एक अंधा आदमी एक रात अपने मित्र के घर से विदा हुआ। जब चलने लगा, तो
अमावस की अंधेरी रात थी, मित्र ने कहा कि ऐसा करो, लालटेन लेते जाओ, रात
बहुत अंधेरी है।
अंधा हंसने लगा, उसने कहा: यह भी खूब मजाक रही। मुझे तो दिन और रात सब
बराबर है, लालटेन लेकर मैं क्या करूंगा? लालटेन होने से भी मुझे दिखाई पड़ने
वाला नहीं। मुझे दिखाई ही पड़ता होता तो क्या कहना था। यह भी तुमने खूब
मजाक किया! क्या मेरा व्यंग्य कर रहे हो मुझ अंधे का? दया खाओ, व्यंग्य तो न
करो।
लेकिन मित्र व्यंग्य नहीं कर रहा था। मित्र ने कहा, कि नहीं, व्यंग्य और
मैं करूं? मैं तो इसलिए कह रहा हूं कि लालटेन हाथ में ले जाओ, यह तो मैं
भी जानता हूं तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन तुम्हारे हाथ में लालटेन
होगी तो कोई दूसरा तुमसे न टकराए, कम से कम इतना तो हो जाएगा। नहीं तो
अंधेरे में कोई दूसरा टकरा जाए। तुम दूसरों को दिखाई पड़ते रहोगे, यह भी
क्या कम है? लालटेन तो ले जाओ। यह तर्क जंचा, अंधे को भी जंचा, कि बात तो
सच है, लालटेन हाथ में होगी कोई दूसरा मुझसे नहीं टकराएगा। यह भी कुछ कम
नहीं है। पचास प्रतिशत तो सुरक्षा हो गई! चला लेकर।
मगर वहीं भूल हो गई, उसी तर्क में भूल हो गई। तर्क अक्सर ऐसी ही
भ्रांतियों में ले जाते हैं। तर्क से लिए गए निष्कर्ष अक्सर भ्रांत होते
हैं। दस कदम भी नहीं चल पाया था कि कोई आदमी आकर टकरा गया। अंधा तो बड़ा
नाराज हुआ। चिल्लाया: क्या तुम भी अंधे हो! लालटेन नहीं दिखाई पड़ती? लालटेन
ऊंची करके दिखाई। उस आदमी ने कहा कि सूरदास जी, क्षमा करें, आपकी लालटेन
बुझ गई है।
अब अंधे की लालटेन बुझ जाए, तो उसे कैसे पता चले? और मैं कहता हूं, तर्क
की बड़ी भ्रांति हो गई। अंधा अगर बिना लालटेन के चलता, तो अपनी लकड़ी ठोंककर
चलता, आवाज करता चलता, पुकारता चलता—कि भाई मैं आ रहा हूं, ख्याल रखना! आज
लालटेन के नशे में चल रहा था। उसने फिर लकड़ी भी नहीं पटकी, आवाज भी नहीं
दी, और उपाय ही छोड़ दिए। जब लालटेन हाथ में है, तो अब क्या लकड़ी पटकनी और
क्या आवाज देनी? आज अकड़ से चला। इसके पहले तो लकड़ी ठोंककर चलता था, ताकि
लोगों को पता रहे कि अंधा आ रहा है। आज लकड़ी ठोंककर नहीं चला। तर्क ने बड़ी
भ्रांति पैदा कर दी।
मूर्च्छित आदमी, तुम्हें जरा भी तो याद नहीं पिछले जन्मों की। पिछले
जन्मों को तो छोड़ दो, पता नहीं हुए भी हों न हुए हों, कौन जाने? तुम्हें
मां के गर्भ की याद है? नौ महीने की तुम्हें याद है जो तुमने मां के गर्भ
में गुजारे? यह तो पक्का है कि नौ महीने मां के गर्भ में गुजारे। इसमें तो
शक नहीं करेगा कोई, नास्तिक भी शक नहीं करेगा। लेकिन तुम्हें याद है?
तुम्हें कुछ एकाध भी याद है? कुछ सुरत आती है? छोड़ो मां के गर्भ की भी,
क्योंकि मां के गर्भ में बंद पड़े थे एक कोठरी में। लेकिन गर्भ से पैदा हुए,
कोठरी के बाहर आए थे, तुम्हें जन्म के क्षण की याद है? तब तो आंखें खुली
थीं न! कान भी खुल गए थे। देखा भी था, सुना भी होगा। तुम्हें याद है? कुछ
याद नहीं। अगर तुम पीछे याददाश्त में लौटोगे, तो ज्यादा से ज्यादा चार साल
की उम्र तक जा पाओगे। फिर चार साल बिलकुल खाली पड़े हैं। जन्म के दिन से
लेकर चार वर्ष की उम्र तक कुछ भी याद नहीं आता, कोरे पड़े हैं। जब इस जीवन की
यह हालत है, तो तुम्हें पिछले जन्मों की क्या याद!
