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Friday, September 18, 2015

तुम्हारा जीवन बस जीतता चला जाए तो ठीक। हारे कि बस मरने का मन होता है। जरा सी हार कि बस मौत। तो तुम्हारे जीवन का मतलब क्या है? सिर्फ जीतना और हारना? हम छोटे बच्चों की भांति हैं। हम जरा जरा सी बात में मरने को तैयार हो जाते हैं। जरा जरा सी बात में मारने को तैयार हो जाते हैं।

अहंकार को चोट लग गयी तो फिर जीवन में क्या है! हमने और तो कोई जीवन जाना ही नहीं। असली जीवन तो जाना नहीं। अहंकार का जीवन कोई असली जीवन तो नहीं! तुम्हारे भीतर एक जीवन है जिसकी मृत्यु ही नहीं हो सकती। काश, तुम उसे जान लो तो फिर तुम मरने की सोचोगे भी नहीं। आत्महत्या का विचार इसीलिए आता है कि तुम सोचते हो, मरना हो सकता है। मरना तो हो ही नहीं सकता। कोई कभी मरता तो है ही नहीं, कोई कभी मरा तो है ही नहीं। मृत्यु तो एक झूठी बात है। मृत्यु तो कभी होती नहीं। तुम्हारे भीतर जो है, वह शाश्वत है। वह सदा है, सदा था, सदा रहेगा। लेकिन आत्महत्या की बात उठती है मन में-बाजार में प्रतिष्ठा खराब हो गयी है, दिवाला निकल गया, पत्नी मर गयी, कि बेटा धोखा दे गया, कि कुछ हो गया छोटा मोटा, बस मरने की बात उठती है। मरने की बात उठने का मतलब ही यही हुआ कि तुमने अभी जीवन को जाना ही नहीं। जीवन को जान लेते तो मृत्यु की सोचते कैसे?

मुझसे कोई पूछता है कभी आत्महत्या के लिए, लोग आ जाते हैं। अभी एक चार छह दिन पहले एक महिला ने पूछा कि मुझे तो जीवन में कोई सार नहीं दिखायी पड़ता। उम्र भी उसकी कोई साठ के करीब हुई। चेहरा मोहरा भी ऐसा नहीं है कि अब साठ वर्ष की उम्र में किसी से लगाव बने, कोई संबंध बने। तो पश्चिम में तो बड़ी घबड़ाहट होती है पश्चिम से आयी हुई  है, उसे बड़ी घबड़ाहट हो गयी। पति ने तलाक दे दिया, बच्चे सब बड़े होकर अपनी अपनी दुनिया में चले गए, अब कोई उसकी तरफ देखता भी नहीं, तो वह मरने की सोचती है। दो बार उपाय भी कर चुकी, नींद की दवाएं खा लीं, बमुश्किल बचायी जा सकी।

वह मुझसे पूछने लगी कि मेरे जीवन में सार भी क्या है, मैं मर ही जाऊं! मैंने उससे कहा कि तू कोशिश कर, मर तो सकती नहीं, लेकिन मैं तुझसे एक बात कहूंगा कि पहले जीवन को तो जान ले, फिर मर जाना। अभी तो जीवन जाना भी नहीं है और मरने की तैयारी करने लगी। अगर जीवन को जान ले तो फिर मैं मुझे आज्ञा देता हूं मरने की, तू मर जाना।

वह थोड़ी चौंकी भी। उसने कहा, मैंने यह सोचा नहीं था कि आप आज्ञा देंगे मरने की, आप जरूर समझाएंगे। मैंने कहा, समझाने में क्या रखा है? समझाने से तो तेरी जिद और बढ़ेगी, तुझे और रस आएगा कि मर ही जाएं। और मजा आएगा। निषेध करो तो और निमंत्रण मिलता है। कहो किसी से, मत करो, तो और करने की इच्छा होती है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी अखबार पढ़ रही थी। अखबार पढ़कर उसने कहा कि सुनो, सुनते हो, वैज्ञानिक अणु को तोड़ने में सफल हो गए। मुल्ला ने कहा, इसमें क्या रखा है? अगर पार्सल में अणु को रखकर, ऊपर लिखकर पार्सल भेज दी होती पोस्टआफिस में कि इसे सम्हालकर उठाना कभी का अणु टूट गया होता। बस जिस पार्सल पर लिखा है, सम्हालकर उठाना, उसी को लोग पटकते हैं। कभी का टूट गया होता, इतनी वैज्ञानिकों को चेष्टा करने की कोई जरूरत ही न पड़ती।

जहां तुमने देखा कि मनाही लिखी, है, वहीं मुश्किल हो जाती है।

मैं एक गांव में बहुत वर्षों तक रहा। मेरे सामने ही एक सज्जन रहते थे, उनकी एक बड़ी दीवाल-वह बड़े परेशान रहते थे कि कोई इश्तहार न लगा दे, कोई लिख न दे, कोई आकर पेशाब न कर जाए। मैंने उनसे कहा, तुम एक तरकीब करो  इस पर लिख दो तो यह तुम्हें रोज रोज की फिकर न रहेगी कि यहां इश्तहार लगाना मना है, यहां पेशाब करना मना है। उनको बात जंची, उन्होंने लिख दिया।

पांच सात दिन बाद मेरे पास आए कि आपने भी खूब मुसीबत कर दी! जो लोग पहले चुपचाप निकल जाते थे, वे भी पेशाब करने लगे हैं। वह आपने लिखवाकर तो झंझट कर दी। मैंने कहा, मैं यही तुम्हें बताना चाहता था कहीं लिख भर दो कि यहां पेशाब करना मना है, तो’ जो भी जा रहा है, उसको पहले तो पेशाब करने का खयाल तुमने दे दिया, और यह भी खयाल दे दिया कि यह जगह करने योग्य है, नहीं तो कोई लिखता क्यों! जगह योग्य स्थान है। डर के कारण ही किसी ने लिख रखा है कि यहां करना मत, क्योंकि स्थान तो बिलकुल योग्य है।

जहां जहा निषेध है, वहा वहां निमंत्रण हो जाता।

तो मैंने उस को कहा कि तू मर जाना, कोई फिकर नहीं, फिर मरना ही है तो जल्दी क्या है, थोड़ा ध्यान कर ले, थोड़ा जीवन को जान ले। यही तो जीवन नहीं है कि कोई पति था वह छोड्कर चला गया, कुछ बेटे थे वे छोड्कर चले गए, अब कोई उत्सुक भी नहीं है तुझमें, यही तो जीवन नहीं है, जीवन एक और भी है। एक भीतर का जीवन भी है। थोड़ा उसका स्वाद ले ले, फिर मर जाना। क्योंकि मैं जानता हूं जिसने उसका स्वाद ले लिया, वह तो जान लेता है कि मरना तो हो ही नहीं सकता, असंभव है, मृत्यु तो घटती ही नहीं, जीवन शाश्वत है।

 न जीत में सुख है न हार में, सुख तो भीतर है। जीत भी बाहर है, हार भी बाहर है। जीत भी संबंध है दूसरे से उसकी छाती पर बैठ जाने का संबंध है और हार भी संबंध है दूसरे से। और सुख तो अपने से संबंधित होने में है। दूसरे का ध्यान ही न रह जाए, अपना ही ध्यान रह जाए तो सुख की सरिता बहती है, तो सुख का सागर उमगता है। क्योंकि दोनों में उत्तेजना है हार में और जीत में जहां उत्तेजना है, वहा शांति कहां! व्यक्ति जीतते हुए वैर को उत्पन्न करता है हारा हुआ भी सुख से सो नहीं सकता है।

 

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