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Tuesday, April 19, 2016

मंदिर में प्रवेश

बच्चे जैसे सरल हो जाओ, तो तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाएगी; मैं जो कह रहा हूं। बस, प्रेम है। जैसे वृक्ष हरे हैं; अकारण।


इस जगत में कारण नहीं है। कारण की खोज बडी क्षुद्र है। इस जगत में कारण है ही नहीं। यह जगत इसी लिए तो लीला कहा गया है। खेल है; कारण नहीं है। तुम एक मकान बना रहे हो; उसमें कारण होता है कि रहोगे। और एक छोटा बच्चा ताश के पत्तों को जमाकर मकान बना रहा है; इसमें क्या कारण है? तुम बाजार जा रहे हो। इसमें कारण है। दुकान जाना है। धंधा करना है। पैसा कमाना है।


रोटी रोजी चाहिए। छप्पर चाहिए। और एक बच्चा कमरे में चक्कर लगा रहा है। इसमें क्या कारण है?


एक आदमी सुबह घूमने निकला है। कहीं जा नहीं रहा है। इसमें कोई कारण नहीं है। कहीं से लौट आए। कहीं बैठ जाए। न जाए, तो कोई बात नहीं है।
 
यह जगत अकारण है। यहां इतना सब कुछ हो रहा है, लेकिन इस होने के पीछे कोई हेतु, कोई व्यवसाय नहीं है। जिसने ऐसा जाना, वह मुक्त हो गया। जिसने ऐसा पहचाना, उसके सारे बंधन गिर गए। क्योंकि फिर क्या बंधन रहे! फिर क्या चिंता रही! चिंता तभी तक हो सकती है, जब हम कुछ करने को उतारू हैं। अगर यह जगत अपने से हो ही रहा है, तो चिंता कहां रही?
 
तुम्हें चिंता पकड सकती है, अगर तुम सोचो कि मेरे शरीर के भीतर खून बह रहा है, कहीं रुक जाए रात सोते में! न बहे। फिर क्या करूंगा? हृदय धड़क रहा है और हम तो सो गए-और न धड़के। फिर मैं क्या करूंगा? श्वास तो चल रही है; रुक जाए; फिर मैं क्या करूंगा? तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तो चिंता पैदा हो जाएगी।

जब तक श्वास चल रही है, चल रही है। जब नहीं चल रही है, तब नहीं चल रही है। न चलने में कोई कारण है; न न चलने में कोई कारण है। लीला है। खेल है।

 इस तरह जीवन को देखो, तो तुम चिंताओं के बाहर होने लगो। और जो चिंताओं के बाहर हुआ, वही मंदिर में प्रविष्ट होता है।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

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