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Thursday, September 24, 2015

सत्य जब टुकड़ों में टूटता है, तो असत्य से भी बदतर हो जाता है।

बुद्ध के जीवन में ऐसी कथा है, जो प्रीतिकर है। बुद्ध की मृत्यु हुई। जब तक जीवित थे, किसी ने फिक्र ही न की थी कि उन्होंने जो कहा है, वह संकलित कर लिया जाये। ऐसे आनंद में थे, ऐसे अहोभाव में थे कि किसको चिंता पड़ी थी। रोज दिये जल रहे थे। रोज दिवाली थी। रोज रंग बिखर रहे थे। रोज फाग थी। किसको फुर्सत थी कि अभी लिखे। लेकिन बुद्ध की मृत्यु के बाद जो पहला सवाल उठा शिष्यों के सामने, वह यही था कि उनके वचनों को संकलित कर लिया जाये।

और तुम चकित होओगे जानकर कि जो लोग संकलित कर सकते थे, वे तो भूल ही भाल चुके थे। मंजुश्री जो पहला बुद्ध था बुद्ध के शिष्यों में, उससे कहा; उसने कहा, ‘मुझे तो कुछ याद नहीं। मुझे तो अपनी याद नहीं! कैसे रस में भीगे वे दिन बीते! कौन शब्दों की फिक्र करता! मुझे पक्का पक्का नहीं कि उन्होंने क्या कहा और मैंने क्या सुना। उन्होंने क्या कहा और मैंने क्या समझा। और जब से मैं जागा, तब से तो बात शब्दों की रही न थी। एक मौन संवाद था। उस मौन संवाद को लिख भी तो कैसे लिखूं! उसके लिए तो कोरा कागज ही काफी है।’

सारिपुत्त से पूछा। सारिपुत्त ने कहा, ‘मुश्किल है बात। जब तक मैं जागा नहीं था, तुमने अगर कहा होता, तो लिख देता। क्योंकि तब तक शब्दों पर ही पकड़ थी। जब मैं जागा, तो निःशब्द में उतर गया। अब तो पक्का नहीं है; मैं लिखूं भी तो यह तय करना मुश्किल होगा कि यह मेरी बात लिख रहा हूं कि बुद्ध की बात लिख रहा हूं। अब तो सब गोलमोल हो गया। अब तो सब तालमेल टूट गया। भेद टूट गये। अब तो मेरी सरिता भी उनके सागर में मिल गयी। तो मेरी बात का तुम भरोसा न करना। बात तो मेरी सच्ची होगी, खरी होगी। मगर मेरी है कि उनकी, यह तय करना नहीं हो सकता। अपनी बात लिख सकता हूं मगर यह दावा मैं नहीं कर सकता कि ऐसा उन्होंने कहा था। जरूर कहा होगा। मगर निश्चयात्मक रूप से मैं कोई दावा नहीं कर सकता।’

मौग्दलायन से पूछा। उसने कंधे बिचका दिये। उसने कहा, ‘कौन इस झंझट में पड़े।’

जितने शिष्य बुद्धत्व को उपलब्ध हो गये थे, वे कोई राजी न थे। सिर्फ आनंद, जो बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुआ था, वह राजी था। उसे सब याद था। उस बेचारे के पास और तो कोई सम्पदा न थी। शब्दों को ही संजोता रहा था, इकट्ठा करता रहा था। जो जो बुद्ध बोलते थे, उसको इकट्ठा करता रहा था। उसके पास कोई प्रज्ञा तो नहीं थी, मगर स्मृति थी। प्रज्ञा हो, तो स्मृति की क्या चिंता! और प्रज्ञा न हो, तो स्मृति ही एकमात्र धन है। 

बड़ी विद्यन, बड़ी विडम्बना खड़ी हो गयी। सारे शिष्य इकट्ठे हुए थे, उन्होंने कहा, ‘यह बड़ी मुश्किल की बात है। जिनकी बात का भरोसा हो सकता है, वे लिखने को राजी नहीं। और जिनकी बात का भरोसा कुछ नहीं, वह लिखने को राजी है! आनंद से लिखवाना है क्या? हालांकि जो भी वह कहेगा, वही कहेगा, जो बुद्ध ने कहा था। लेकिन अज्ञानी ने सुना है जैसे किसी ने नींद में सुना हो।

मैं यहां बोल रहा हूं। तुम में से कई यहां सोये होंगे। वे भी सुन रहे होंगे, मगर नींद में सुन रहे होंगे। कुछ सुना जायेगा, कुछ नहीं सुना जायेगा। कुछ का कुछ सुना जायेगा! स्वाभाविक है। फिर अगर तुमसे कहा जाये लिखो; तो तुम जो लिखोगे, उसकी क्या प्रामाणिकता होगी।

आनंद ने कहा, ‘मैं लिख तो सकता हूं लेकिन प्रामाणिकता का दावा मैं नहीं कर सकता।’

अब तुम देखते हो विडम्बना जो प्रामाणिक हो सकते है, वे लिखने को राजी नहीं थे। जो लिखने को राजी था, उसने कहा, ‘मैं प्रामाणिक नहीं हो सकता!’ 

तो फिर बुद्ध के शिष्यों ने एक उपाय ही खोजा, उन्होंने आनंद से कहा, ‘तू एक काम कर। तू किसी तरह सारा श्रम लगाकर बुद्धत्व को उपलब्ध हो जा। क्योंकि हम तेरी बातों का तब तक भरोसा न करेंगे, जब तक तू बुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाये। और तुझे सब बातें याद हैं। और तू सबसे ज्यादा बुद्ध के साथ रहा है—बयालीस साल सतत्। एक क्षण को भी बुद्ध को तूने नहीं छोड़ा। इतना साथ कोई उनके रहा नहीं। दिन भी तू साथ रहा है; रात भी तू साथ रहा है।’. रात भी उसी कमरे में सोता था, जिसमें बुद्ध सोते थे। उनकी सेवा में ही सब कुछ समर्पित कर दिया था उसने।…… ‘तो हमें भरोसा है। मगर तेरे भीतर जागरण तो हो!’

और जब आनंद जाग्रत हुआ, तब उन्होंने उसके वचनों को स्वीकार किया लेकिन झगड़ा तत्‍क्षण शुरू हो गया। आनंद ने तो वचन लिख दिये, लेकिन छत्तीस सम्प्रदाय पैदा हो गये। क्योंकि बुद्धों के अलग—अलग लोगों ने कहा कि ‘ये आनंद के शब्द हम स्वीकार नहीं कर सकते।’ किसी ने कहा, ‘हम यह स्वीकार नहीं कर सकते।’ किसी ने कहा, ‘यह हमें यह स्वीकार है, मगर और बातें स्वीकार नहीं।’

अज्ञानियों के छत्तीस खंड हो गये! 

ज्ञानी तो चुप रहे, अज्ञानियों ने सम्प्रदाय बना लिए। 

बुद्ध को मरे दिन भी न हुए थे कि महाज्योति टुकडों टुकड़ों में टूट गयी। और सत्य जब टुकड़ों में टूटता है, तो असत्य से भी बदतर हो जाता है।

माण्डूक्य उपनिषद 

ओशो 

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