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Monday, September 7, 2015

मिर्जा गालिब

               भारत का अंतिम सम्राट बहादुर शाह कवि भी था। उसका कवि नाम था ‘जफर’ बहादुर शाह जफर। मिर्जा गालिब से वह अपनी कविताओं में संशोधन करवाता था। गालिब उसके गुरु थे। और भी उसके गुरु थे। उर्दू शायरी में यह परंपरा है कि तुम क्या लिखोगे अपने आप! इतना लिखा जा चुका है! ऐसे ऐसे बारीक और नाजुक खयाल बांधे जा चुके हैं कि किसी गुरु के पास बैठकर पहले समझो। और जरा से शब्दों के तालमेल से बहुत फर्क पड़ जाता है। तो वह सीख लिया करता था। उसने एक दिन मिर्जा गालिब को पूछा कि ‘ आप कितने गीत रोज लिख लेते हैं?’

        मिर्जा गालिब ने कहा, ‘कितने गीत रोज! यह कोई मात्रा की बात है! अरे कभी तो महीनों बीत जाते हैं और एक गीत नहीं उतरता। और कभी बरसा भी हो जाती है। यह अपने हाथ में नहीं। यह तो किन्हीं क्षणों में झरोखा खुलता है। किसी अलौकिक जगत से किरण उतर आती है, तो उतर आती है। बंध जाती है, तो बंध जाती है। छूट जाती है छूट जाती है। चूक जाती है चूक जाती है! कभी तो आधा ही गीत बन पाता है, फिर आधा कभी पूरा नहीं होता अपने हाथ में नहीं। प्रतीक्षा करनी होती है।’

जफर ने कहा, ‘अरे मैं तो जितने चाहूं उतने गीत लिख लूं। पाखाने में बैठे  बैठे मुझे गीत उतर आते हैं!’

गालिब तो हिम्मत के आदमी थे। गालिब ने कहा कि ‘महाराज, इसलिए आपके गीतों में से पाखाने की बदबू आती है!’

      हिम्मतवर लोग थे। कोई अब बहादुर शाह सम्राट थे, इसलिए कोई गालिब छोड़ देंगे उनको, ऐसा नहीं था। कहा कि ‘ अब मैं समझा। अब मैं समझा राज! कभी  कभी मुझे भी बदबू आती थी आपके गीतों में. कि मामला क्या लिखते हो आप! कूड़ा कर्कट! अब जो पाखाने में बैठकर लिखोगे, तो फिर ठीक ही है! कृपा करके ऐसा न करो।’

     जफर को चोट भी लगी, और समझ में भी बात आयी। और इसके बाद ही जो जफर ने जो गीत लिखे  थोड़े से लिखे, मगर गजब के लिखे। वे फिर जैसे जफर ने नहीं लिखे, रस ही बहा।

      रस का यह पहलू समझो। तुम्हारी इंद्रियां ज्यादा संवेदनशील होनी चाहिए। उनकी संवेदनशीलता पराकाष्ठा पर पहुंचनी चाहिए। आंख उतना देखे, जितना देख सकती है। रूप की तहों में उतर जाये; रूप की गहराईयों को छू ले। कान उतना सुने जितना सुन सकता है। संगीत की परतों और परतों में उतरता जाये; संगीत की तलहटी को खोज ले, ऐसी डुबकी मारे, क्योंकि मोती ऊपर नहीं फिरते तिरते; गहरे में पड़े होते हैं।’जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ।’

       और मैं तुम्हारे महात्माओं को मैं देखता हूं सब किनारे बैठे हैं! डर के मारे बैठे हैं कि कहीं डूब न जायें! धार गहरी न हो; कहीं बह न जायें  भयभीत, सिकुड़े हुए! किनारे पर, पकड़े बैठे हुए हैं अपने को। अपनी सारी इंद्रियों को तोड़ रहे हैं। क्योंकि भयभीत हैं कि कहीं इस इंद्रिय के जाल में न फंस जायें, उस इंद्रिय के जाल में न फंस जायें! इंद्रियों का जाल नहीं है। इंद्रियां तो तुम्हारी रस को ग्रहण करने की संभावनाएं हैं।

        परमात्मा तो सब रूपों में छाया हुआ है। आंख अगर गहराई से देखेगी, तो हर रंग में उसका रंग है। कान अगर गहराई से सुनेंगे तो हर ध्वनि में उसकी ध्वनि है, उसका नाद है, ओंकार है ’इक ओंकार सतनाम!’ वह जगह जगह सुनाई पड़ेगा। मगर बहुत गहरे सुनने की कला आनी चाहिए।

 जो बोले तो हरिकथा

ओशो 

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