और तुमने कितनी बार तय किया है कि अब क्रोध नहीं करेंगे, अब चाहे कुछ भी
हो जाए, क्रोध नहीं करेंगे। और किसी ने गाली दे दी और क्रोध आ गया। तब तुम
बिलकुल भूल गए हो कितनी बार कसम खाई थी कि क्रोध न करेंगे। तुम्हारी
याददाश्त का भरोसा क्या? क्रोध करके फिर पछताए हो।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जो रोज कसम खाकर सोते हैं रात कि कल सुबह
तो ब्रह्ममुहूर्त में उठना है। अलार्म भी भर देते हैं। और खुद ही अलार्म को
जोर से पटक देते हैं हाथ, बंद कर देते हैं। और फिर सुबह पछताते हैं। जब आठ
बजे उठते हैं, फिर पछताते हैं, कि आज फिर भूल हो गई! कल फिर कोशिश करेंगे।
यह वे जिंदगी भर से कर रहे हैं। यह भी उनकी आदत का हिस्सा हो गया
है—अलार्म बजाना, बंद करना, फिर सुबह पछताना—यह सब उनकी शैली हो गई है। रोज
रात तय करके सोना कि सुबह उठना है…।
क्या तुम्हारी याददाश्त है? जो आदमी सांझ तय करके सोता है कि सुबह उठना
है, वही आदमी बिस्तर पर सुबह कहता है छोड़ो भी, इतनी जल्दी क्या है? आज
क्या, कल उठेंगे। वही आदमी दो घंटे बाद पछताता है, कि कैसा…फिर मैंने वही
भूल कर दी!
तुम्हारा होश कितना है? तुम बिलकुल बेहोश हो। तुम जरा चेष्टा करो,
रास्ते पर चलो और ख्याल रखो कि चलने का होश रहे कि मैं चल रहा हूं। मिनिट
भी न बीत पाएगा कि होश खो जाएगा, तुम हजार दूसरी बातों में खो जाओगे। तब
अचानक याद आएगी एक बार अरे, मैं कहां चला गया! मैं क्या सोचने लगा!
जरा घड़ी भर बैठ जाओ आंख बंद करके और कहो कि शांत बैठेंगे; विचार न
करेंगे। क्षण भर भी तो निर्विचार नहीं हो पाते हो। इतनी तो तुम्हारी अपने
पर स्वामित्व की दशा है! अपने विचार को भी रोक नहीं पाते, कर्म को तुम क्या
बदल पाओगे? विचार जैसी निर्जीव चीज, थोथी, कूड़ा करकट जैसी, उसको भी नहीं
रोक पाते! अगर कोई विचार तुम्हारे सिर में घूमने ही लगे, तुम उसको लाख
हटाने की कोशिश करो, नहीं हटता। तुम्हारा वश कितना है!
ऐसी अवश दशा में तुम्हारे पिछले जन्मों के पाप तुम्हें दुख दे रहे हैं, तो फिर दुख से कोई छुटकारे का उपाय होने वाला नहीं है।
मैं तुमसे कहता हूं, पिछले जन्मों से दुखों का कोई लेना देना नहीं है।
दुख अगर किसी कारण हो रहा है, तो तुम मूर्च्छित हो अभी इस कारण दुख हो रहा
है। मूर्च्छा दुख है। जागो! और जागने में कोई बाधा नहीं डाल रहा है सिवाय
तुम्हारी अपनी मूर्च्छा की आदत के और मूर्च्छा के साथ तुम्हारे पुराने
संबंधों के, कोई बाधा नहीं है।
लकीरें पड़ गई हैं, लीक पर चल रहे हो! दुखी होने की आदत हो गई है। भूल ही
गए हो मुस्कुराना कैसे? भूल ही गए हो नाचना कैसे? बस उतनी ही याद दिलाना
चाहता हूं।
मत लाओ बीच में ये सिद्धांत, अन्यथा तुम कभी आनंद को उपलब्ध न हो सकोगे।
लेकिन खूब सिद्धांत हमने बनाए हैं! हम कहते हैं: पहले पुण्य करेंगे, फिर
आनंद मिलेगा। और मैं तुमसे कहता हूं: आनंदित हो जाओ, तो तुम्हारे जीवन में
पुण्य का कृत्य शुरू हो जाए। आनंद से पुण्य पैदा होता है। आनंद पुण्य का
परिणाम नहीं है, पुण्य आनंद का परिणाम है।
कहे वाजिद पुकार
ओशो