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Saturday, April 9, 2016

साक्षीभाव और तल्लीनता

जैसे जैसे तुम साक्षी बनोगे, तुम चकित हो जाओगे जब साक्षी बनना शुरू हुए थे तो ऐसा लगता था, मैं साक्षी हूं! और जैसे जैसे साक्षी घना होगा वैसे वैसे लगेगा, मैं तो पिघलने लगा, बहने लगा, उड़ने लगा, वाष्पीभूत होने लगा! जब साक्षीभाव पूरा होगा, तुम अचानक पाओगे साक्षी तो है, मैं कोई भी नहीं। भीतर बोध तो है, लेकिन मैं का कोई भाव नहीं। इसलिए तल्लीनता आ जाएगी। जब मैं ही न
बचा तो अब अतल्लीन कैसे रहोगे? जब मैं ही न बचा तो अब बिना डूबे कैसे बचोगे? मैं ही तो था जो रोक रहा था, जो दीवाल बना था। दीवाल ही गिर गई तो आकाश मिल गया। आंगन टूट गया, दीवाल गिर गई, आंगन आकाश हो गया। यही तल्लीनता है!
और अगर तल्लीनता से शुरू करोगे तो पहले ऐसा लगेगा, मैं तल्लीन हो रहा हूं। अहा, कैसी तल्लीनता में उतर रहा हूं मैं! शुरू शुरू में लगेगा मैं तल्लीन हो रहा हूं लेकिन जब तक मैं है, क्या खाक तल्लीन हो रहे हो! भुला रहे हो अपने को, समझा रहे हो अपने को। लेकिन मैं लौट लौट आएगा। धीरे  धीरे जैसे तल्लीनता बढ़ेगी, मैं पिघलेगा। फिर तल्लीनता रह जाएगी। डूबे तो रहोगे, लेकिन कोई बचेगा नहीं जो डूबा है। मैं  भाव गया। और जहां मैं भाव गया वहां साक्षी पैदा हो जाता है, साक्षी बच नहीं सकता।
इसलिए जगदीश दवे, दो में से कोई एक चुन कर चल पड़ो। और खयाल रखो, यह प्रश्न बौद्धिक नहीं है, यह प्रश्न अस्तित्वगत है। अनुभव से ही राज खुलेगा, अनुभव से ही खुलता रहा है। कितना ही कहो, कितना ही समझाओ, कहने और समझाने की बातें नहीं हैं। दो में से कोई एक चुन लो, जो प्रीतिकर लगे। अपने को पहचानो थोड़ा; अपने लगाव, अपने रुझान परखों थोड़ा। और जो प्रीतिकर लगे…। अगर तुम्हें साक्षीभाव में मजा आता हो तो ठीक, अगर तुम्हें तल्लीनता में मजा आता हो तो ठीक। साक्षीभाव है बुद्ध, महावीर, लाओत्सु का मार्ग, झेन का मार्ग, ध्यान का मार्ग।
मन ही पूजा मन ही धुप 
ओशो 

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