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Friday, June 24, 2016

हम वैसे दिखायी पड़ रहे हैं, जैसे हम नहीं हैं!

मैंने सुना है, एक किसान ने एक खेत में एक झूठा आदमी बनाकर खड़ा कर दिया था। किसान खेतों में झूठा आदमी बनाकर खड़ा कर देते हैं। कुरता पहना देते हैं, हंडिया लटका देते हैं, मुंह बना देते हैं। जंगली जानवर उस झूठे आदमी को देखकर डर जाते हैं, भाग जाते हैं। पक्षी-पक्षी खेत में आने से डरते हैं।
 
एक दार्शनिक उस झूठे आदमी के पास से निकलता था। तो उस दार्शनिक ने उस झूठे आदमी को पूछा कि दोस्त! सदा यही खड़े रहते हो? धूप आती है, वर्षा आती है, सर्दियां आती हैं रात आती है, अंधेरा हो जाता है-तुम यही खड़े रह जाते हो? ऊबते नहीं, घबराते नहीं, परेशान नहीं होते?


वह झूठा आदमी दार्शनिक की बातें सुनकर बहुत हंसने लगा। उसने कहा, परेशान! परेशान मैं कभी नहीं होता, दूसरों को डराने में इतना मजा आता है कि वर्षा भी गुजार देता हूं धूप गुजार देता हूं। रातें भी गुजार देता हूं। दूसरों को डराने में बहुत मजा आता है; दूसरों को प्रभावित देखकर, भयभीत देखकर बहुत मजा आता है। ‘दूसरों की आंखों में सच्चा दिखायी पड़ता हूं, -बस बात खत्म हो जाती है। पक्षी डरते हैं कि मैं सच्चा आदमी हूं। जंगली जानवर भय खाते हैं कि मैं सच्चा आदमी हूं। उनकी आंखों में देखकर कि मैं सच्चा हूं बहुत आनंद आता है!


उस झूठे आदमी की बातें सुनकर दार्शनिक ने कहा, ”बड़े आश्रर्य की बात है। तुम जैसा कहते हो, वैसी हालत मेरी भी है। मैं भी दूसरों की आंखों में देखता हूं कि मैं क्या हूं और उसी से आनंद लेता चला जाता हूं!


तो वह झूठा आदमी हंसने लगा और उसने कहा, ”तब फिर मैं समझ गया कि तुम भी एक झूठे आदमी हो। झूठे आदमी की एक पहचान है : वह हमेशा दूसरों की आंखों में देखता है कि कैसा दिखायी पड़ता है। इससे मतलब नहीं कि वह क्या है। उसकी सारी चिंता, उसकी सारी चेष्टा यही होती है कि वह दूसरी को कैसा दिखायी पड़ता है; वे जो चारों तरफ देखने वाले लोग हैं, वे उसके बारे में क्या कह रहे हैं।


यह जो बाहर का थोथा अध्यात्म है, यह लोगों की चिंता से पैदा हुआ है। लोग क्या कहते हैं। और जो आदमी यह सोचता है कि लने क्या कहते है, वह आदमी कभी भी जीवन के अनुभव को उपलब्ध नहीं हो सकता है। जो आदमी यह फिक्र करता है कि भीड़ क्या कहती है, और जो भीड़ के हिसाब से अपने व्यक्तित्व को निर्मित करता है, वह आदमी भीतर जो सोये हुए प्राण हैं, उसको कभी नहीं जगा पायेगा। वह बाहर से ही वस्त्र ओढ़ लेगा। वह लोगों की आंखों में भला दिखायी पड़ने लगेगा और बात समाप्त हो जायेगी।


हम वैसे दिखायी पड़ रहे हैं, जैसे हम कभी भी नहीं थे।

हम वैसे दिखायी पड़ रहे हैं, जैसा दिखायी पडना सुखद मालूम पड़ता है! लेकिन वैसे हम नहीं है।

 सम्भोग से समाधी की ओर 

ओशो 


 



 



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