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Tuesday, September 29, 2015

अंधे के हाथो में लालटेन

एक अंधा आदमी एक रात अपने मित्र के घर से विदा हुआ। जब चलने लगा, तो अमावस की अंधेरी रात थी, मित्र ने कहा कि ऐसा करो, लालटेन लेते जाओ, रात बहुत अंधेरी है।

अंधा हंसने लगा, उसने कहा: यह भी खूब मजाक रही। मुझे तो दिन और रात सब बराबर है, लालटेन लेकर मैं क्या करूंगा? लालटेन होने से भी मुझे दिखाई पड़ने वाला नहीं। मुझे दिखाई ही पड़ता होता तो क्या कहना था। यह भी तुमने खूब मजाक किया! क्या मेरा व्यंग्य कर रहे हो मुझ अंधे का? दया खाओ, व्यंग्य तो न करो।

लेकिन मित्र व्यंग्य नहीं कर रहा था। मित्र ने कहा, कि नहीं, व्यंग्य और मैं करूं? मैं तो इसलिए कह रहा हूं कि लालटेन हाथ में ले जाओ, यह तो मैं भी जानता हूं तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन तुम्हारे हाथ में लालटेन होगी तो कोई दूसरा तुमसे न टकराए, कम से कम इतना तो हो जाएगा। नहीं तो अंधेरे में कोई दूसरा टकरा जाए। तुम दूसरों को दिखाई पड़ते रहोगे, यह भी क्या कम है? लालटेन तो ले जाओ। यह तर्क जंचा, अंधे को भी जंचा, कि बात तो सच है, लालटेन हाथ में होगी कोई दूसरा मुझसे नहीं टकराएगा। यह भी कुछ कम नहीं है। पचास प्रतिशत तो सुरक्षा हो गई! चला लेकर।

मगर वहीं भूल हो गई, उसी तर्क में भूल हो गई। तर्क अक्सर ऐसी ही भ्रांतियों में ले जाते हैं। तर्क से लिए गए निष्कर्ष अक्सर भ्रांत होते हैं। दस कदम भी नहीं चल पाया था कि कोई आदमी आकर टकरा गया। अंधा तो बड़ा नाराज हुआ। चिल्लाया: क्या तुम भी अंधे हो! लालटेन नहीं दिखाई पड़ती? लालटेन ऊंची करके दिखाई। उस आदमी ने कहा कि सूरदास जी, क्षमा करें, आपकी लालटेन बुझ गई है।

अब अंधे की लालटेन बुझ जाए, तो उसे कैसे पता चले? और मैं कहता हूं, तर्क की बड़ी भ्रांति हो गई। अंधा अगर बिना लालटेन के चलता, तो अपनी लकड़ी ठोंककर चलता, आवाज करता चलता, पुकारता चलता—कि भाई मैं आ रहा हूं, ख्याल रखना! आज लालटेन के नशे में चल रहा था। उसने फिर लकड़ी भी नहीं पटकी, आवाज भी नहीं दी, और उपाय ही छोड़ दिए। जब लालटेन हाथ में है, तो अब क्या लकड़ी पटकनी और क्या आवाज देनी? आज अकड़ से चला। इसके पहले तो लकड़ी ठोंककर चलता था, ताकि लोगों को पता रहे कि अंधा आ रहा है। आज लकड़ी ठोंककर नहीं चला। तर्क ने बड़ी भ्रांति पैदा कर दी।

मूर्च्छित आदमी, तुम्हें जरा भी तो याद नहीं पिछले जन्मों की। पिछले जन्मों को तो छोड़ दो, पता नहीं हुए भी हों न हुए हों, कौन जाने? तुम्हें मां के गर्भ की याद है? नौ महीने की तुम्हें याद है जो तुमने मां के गर्भ में गुजारे? यह तो पक्का है कि नौ महीने मां के गर्भ में गुजारे। इसमें तो शक नहीं करेगा कोई, नास्तिक भी शक नहीं करेगा। लेकिन तुम्हें याद है? तुम्हें कुछ एकाध भी याद है? कुछ सुरत आती है? छोड़ो मां के गर्भ की भी, क्योंकि मां के गर्भ में बंद पड़े थे एक कोठरी में। लेकिन गर्भ से पैदा हुए, कोठरी के बाहर आए थे, तुम्हें जन्म के क्षण की याद है? तब तो आंखें खुली थीं न! कान भी खुल गए थे। देखा भी था, सुना भी होगा। तुम्हें याद है? कुछ याद नहीं। अगर तुम पीछे याददाश्त में लौटोगे, तो ज्यादा से ज्यादा चार साल की उम्र तक जा पाओगे। फिर चार साल बिलकुल खाली पड़े हैं। जन्म के दिन से लेकर चार वर्ष की उम्र तक कुछ भी याद नहीं आता, कोरे पड़े हैं। जब इस जीवन की यह हालत है, तो तुम्हें पिछले जन्मों की क्या याद!

