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Saturday, September 12, 2015

भक्ति और योग

एक सम्राट अपने रथ से आ रहा है। राह पर उसने एक बूढे आदमी को अपनी गठरी ढोते देखा, दया आ गई। रथ रोककर उसे कहा,’’आ जा, तू भी बैठ जा, कहां उतरना है, उतार देंगे’’। वह रथ में तो बैठ गया। गरीब आदमी, रथ में कभी बैठा नहीं, सिकुड़ा-सिकुड़ा डरा-डरा… ठीक से बैठा नहीं कि कहीं ज्यादा गरीब आदमी को वजन न पड़ जाए। और तो और, सिर से गठरी भी न उतारी। सम्राट ने कहा कि गठरी नीचे रख दे, अब गठरी क्यों सिर पर रखी है , उसने कहा कि नहीं मालिक, इतना ही क्या कम है कि मुझको चढ़ा लिया, अब और गठरी का वजन भी आपके रथ पर रखूं, नहीं नहीं, यह मुझसे न होगा।

और इससे क्या फर्क पड़ता है कि जब तुम बैठे हो, तो गठरी तुम सिर पर रखो कि नीचे रखो? योगी की गठरी सिर पर है, भक्ति की रथ में। वह कहता है, परमात्मा पर सब छोड़ दिया,’’ अब तू ही सम्हाल!’’ वह एक ही कदम उठात है भक्त। जानी को बहुत कदम उठाने पड़ते हैं, क्योंकि जानी बड़ा कुशल है, बड़ा होशियार है। योगी को एक-एक सीढ़ी चढुनी पड़ती है। भक्ति एक छलांग है। भक्त कहता है कि अब हमारी समझ के बाहर है। हमारी समझ से चलेंगे तो पक्का है कि कभी न पहुंचेगे। तुझ पर भरोसा करते हैं।

जैसे हम कहते हैं, प्रेम अंधा है, लेकिन प्रेम के पास ऐसी आंख हैं जो आंखवाला के पास भी नहीं हैं। भक्त कहता है, सौंपा तेरे पास! तूने दिया जन्म, तूने दिया जीवन, तू ही चला! यह पतवार ले! हम निश्वित सोते हैं। तू वैसे ही चला रहा है, हम नाहक बीच-बीच में आते है।

योगी तैरता है नदी की धारा के विपरीत। भक्त बहता है नदी के साथ। इसलिए सुगम है। भक्त कहता है,’’ हम बहेंगे। अगर तुझे गलत जगह ले जाना हो तो ले जा, हम वहीं जाने को राजी हैं’’ । यह भक्त की हिम्मत है। भक्ति बड़ा साहस है–दुस्साहस है। जुआरी जैसा दांव लगाता है भक्त अपना सारा, अपने पास कुछ भी नहीं रखता। वह कहता है,’’ ठीक है, अब तुझे गलत ही ले जाना है तो स्वीकार है। अगर डुबाना है तो सही, डुबा’’ ।
जरा सोचो। जरा इस बात का स्वाद लो। जरा इसको भीतर हृदय में उतरने दो : अगर तुझे डुबाना है, सही, डुबा! तो क्या किनारा मिल न जाएगा इसी डूबने में? तो क्या मंझधार में किनारा उपलब्ध न हो जाएगा? क्योंकि जो डूबने को राजी हो गया, उसे कैसे डुबाओगे ?

तुमने कभी देखा, जिंदा आदमी डूब जाता है नदी में, मुर्दा तो ऊपर आ जाता है! जरूर मुर्दे को कोई तरकीब मालूम है जो जिंदा को नहीं मालूम। जिंदा आदमी डूब जात है, चेष्टा करता था बचने की, लड़ रहा था नदी से, शोरगुल मचाता था, चिल्लाता था कि बचाओ-बचाओ, अपना सब किया था जो कर सकता था और डूब गया। मुर्दे को क्या तरकीब मालूम है? मरते ही आदमी ऊपर आ जाता है, लाश तैरने लगती है।

भक्त जीते-जी मर जाता है। वह कहता है, हम हैं ही नहीं, तू ही है। अगर भटकेगा तो तू भटकेगा, हम कहां भटकेंगे! अगर डूबेगा तो तू डूबेगा, हम कहां डूबेंगे। अगर तुझे डूबने में मजा है तो हम कौन हैं जो बीच में बाधा डालें।

हम हैं ही कौन! हम तो एक भ्रम हैं , सत्य तो तू है!

इसलिए भक्ति सुगम है।

भक्तिसूत्र 

ओशो 

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