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Sunday, September 20, 2015

भगवान! संन्यास लेने के बाद बहुत धन्यभागी हूं। कभी काफी घृणा से भर जाता हूं आपके प्रति-इतना कि गोली मार दूं।

‘आनंद सत्यार्थी!

जहां प्रेम है -साधारण प्रेम-वहां छिपी हुई घृणा भी होती है। उस प्रेम का दूसरा पहलू है घृणा। जहां आदर है-साधारण आदर-वहां एक छिपा हुआ पहलू है अनादर का।

जीवन की प्रत्येक सामान्य भावदशा अपने से विपरीत भावदशा को साथ ही लिए रहती है। तुमने अभी जो प्रेम जाना है, बड़ा साधारण प्रेम है, बड़ा सासारिक प्रेम है। इसलिए घृणा से मुक्ति नहीं हो पायेगी। अभी तुम्हें प्रेम का एक और नया आकाश देखना है, एक और नयी सुबह, एक और नये प्रेम का कमल खिलाना है! वैसा प्रेम ध्यान के बाद ही संभव होगा।

मेरे साथ दो तरह के लोग प्रेम में पड़ते हैं। एक तो वे, जिन्हें मेरी बातें भली लगती हैं, मेरी बातें प्रीतिकर लगती हैं। और कौन जाने मेरी बातें प्रीतिकर गलत कारणों से लगती हों! समझा कोई शराबी यहां आ जाये और और मैं कहता हूं : मुझे सब स्वीकार है, मेरे मन में किसी की निंदा नहीं है। अब इस शराबी की सभी ने निंदा की है। जहां गया वही गाली खायी हैं। जो मिला उसी ने समझाया है। जो मिला उसी ने इसको सलाह दी है कि बंद करो यह शराब पीना। मेरी बात सुनकर, मुझे सब स्वीकार है, शराबी को बड़ा अच्छा लगता है; जैसे किसी ने उसकी पीठ थपथपा दी! उसे मेरे प्रति प्रेम पैदा होता है। यह प्रेम बड़े गलत कारण से हो रहा है। यह प्रेम इसलिए पैदा हो रहा है कि उसके अहंकार को जाने – अनजाने पुष्टि का एक वातावरण मिल रहा है। यह प्रेम मेरी बात को समझकर नहीं हो रहा है। इस बात का वह आदमी अपने ही व्यक्तित्व को मजबूत कर लेने के लिए उपयोग कर रहा है। तो प्रेम हो जायेगा। लेकिन इस प्रेम में पीछे घृणा छिपी रहेगी।

तुम्हारे जीवन में प्रेम की कमी है। न तुम्हें किसी ने प्रेम दिया है, न किसी ने तुमसे प्रेम लिया है। और जब मैं तुम्हें पूरे हृदय से स्वीकार करता हूं तो तुम्हारा दमित प्रेम उभर कर ऊपर आ जाता है। लेकिन यह प्रेम अपने पीछे घृणा को छिपाए हुए है। और ध्यान रखना, जैसे दिन के पीछे रात है और रात के पीछे दिन है, ऐसे ही प्रेम के पीछे घृणा है। तो कई बार प्रेम समाप्त हो जायेगा, तुम एकदम घृणा से भर जाओगे। बेबूझ घृणा से! और तुम्हें समझ में ही नहीं आयेगा कि इतना तुम प्रेम करते हो, फिर यह घृणा क्यों! घृणा इसीलिए है कि वह जो तुम प्रेम करते हो अभी ध्यान से पैदा होता है। ध्यान से जब प्रेम गुजरता है तो सोने में जो कूड़ा- कचरा है वह सब जल जाता है- ध्यान की अग्नि में। और ध्यान की अग्नि से जब गुजरता है प्रेम तो कुंदन हो कर प्रगट होता है। फिर उसमें कोई घृणा नहीं होती। फिर एक समादर है जिसमें कोई अनादर नहीं होता। नहीं तो समादर करने वालों को अनादर करने मैं देर नहीं लगती। वे ही लोग फूलमालायें पहनाते हैं, वे ही लोग गालियां देने लगते हैं। वे ही लोग चरण छूते हैं, वे ही लोग फूलमालायें पहनाते हैं, वे ही लोग गालियां देने लगते हैं। वे ही लोग चरण छूते हैं, वे ही लोग गर्दन काटने को तैयार हो जाते हैं।

ऐसी ही तुम्हारी दशा है, आनंद सत्यार्थी। तुम कहते हो : ‘कभी घृणा से भर जाता हूं इतना कि गोली मार दूं। ‘ स्वभावत:, इसके पीछे एक और कारण है, वह भी समझ लेना चाहिए, वह सबके उपयोग का है। संन्यास से जो भी तुम्हें मिलेगा वह इतना ज्यादा है कि तुम उसका मूल्य न चुका सकोगे। संन्यास से तुम्हें जो भी मिलेगा वह इतना ज्यादा है कि तुम्हारे सब धन्यवाद छोटे पड़ जायेंगे। और तब तुम मुझे क्षमा न कर पाओगे। तुम्हें जरा बेबूझ बात मालूम पड़ेगी। जो व्यक्ति हमें कुछ दे, हम उसके सामने छोटे हो जोते हैं। अगर हम उसे कुछ लौटा सकें प्रत्युत्तर में तो हम फिर समतुल हो जाते हैं। लेकिन अगर ऐसी कोई चीज दी जाये कि उसके उत्तर में हम कुछ भी न लौटा सकें, ऋण को चुकाने का उपाय ही न हो, तो फिर हम ऐसे व्यक्ति को कभी क्षमा नहीं कर पाते, माफ नहीं कर पाते।

हंसा तो मोती चुगे

ओशो 

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