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Thursday, April 14, 2016

कीर्तन

कीर्तन का बड़ा उपयोग किया जा सकता है। समझ लिया जाए तो कीर्तन का बड़ा अदभुत उपयोग है। लेकिन अब समझना बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि जब मैं कीर्तन कहूंगा, तब आप वही कीर्तन समझेंगे जो आप समझ रहे हैं। तब आप कहेंगे कि बिलकुल ठीक कहते हैं आप, हम तो कर ही रहे हैं कीर्तन। हम तो राम-राम कर ही रहे हैं, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। जब आपका मन कहता है, बिलकुल ठीक कह रहे हैं, तो मुझे ऐसा लगता है कि कहीं मैंने कुछ कहकर भूल तो नहीं की। क्योंकि आपको मैं ठीक नहीं कहना चाहूंगा। क्योंकि आप अगर ठीक होते तब तो कोई बात ही न थी। यह तो राम-राम आप कह ही रहे हैं।

 मैं आपके राम-राम का समर्थन नहीं कर रहा हूं। और आप तो कीर्तन करते ही रहे हैं। मैं आपके कीर्तन का समर्थन नहीं कर रहा हूं। क्योंकि अगर आप कीर्तन से पहुंच सकते होते तो पहुंच ही गए होते। वह आप नहीं पहुंचे। मैं तो कीर्तन का जो मूल है, उसकी बात कह रहा हूं, आपके कीर्तन की बात नहीं कर रहा हूं। मूर्ति का जो मूल है, उसकी बात कर रहा हूं, आपके घरों में रखी हुई मूर्तियों की चर्चा नहीं कर रहा हूं। उनको तो मैं निकालूंगा और फिंकवा दूंगा। उनको तो नहीं रखा जा सकता है।


लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन सब सूत्रों के पीछे कुछ भी नहीं था। उन सब सूत्रों के पीछे बहुत कुछ था। सच तो यह है कि हम सिर्फ उसी सूत्र के नाम पर हजारों साल तक गलत सूत्रों को खींच सकते हैं जिसमें कुछ हो रहा हो। नहीं तो खींच भी नहीं सकते। अगर हम किसी चीज को हजारों साल तक खींचते हैं बिना कुछ पाए, तो उसका मतलब इतना ही है कि मनुष्य की चेतना में कहीं वह अदभुत छिपा है कि उससे पाया गया था। नहीं तो हम उसे खींच नहीं सकते। 

कचरे को भी अगर कोई आदमी बहुत दिन तक खींचता है, तो इसलिए खींचता है कि उस कचरे में भी कभी हीरे के दर्शन हुए हैं, किसी अतीत क्षण में। नहीं तो उस कचरे को कोई खींचेगा कैसे! अगर गलत चीजें भी चलती हैं, तो इसलिए चल पाती हैं कि उन गलत के पीछे कभी कोई सत्य था जो खो गया है। अन्यथा गलत को खींचा नहीं जा सकता है।

कृष्ण स्मृति 

ओशो 

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