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Friday, June 3, 2016

एक मित्र ने और पूछा है कि ओशो कृष्ण ने तो इतना बड़ा युद्ध किया तो क्या वे प्रेमपूर्ण नहीं थे?


कृष्ण जैसा प्रेम करने वाला आदमी पृथ्वी पर मुश्किल से हुआ है। कृष्ण जैसा प्यारा आदमी मुश्किल से पृथ्वी पर हुआ है। करोड़ों वर्ष लग जाते हैं तब पृथ्वी उस तरह के एकाध आदमी को पैदा करने में सफल हो पाती है। लेकिन वह लड़ाई न क्रोध की थी, न घृणा की थी। वह लड़ाई सत्य की और सत्य के लिए थी। और अत्यंत प्रेम और अत्यंत शांति से लड़ी गई थी। दिन भर लड़ते थे युद्ध के मैदान में और सांझ को एक दूसरे के शिविर में जाकर गपशप भी चलती थी। दिन भर लड़ते थे युद्ध के मैदान में और सांझ को एक दूसरे के खेमे में बैठ कर बातचीत भी चलती थी। जिस भीष्म से लड़ाई चली, युद्ध समाप्त हो जाने पर भीष्म पड़े हैं मरणशय्या पर। उससे ही पहुंच गए हैं जो लड़े थे वे ही उपदेश लेने कि धर्म के संबंध में हमें कुछ उपदेश दे दें!

अदभुत लोग थे। बड़े गजब के लोग रहे होंगे। जिससे चला है युद्ध, जिससे जी जान से लड़े हैं उससे भी अंतिम क्षणों में उसके चरणों में बैठ कर पूछने गए हैं कि हमें धर्म का अंतिम उपदेश दे दें!

नहीं, वह लड़ाई घृणा की लड़ाई नहीं थी।

जब तक दुनिया में बुराई है, जब तक दुनिया में पाप है, जब तक दुनिया में असत्य और अधर्म है; तब तक जो शांत हैं, जो प्रेमपूर्ण हैं उन्हें भी लड़ना पड़ेगा। लड़ना उनकी इच्छा नहीं है, हमेशा उनकी मजबूरी है। लेकिन उस लड़ाई में भी प्रेम को और करुणा को खो देने का कोई कारण नहीं है।

एक मेरे मित्र जापान से लौटे। वे वहां से एक मूर्ति खरीद लाए। वह मूर्ति उनकी समझ के बाहर उन्हें मालूम पड़ी। पर बहुत प्यारी लगी तो वे उस मूर्ति को ले आए। मेरे पास वे मूर्ति लाए और कहने लगे, मैं इसका अर्थ नहीं समझा हूं। यह बड़ी अजीब मूर्ति मालूम पड़ती है। मूर्ति सच में ही अजीब थी। मैं भी देख कर चौंका। और मैं देख कर खुशी और आनंद से भी भर गया। मूर्ति अदभुत थी।

वह मूर्ति थी एक सिपाही की मूर्ति, लेकिन साथ ही वह एक संत की मूर्ति भी थी। उस मूर्ति के एक हाथ में थी तलवार नंगी और उस तलवार की चमक उस मूर्ति के आधे चेहरे पर पड़ रही थी, और वह आधा चेहरा ऐसा मालूम पड़ता था जैसे अर्जुन का चेहरा रहा हो। जैसे तलवार की चमक थी वैसा ही वह आधा चेहरा जिस पर तलवार चमक रही थी, वह आधा चेहरा भी उतना ही चमक से भरा हुआ था। उतने ही शौर्य से, उतने ही ओज से, उतने ही वीर्य से। और दूसरे हाथ में उस मूर्ति के एक दीया था। और दीये की ज्योति की चमक चेहरे के दूसरे हिस्से पर पड़ती थी। और वह दूसरा हिस्सा बिलकुल ही दूसरा था। वह चेहरा ऐसा मालूम पड़ता था जैसे बुद्ध का रहा हो इतना शांत, इतना मौन, इतना करुणा से भरा हुआ। और वह एक ही आदमी का चेहरा था। और एक हाथ में तलवार और एक हाथ में दीया।

वे मेरे मित्र पूछने लगे, मैं समझा नहीं, यह कैसा आदमी है?

मैंने कहा इसी आदमी की तलाश में दुनिया है हमेशा से। एक ऐसा आदमी चाहिए जो तलवार की तरह अडिग भी हो, जो तलवार की तरह ओज से भी भरा हो, समय पड़ने पर जो तलवार बन जाए। लेकिन उस आदमी के भीतर शांति का और करुणा का दीया भी हो। जिस आदमी के भीतर करुणा का और शांति का और प्रेम का दीया है, उसके हाथ में तलवार खतरनाक नहीं है। उसके हाथ में तलवार भी मंगल सिद्ध होगी। और जिस आदमी के भीतर क्रोध और घृणा का अंधकार है, उसके हाथ में तलवार भी न हो, एक छोटा सा कंकड़ भी खतरनाक सिद्ध होने वाला है। आदमी भीतर कैसा है? अगर अशांत है तो उसके हाथ की शक्ति शैतान बन जाएगी और अगर भीतर आदमी शांत है तो उसके हाथ की शक्ति सदा से भगवान के चरणों में समर्पित रही है।
नहीं, उससे घबड़ाने की जरूरत नहीं है कि आप शांत हो जाएंगे तो आप निर्वीय नहीं हो जाएंगे। शांत होने से वीर्य और ओजस्व बढ़ता है, कम नहीं होता। लेकिन एक फर्क पड़ जाता है। शांत आदमी का सारा ओज, सारी शक्ति सत्य के पक्ष में खड़ी होती है, असत्य के पक्ष में नहीं। शांत आदमी का सारा व्यक्तित्व धर्म के लिए समर्पित होता है, अधर्म के लिए नहीं। शांत आदमी का जो कुछ है, वह सब परमात्मा के लिए समर्पित है। वह युद्ध में भी जा सकता है तो भी वह प्रार्थनापूर्ण हृदय से ही जाएगा, और अशात आदमी मंदिर में भी जाता है तो प्रार्थनापूर्ण हृदय से नहीं। यह फर्क समझ लेना जरूरी है।

शांत आदमी युद्ध के मैदान पर भी प्रेयरफुल होगा, वह प्रार्थना से भरा होगा। वह जिनसे युद्ध में खड़ा होना पड़ा है, उसे मजबूरी में एक नेसेसरी ईविल की तरह, एक आवश्यक बुराई की तरह। वह उनके प्रति भी परमात्मा से, प्रार्थना से ही भरा हुआ होगा। वह उनकी सदबुद्धि और मंगल के लिए भी प्रार्थना करता होगा। उसके हाथ में तलवार होगी लेकिन हृदय में प्रार्थना होगी। और अशांत आदमी मंदिर में माला लेकर बैठा है तो भी उसके मन में सबके मंगल की कोई कामना नहीं है। वह माला लिए बैठा है लेकिन उसके भीतर उसके भीतर जो चल रहा है, उसमें प्रार्थना जैसा कुछ भी नहीं है, प्रेम जैसा कुछ भी नहीं है।


प्रभु की पगडंडियां 

ओशो 


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