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Monday, June 13, 2016

सत्य की कोई सीमा रेखा नहीं

बुद्ध पुरुष जब बोलते हैं तो तुम्हें मिटाने और तुम्हें नया जन्म देने को। वे तुम्हारी कब्र भी खोदते हैं और तुम्हारे लिए गर्भ का निर्माण भी करते हैं। उनके शब्द खतरनाक भी हैं, वे तुम्हें मारेंगे। और उनके शब्द अमृत जैसे भी हैं, क्योंकि वे तुम्हें पुन: जिलाएंगे। उनके शब्द में सूली भी है और पुनर्जीवन भी। अगर तुमने सुना तो उनका एक शब्द भी तुम्हें उपशांत कर जाएगा।


तो अगर तुम किसी तार्किक की बात सुनने जाओ तो तुम और उद्विग्न होकर लौटोगे; तुम और परेशान होकर लौटोगे। तुम वैसे ही परेशान थे, वह तुम्हें और परेशान कर जाएगा। यह भी हो सकता है, तुम उससे राजी भी हो जाओ, लेकिन तब भी तुम शांत न हो सकोगे। उससे राजी होने में भी बेचैनी होगी, परेशानी होगी, कांटे चुभते रहेंगे, जैसे कहीं कुछ गलत हुआ है। साफ भी नहीं होता कि क्या गलत हुआ है, लेकिन कहीं कुछ गलत हुआ है। क्योंकि शांति तो हृदय की बात है, मस्तिष्क की नहीं। उसने तो तुम्हारे मस्तिष्क को सहलाया। उसने तो तुम्हारे मस्तिष्क को भुलाया। उसने तो तुम्हारे मस्तिष्क में कुछ और विचार, कुछ और शब्द डाले। तुम वैसे ही बोझिल थे, तुम और थोड़े बोझ से भर गए।


लेकिन जब तुम किसी बुद्ध पुरुष का वचन सुनकर लौटते हो तो हो सकता है, राम उससे राजी भी न होओ, लेकिन बेचैन न हो सकोगे। हो सकता है, तुम उसके पीछे चलने की तैयारी भी न दिखाओ, तब भी तुम पाओगे, जैसे कोई स्नान हो गया। जैसे धूल से भरे, यात्रा के थके, तुम किसी झरने में डुबकी लगा आए। पसीने से तरबतर थे, एक मेघ आया और बरस गया, सब शीतल हो गया। लेकिन सुनने की कला चाहिए।


तार्किक को सुनने के लिए कोई कला की जरूरत नहीं, क्योंकि उसके लिए तो समाज ही तुम्हें तैयार कर देता है। तर्क की भाषा के लिए तुम पूरी तरह निष्णात हो। सत्य की भाषा के लिए तुम्हारी कोई तैयारी नहीं है। सत्य की भाषा अनिवार्य रूप से विरोधाभासी होगी।


उपनिषद कहते हैं, परमात्मा पास से भी पास, दूर से भी दूर। अगर इतना कहें, पास से भी पास, ठीक; अगर इतना ही कहें, दूर से भी दूर, तो भी ठीक; लेकिन एक ही वक्तव्य में विरोध है; पास से भी पास और दूर से भी दूर। तर्क के बाहर हो गई बात।


बुद्ध से पूछो, तुम जो भी पूछोगे बुद्ध से, सभी उत्तर विरोधाभासी आएंगे। सत्य का स्वभाव विरोधाभासी है। क्यों? क्योंकि सत्य इतना विराट है कि सभी विरोध उसमें समाए हैं। तर्क बड़ा छोटा है; उसकी साफ सुथरी सीमा रेखा है। सत्य की कोई सीमा रेखा नहीं। सत्य सागर है, तर्क छोटे छोटे पोखर हैं, डबरे हैं; उनकी सीमा रेखा है। छोटी सी बुद्धि में सीमा रेखा की बातें समा जाती हैं, समझ में आ जाती हैं। तुम से बड़ी बात है सत्य की; तुम उसे छू लो तो काफी; तुम उसे मुट्ठी में न बांध पाओगे।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 


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