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Tuesday, September 22, 2015

भगवान, मैंने कल एक अजीबसा सपना देखा : मैं किसी सभा में बोलने गया था संन्यास विषय पर। आप भी मेरे सामने ही उपस्थित थे। पहले तो मुझे भय लगा कि आपके सामने मैं कैसे बोलूं, लेकिन जैसे ही मैंने जाना कि मुझे तो अनुभव की बातें कहनी हैं, सारा भय चला गया और मैं बिना संकोच बोलने लगा। आप भी सिर हिलाते रहे, इससे धैर्य बैठा। लेकिन बीच में अचानक देखा कि आप सभा में नहीं हैं, तत्क्षण मेरी वाणी बंद हो गई। मैंने सभा त्याग दी और आपको ढूंढने निकला। आप दूर एक बगीचे में मिले। पूछा कि क्या हुआ। मैंने कहा कि आपके जाते ही वाणी बंद हो गई। आप मेरे साथ सभा—स्थल पर वापस आए, मंच पर चढ़े और बोलने लगे। लेकिन तब मुझे महसूस हुआ कि मैं वहां नहीं हूं। मैं सुनता था लेकिन यह भी जानता था कि वहां नहीं हूं। एक अपूर्व आनंद लेकिन साथ ही साथ एक अजीब सा भय! और इसी में नींद खुल गई। क्या इसमें मेरे लिए कोई उपदेश है?

अजित, संकेत तो बिल्कुल स्पष्ट है। मेरे प्रत्येक संन्यासी को मेरे लिए बोलना है। मेरे प्रत्येक संन्यासी को मेरी आवाज बनना है। तुम्हारे कंठ मुझे दे दो। तुम्हारे हाथ भी मुझे दे दो। क्योंकि जो मैं कहना चाहता हूं वह हजारों कंठों से कहा जाए तो ही पहुंच सकेगा। और जो मैं करना चाहता हूं वह हजार—हजार हाथ करें तो ही हो सकेगा। तुम्हारे हाथ ही मेरे हाथ होने चाहिए। और तुम्हारे कंठ मेरे कंठ होने चाहिए।

लेकिन इसके लिए जरूरी है कि तुम बीच से हट जाओ। अगर तुम रहे तो मैं नहीं रह सकता। अगर मैं रहूं तो तुम्हें हट जाना होगा। और मजा यही है कि तुम हटकर ही पाओगे कि तुम पहली बार हुए। तुम बीच में बाधा मत बनना।

संकेत बहुत स्पष्ट हैं। सपना प्यारा है। ऐसा सपना संन्यासी ही देख सकता है। संसारी का तो सत्य भी दो कौड़ी का होता है। संन्यासी के सपने भी मूल्यवान होने लगते हैं। संन्यासी के सपने में भी अर्थ प्रकट होने लगते हैं; स्वप्न भी स्वप्न नहीं रह जाता। जैसे जैसे ध्यान की गहराई बढ़ती है वैसे वैसे स्वप्न भी तुम्हारे अंतरतम से आनेवाले संदेशों का एक स्रोत मात्र, एक वाहन मात्र हो जाता है।

सुंदर सपना है। और अनुभव से ही बोलना है इसलिए भय लेने की कोई जरूरत नहीं है। जहां अनुभव है वहां भय नहीं है। उतना ही कहना जितना तुम्हें अनुभव हुआ है। उससे ज्यादा कहोगे तो भय लगेगा। और लगना ही चाहिए भय। उससे ज्यादा जो बोलता है वही पंडित हो जाता है।
 
और तुम अगर उतना ही कहोगे जितना अनुभव है तो मैं जरूर सिर हिलाऊंगा, मैं जरूर हामी भरूंगा। मैं हटूंगा उसी वक्त, मेरी हामी उसी वक्त बंद हो जाएगी जहां तुम अनुभव से कुछ ज्यादा कह दोगे।

अजित, सपने की तुम्हें याद नहीं रही है, तुमने जरूर कुछ अनुभव से ज्यादा बात कह दी होगी। जोश में आदमी कह जाता है। जोश के अपने मार्ग हैं। तुम्हें याद भी नहीं होता। तुम कहना भी नहीं चाहते थे। लेकिन जब कोई कहने बैठता है और जोश में आ जाता है तो बात बढ़ जाती है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक संन्यासी की प्रशंसा कर रहा था। प्रशंसा में जो बातें कहनी चाहिए, कह रहा था कि आप परम ब्रह्मचारी हैं। आप जैसा कोई ब्रह्मचारी नहीं। और संन्यासी भी मस्त हो रहा था। पुराने ढब का संन्यासी था, मेरा संन्यासी नहीं था। वह बड़ा प्रसन्न हो रहा था कि आप बालब्रह्मचारी हैं। और भी प्रसन्न हो रहा था। उसकी प्रसन्नता देखकर मुल्ला को भी जोश चढ़ गया। जोश इतना चढ़ गया कि उसने कहा कि आप ही नहीं, आपके बाप भी बालब्रह्मचारी थे। अब जरा बात ज्यादा हो गई। मगर अक्सर ऐसा हो जाता है।