और तुमने कितनी बार तय किया है कि अब क्रोध नहीं करेंगे, अब चाहे कुछ भी हो जाए, क्रोध नहीं करेंगे। और किसी ने गाली दे दी और क्रोध आ गया। तब तुम बिलकुल भूल गए हो कितनी बार कसम खाई थी कि क्रोध न करेंगे। तुम्हारी याददाश्त का भरोसा क्या? क्रोध करके फिर पछताए हो।

मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जो रोज कसम खाकर सोते हैं रात कि कल सुबह तो ब्रह्ममुहूर्त में उठना है। अलार्म भी भर देते हैं। और खुद ही अलार्म को जोर से पटक देते हैं हाथ, बंद कर देते हैं। और फिर सुबह पछताते हैं। जब आठ बजे उठते हैं, फिर पछताते हैं, कि आज फिर भूल हो गई! कल फिर कोशिश करेंगे। यह वे जिंदगी भर से कर रहे हैं। यह भी उनकी आदत का हिस्सा हो गया है—अलार्म बजाना, बंद करना, फिर सुबह पछताना—यह सब उनकी शैली हो गई है। रोज रात तय करके सोना कि सुबह उठना है…।

क्या तुम्हारी याददाश्त है? जो आदमी सांझ तय करके सोता है कि सुबह उठना है, वही आदमी बिस्तर पर सुबह कहता है छोड़ो भी, इतनी जल्दी क्या है? आज क्या, कल उठेंगे। वही आदमी दो घंटे बाद पछताता है, कि कैसा…फिर मैंने वही भूल कर दी!

तुम्हारा होश कितना है? तुम बिलकुल बेहोश हो। तुम जरा चेष्टा करो, रास्ते पर चलो और ख्याल रखो कि चलने का होश रहे कि मैं चल रहा हूं। मिनिट भी न बीत पाएगा कि होश खो जाएगा, तुम हजार दूसरी बातों में खो जाओगे। तब अचानक याद आएगी एक बार अरे, मैं कहां चला गया! मैं क्या सोचने लगा!

जरा घड़ी भर बैठ जाओ आंख बंद करके और कहो कि शांत बैठेंगे; विचार न करेंगे। क्षण भर भी तो निर्विचार नहीं हो पाते हो। इतनी तो तुम्हारी अपने पर स्वामित्व की दशा है! अपने विचार को भी रोक नहीं पाते, कर्म को तुम क्या बदल पाओगे? विचार जैसी निर्जीव चीज, थोथी, कूड़ा करकट जैसी, उसको भी नहीं रोक पाते! अगर कोई विचार तुम्हारे सिर में घूमने ही लगे, तुम उसको लाख हटाने की कोशिश करो, नहीं हटता। तुम्हारा वश कितना है!

ऐसी अवश दशा में तुम्हारे पिछले जन्मों के पाप तुम्हें दुख दे रहे हैं, तो फिर दुख से कोई छुटकारे का उपाय होने वाला नहीं है।

मैं तुमसे कहता हूं, पिछले जन्मों से दुखों का कोई लेना देना नहीं है। दुख अगर किसी कारण हो रहा है, तो तुम मूर्च्छित हो अभी इस कारण दुख हो रहा है। मूर्च्छा दुख है। जागो! और जागने में कोई बाधा नहीं डाल रहा है सिवाय तुम्हारी अपनी मूर्च्छा की आदत के और मूर्च्छा के साथ तुम्हारे पुराने संबंधों के, कोई बाधा नहीं है।

