडियां हैं। और पगडंडियां भी ऐसी नहीं कि कोई और चला हो और तुम उन पर चल जाओ। परमात्मा इतनी भी उधारी का मौका नहीं देता। परमात्मा मौलिक को प्रेम करता है और तुम्हें चाहता है कि तुम अपने मौलिक स्वरूप को उपलब्ध होओ। इसलिए तुम अगर बुद्ध के चरणचिह्नों पर चलकर पहुंचोगे तो तुम बुद्धू होकर पहुंचोगे, बुद्ध होकर नहीं पहुंच सकते। तुम चूक गए। तुम्हें तो अपने ही चरणचिह्न छोड़ जाने हैं। हां, समझो बुद्धों से, सीखो बुद्धों से। आत्मसात कर लो उनकी शिक्षा को, उनके प्रेम को, उनकी करुणा को। उनके ध्यान की तरंग में डूबे ताकि तुम्हारी अपनी तरंग पैदा हो सके। मगर जैसे ही तुम्हारी अपनी तरंग पैदा हो जाए, उसी का अनुसरण करो।

   मेरे पदचिह्नों पर चलने का आशीर्वाद मत मांगो। इतना ही मुझसे मांगो कि तुम अपने पथ को पा सको। ऐसा आशीर्वाद मुझसे मांगो। मेरा संन्यासी किसी भीड़ का हिस्सा नहीं है। मेरा प्रत्येक संन्यासी अद्वितीय है, अनूठा है, अपना है, अपने जैसा है। मैं तुम्हें भीड़ के हिस्से नहीं बनाना चाहता। वह तो अपमान होगा तुम्हारे भीतर छिपे परमात्मा का।

नहीं, ऐसा आशीर्वाद मुझसे मत मांगो। ऐसा आशीर्वाद मैं तुम्हें दे भी नहीं सकता क्योंकि ऐसा आशीर्वाद आशीर्वाद होगा ही नहीं, अभिशाप भी हो जाएगा।

मेरे पदचिह्नों पर तुम्हें नहीं चलना है। किसी के पदचिह्नों पर तुम्हें नही चलना है। तुम्हें अपना मार्ग खोजना है। तुम्हें अपने ही पदचिह्नों से परमात्मा के मंदिर तक पगडंडी बनानी है। और तभी खोज में आनंद होता है, उल्लास होता है, अभियान होता है।

मैं तुम्हें तुम्हारी निजता देना चाहता हूं।

नाम सुमिर मन बाँवरे 

ओशो 


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