तुम जब कुछ कहने चलते हो तो हर शब्द की अपनी प्रक्रिया है। तुमने एक शब्द कहा, वह शब्द तुम्हारे भीतर दूसरे शब्द की श्रृंखला को पैदा करवा देता है। एक श्रृंखला पैदा हो जाती है। फिर तुम्हें पता ही नहीं रहता कहां अनुभव पूरा हो गया! कितने पर अनुभव पूरा हो गया! भाषा का जोश, शब्दों की पकड़, शब्दों का काव्य तुम्हें खींचे लिए जाता है।

लोग अतिशयोक्ति जानकर नहीं करते, हो जाती है। होश नहीं है इसलिए हो जाती है। तो जरूर अजित, कहीं अतिशयोक्ति हो गई होगी इसीलिए तुमने मुझे पाया कि मैं सपने से नदारद हो गया हूं।

और सपना बड़ा प्यारा है। तुम्हारी वाणी बंद हो गई। ऐसा ही होना चाहिए। जिस घड़ी मैं तुम्हारे भीतर न बोलूं उस घड़ी तुम्हारी वाणी बंद हो जानी चाहिए। जब तक मैं बोलूं तब तक ठीक, जब तुम बोलने लगो तो वाणी बंद हो जानी चाहिए, ठिठक जाना चाहिए। अच्छा हुआ कि तुमने बोलना बंद कर दिया और तुम मेरी तलाश में निकल गए।

और दूसरा अनुभव भी प्यारा है कि फिर तुम सुनने बैठे, मैंने बोलना शुरू किया और तब तुम्हें महसूस हुआ कि मैं वहां नहीं हूं। हूं भी और नहीं भी, ऐसी तुम्हें प्रतीति हुई।

यह प्रतीति प्यारी है। यह प्रतीति तुम्हें रोज हो रही है, जागते भी यही हो रही है। सुनते समय तुम होते भी हो, नहीं भी होते हो; नहीं भी होते हो, होते भी हो। एक विरोधाभास घटता है। एक रहस्यपूर्ण दशा पैदा हो जाती है। वही सत्संगी की दशा है। अहंकार तो चला जाता है इसलिए अब यह नहीं कह सकते कि मैं हूं। लेकिन अहंकार के जाते ही तुम्हारा होना प्रगाढ़ हो जाता है इसीलिए यह भी नहीं कह सकते कि मैं नहीं हूं।

इसलिए एक विरोधाभासी स्थिति पैदा हो जाती है। एक तरफ मिट जाते हो, दूसरी तरफ हो जाते हो। बूंद गिरी सागर में, बूंद की तरह मिट गई, सागर की तरह प्रकट हो गई। क्षुद्र चला जाता है, विराट आ जाता है।
इसलिए अपूर्व आनंद हुआ। यही अनुभूति तो आनंद की अनुभूति है। जहां शून्य पैदा होता है अहंकार की दृष्टि से और जहां पूर्ण का आगमन होता है। वही तो आनंद की दृष्टि है। वही तो आनंद की अवस्था है जहां तुम्हारे भीतर का शून्य परमात्मा के पूर्ण से मिलता है, आलिंगनबद्ध होता है। शून्य और पूर्ण का संभोग ही तो आनंद है।

“अपूर्व आनंद हुआ’, स्वप्न में भी हो जाएगा। “लेकिन साथ ही साथ अजीबसा भय भी हुआ’: भय भी होगा क्योंकि वह महामृत्यु भी है। महाजीवन भी, महामृत्यु भी। अब डर लगेगा कि मैं लौट भी सकूंगा या नहीं? अब डर लगेगा कि मैं बच भी सकूंगा? आनंद इतना ज्यादा होगा कि मुझे ले जाएगा अपने बाढ़ में। किनारा छूट जाएगा। जाना,परिचित, पहचाना, सब छूट जाएगा।

इसलिए समाधि के कगार पर जाकर बड़ा भय पकड़ता है। बड़े आनंद की पुलक आती है और बड़ा भय भी पकड़ता है। दोनों एक साथ हो जाते हैं। भय इसलिए कि अतीत छूट रहा है, आनंद इसलिए कि भविष्य आ रहा है।

“और इसी में नींद खुल गई।’ इसी में तो नींद खुलनी ही है। ऐसे ही पशोपेश में पड़े पड़े, आनंद और भय के बीच डोलते डोलते असली नींद भी टूट जाएगी। यह नींद तो टूटी ही। सपने में जो नींद थी शरीर की, वह टूटी। ऐसे ही बैठते बैठते, उठते उठते, सुनते सुनते, मिटते बनते, आनंद अनुभव करते, भय से कंपते एक दिन आध्यात्मिक नींद भी टूट जाएगी। यह मूर्च्छा, जिसे तुमने अब तक जागृति समझा है यह भी टूट जाएगी।

और जिस दिन यह मूर्च्छा टूट जाती है उस दिन प्रबुद्धता का दीया जलता है। उसी दिन आ गए अपने घर वापस, अपने मूलस्रोत को पाया। उसे मोक्ष कहो, कैवल्य कहो, निर्वाण कहो।

 नाम सुमिर  मन बाँवरे 

ओशो 
   

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