लकीरें पड़ गई हैं, लीक पर चल रहे हो! दुखी होने की आदत हो गई है। भूल ही गए हो मुस्कुराना कैसे? भूल ही गए हो नाचना कैसे? बस उतनी ही याद दिलाना चाहता हूं।

मत लाओ बीच में ये सिद्धांत, अन्यथा तुम कभी आनंद को उपलब्ध न हो सकोगे। लेकिन खूब सिद्धांत हमने बनाए हैं! हम कहते हैं: पहले पुण्य करेंगे, फिर आनंद मिलेगा। और मैं तुमसे कहता हूं: आनंदित हो जाओ, तो तुम्हारे जीवन में पुण्य का कृत्य शुरू हो जाए। आनंद से पुण्य पैदा होता है। आनंद पुण्य का परिणाम नहीं है, पुण्य आनंद का परिणाम है।


 कहे वाजिद पुकार

ओशो 

स्व-भाव की खोज धर्म है

मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर मेहमान था। उसका बेटा खाना खा रहा था। पहले वह बायें हाथ से खा रहा था, थोड़ी देर में उसने दायें हाथ से खाना शुरू कर दिया। मैं थोडा चौका। फिर मैंने देखा कि उसने फिर बायें हाथ से शुरू कर दिया। नसरुद्दीन ने कहा : ‘हजार बार तुझसे कहा लड़के कि दायें हाथ से खाना खा; बायें हाथ से मत खा।’ लड़के ने कहा : ‘क्या फर्क पड़ता है; मुंह बिलकुल दोनों के बीच में हैं—चाहे इधर से खाओ, चाहे उधर से खाओ। यात्रा बराबर करनी पड़ती है। मुंह बिलकुल मध्य में हैं।’

सुख और दुख के मध्य में खोजना किसी बिंदु को, वही सतत हो सकता है। ठीक मध्य में संतुलन है, सम्यकत्व है। वहां न यह अति है, न वह अति है। जैसे तराजू होता है, वह जो मध्य में काटा है बीच में थिर: वही तुम हो सकते हो। इस पर वजन पड़ा थोड़ी देर में थक जाओगे तो दूसरे तरफ वजन डालना पड़ेगा। जैसे लोग मरघट ले जाते है अर्थी को रखकर कंधे पर तो रास्ते में कंधा बदलते हैं एक कंधा दुखने लगता है, दूसरे पर रख लेते हैं। कुछ वजन कम नहीं होता, लेकिन कंधा बदलने से राहत मिलती है। फिर थोड़ी देर में यह कंधा दुखने लगता है, दूसरे पर रख लेते है।

सुख दुख तुम्हारे कंधे है और कर्ता का भाव तुम्हारी अर्थी है, जिसको तुम बदलते रहते हो। कभी सुख के साथ जुड़ जाते हो, कभी दुख के साथ जुड़ जाते हो। साक्षी बनो! मध्य में ठहर जाओ। तब तुम सतत रह पाओगे। बुद्धत्व सतत रह सकता है, क्योंकि वह शांत अवस्था है। वहां आनंद तो है, लेकिन वह आनंद सूरज की प्रगाढ़ किरणों की भांति नहीं है; चांद की शांत किरणों की भांति है। वहां आनंद तो है लेकिन जलती हुई अग्रि की भांति नहीं, शांत आलोक की भांति है। उस में कोई तनाव नहीं है। उसमें कोई बेचैनी नहीं है।

तुमने खयाल किया कि सुखी आदमी अकसर हार्ट फेल से मर जाते है। कभी बहुत सुख जा आये, लाटरी एकदम से आ जाये न मिले तो मुसीबत, मिल जाये तो मुसीबत, एक दम से लाटरी मिल जाये कि तुम गये। मैने सुना है कि एक आदमी को लाटरी मिल गयी दस लाख रुपये की। पत्नी को खबर मिली। पली बहुत घबडायी क्योंकि वह अपने पति को जानती है कि अगर दस पैसे मिल जायें तो हार्ट फेल हो जाये। दस लाख रुपये! पति बाहर थे। वह भागी पड़ोस में गयी। एक मंदिर के पुजारी को उसने पकड़ा, क्योंकि उसे वह ज्ञानी समझती थी। उसने कहा. ‘ भैया, कुछ मेरी सहायता करें। पति घर आये, उसके पहले कुछ जमाओ। दस लाख रुपये की लाटरी मिल गई है! ‘ उसने कहा ‘मत घबड़ा। ढंग से हम समझा लेंगे। मात्रा मात्रा में काम करना पड़ेगा। आने दे पति को, मैं आता हूं।’

