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Sunday, September 20, 2015

दुःसंग : सर्वथैव त्याज्य :

क्या है दुःसंग ,

पहला तो मन का संग, दु :संग है।

तुमने भक्ति-सूत्र की व्याख्याएं पढ़ी होंगी, तो उनमें दु: संग कहा है उन लोगों को जो बुरे हैं। उनसे क्या लेना-देना? बुरा आदमी तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा, अपना ही बिगाड़ रहा है। इसलिए जिन्होंने भक्ति-सूत्र की व्याख्या में लिखा है बुरे लोगों को साथ छोड़ दो, वे समझे नहीं।

दुःसंग का अर्थ है: मन का साथ छोड़ दो। यही एकमात्र दुःसंग है। तुम बुरे लोगों का साथ छोड़ दो और मन साथ बनाए रखो तो कोई दु:संग छूटनेवाला नहीं। तुम जहां रहोगे, तुम जैसे रहोगे, वहीं मन दु :संग खड़ा कर लेगा। मन बड़ा उत्पादक है, बड़ा सृजनात्मक है। परमात्मा के बाद अगर कहीं कोई स्रष्टा है तो मन है। कितना सृजन करता है–ना कुछ से। शून्‍य से आकृतियां बना लेता है। शून्‍य में रंग भर देता है। शून्‍य में इन्द्रधनुष उग आते हैं, फूल खिल जाते हैं। और अपने की बनाए ही खेल में कुछ अनुरक्त हो जाता है। अपने ही हाथ से बनाई छायाओं के पीछे दौड़ने लगता है।

इसलिए मेरी व्याख्या है मन का साथ छोड़ दो।

“दु:संग का सर्वथा त्याग करना चाहिए’’ ।

मैं तुमसे नहीं कहता, चोर का साथ छोड़ो। मैं तुमसे नहीं कहता, क्रोधइाई का साथ छोड़ो। मैं तुमसे कहता हूं, मन का साथ छोड़ो; क्योंकि मन ही चोर है, मन ही क्रोधी है। यह सवाल दूसरे का नहीं है, अन्यथा धार्मिक लोग बड़े कुशल हो गए हैं.. जो लोगों के साथ नहीं उठता- बैठता।

लेकिन साधु तो वही है जिसे दूसरों में बुरा दिखाई न पड़े। साधु तो वही है जिसे सभी जगह साधु का दर्शन होने लगे। साधु तो वही है जिसकी आखें जहां पड़े वहीं साधुता का आविर्भाव हो। तो यह साधु की व्याख्या तो नहीं हो सकती कि चोर का साथ छोड़ दो। कहीं कुछ भूल हो गई। हां, यह यह बात सच है कि अगर तुमने अपने मन के चोर का साथ छोड़ा तो चोरों से तुम्हारा साथ अपने-आप छूट जाएगा।

आखिर चोर से तुम्हारा साथ क्या है;… क्योंकि तुम भी चोर हो। और क्या साथ हो सकता है; दुष्ट से तुम्हारी संगति क्या है;… क्योंकि तुम्हारे भीतर भी दुष्टता है, उसी से सेतु बनता है। बुरे आदमी से तुम्हारा साथ क्यों हो गया है;… तुमने किया है। तुमने निमंत्रण दिया है। बुरा ऐसे ही नहीं आ गया है; तुमने बुलाया है। चाहे तुम खुद भूल भी गए होओगे कि कब बुलावा भेजा था, कब निमंत्रण पत्र लिखा था, लेकिन आया तुम्हारे ही बुलावे पर है।
इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है। इस जगत में जो कुछ भी है, व्यवस्थाबद्ध है। यह जगत एक परिपूर्ण व्यवस्था है। अगर तुम्हारा चोर से साथ है तो किन्हीं न किन्हीं रास्तों से तुमने चोर को बुलाया होगा। बीज बोए होंगे, तभी तो फसल काटोगे। चोर से साथ होने का एक ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर कहीं चोर है। समान समान से मिलना चाहता है। शराबी से दोस्ती हो गई है, क्योंकि तुम्हारे भीतर शराबी है। हत्यारे से नाता बन गया है, क्योंकि तुम्हारे भीतर हत्या करने की भावना और कामना छिपी है। हिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन जाएगी। अहिंसा भीतर हो तो हिंसक से दोस्ती बन ही न पाएगी, तालमेल न बैठेगा–छोड़ना ही पड़ेगा, बनना ही मुश्किल हो जाएगा।

तो मेरी व्याख्या को ठीक से समझ लेना अगर मन का साथ छूट जाए, तो और व्याख्याकारों ने जो कहा है, वह तो अपने से घटित हो जाता है, उसकी चिंता ही नहीं करनी पड़ती। इधर भीतर मन गया–क्रोध गया, लोभ गया, मोह गया, काम गया। वे सब मन के ही फैलाव हैं, वे सब मन की ही सेनाएं हैं। मन का सम्राट उन्हीं सेनाओं के सहारे जीता है–इधर मन मरा कि सेनाएंबिखरीं। इधर सम्राट गया कि सम्राज्य गया। तब तुम अचानक पाओगे बुरे से संबंध नहीं बनाना। तुम बनाना भी चाहो तो भी नहीं बनता। वस्तुत: तुम अगर बुरे के पीछे भी जाओगे तो बुरा तुमसे बचेगा, बुरा तुमसे डरने लगेगा। क्योंकि शुभ इतनी बड़ी शक्ति है, प्रकाश इतनी बड़ी शक्ति है कि अंधेरा छिप जाता है। जहां प्रकाश आया, अंधेरा भागा। अंधेरा ढूंढने लगता है कोई स्थान, छुप जाए, बचा ले।

भक्ति सूत्र 

ओशो 

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