पुजारी जाकर बैठ गया। पति आया। पुजारी ने सोचा कि दस लाख बहुत ज्यादा हो जायेगा, एक लाख से शुरू करें। धीरे धीरे चोट करने से ठीक रहेगा। तो उसने कहा : ‘सुनो, एक लाख रुपये लाटरी में मिल गये हैं! ‘वह आदमी बोला. ‘सच! अगर एक लाख मिला तो पचास हजार तुम्हारे मंदिर को दान।’ पुजारी का वहीं हार्ट फेल हो गया। उसने कभी सोचा ही नहीं था, पचास हजार!

सुख भी मार डालता है। दुख तो मारता ही है, सुख भी मार डालता है; क्योंकि दोनों में एक उत्तेजना है। और जहां उत्तेजना है वहां चीजें टूट जाती है। सतत तो वही रह सकता है जो तुम्हारा अनुत्तेजित स्वभाव है। जिसे साधना न पड़े, वही सतत रह सकता है। जो सदा बिना साधे तुम्हारे भीतर है वही सतत रह सकता है। जिसे तुम छोड़ भी नहीं सकते, वही सतत रह सकता है।

इसलिए सारे धर्म की खोज स्वभाव की खोज है। स्वभाव की खोज धर्म है; क्योंकि वह शाश्वत है, उससे तुम कभी न ऊबोगे क्योंकि वह तुम ही हो। उससे अलग होने का उपाय ही नहीं है। उसके पार खड़े होकर देखने का उपाय नहीं। जिससे भी तुम दूर खड़े होकर देख सकते हो, उससे तुम ऊब जाओगे; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है।

मंत्र जब मन को मार डालेगा; मंत्र के द्वारा मन जब आत्महत्या कर लेगा, तब तुम्हारे भीतर उस सतत झरने का प्रवाह शुरू होगा। और जैसे ही यह सतत झरना पैदा होता है, और सुख दुख बाह्य वृत्तियों से विमुख, वह केवली हो जाता है। तब वह अकेला है। अब वह अकेले धुन में मस्त है। अब उसे कुछ भी नहीं चाहिए। अब सब चाह मर गयी। क्योंकि सुख भी बाहर है, दुख भी बाहर है। अब न तो वह सुख की चाह करता है, न दुख से बचने की चाह करता है। जो बाहर है, उससे उसका संबंध ही छूट गया। अब तो वह अपने भीतर थिर है और भीतर सतत आनंदित है, इसलिए चाह का कोई सवाल नहीं। अब वह सतत अपनी चेतना में रमता है। उसका सच्चिदानंद अब निरंतर चलता रहता है। वह उसकी श्वास श्वास में, होने के कण कण में व्याप्त है। वही शिव स्वरुप है 

शिव सूत्र 

ओशो

मंत्र का सही उपयोग

मैं एक स्टेशन से गुजर रहा था। खिलौनों के एक ठेले पर एक खिलौना मैंने देखा। और वह चिल्ला—चिल्लाकर खिलौने बेचनेवाला कह रहा था कि कोई बच्चा इस खिलौने को तोड़ नहीं सकता, यह अनब्रेकेबल है। तो मैंने सोचा, खरीद लूं नसरुद्दीन के बच्चे के काम आयेगा, क्योंकि उसकी पली सदा यही रोना रोती रहती है कि खिलौना घर तक नहीं आ पाता और लड़का तोड़ देता है। उसे मैंने खरीद लिया। उसके दाम भी ज्यादा थे और मजबूत भी था। दिया नसरुद्दीन की पली को, बेटे के लिए। पति पत्नी दोनों प्रसन्न हुए कि इसको वह भी तोड़ न पायेगा, हम भी तोड़ न पायेंगे। सच में ही खिलौना मजबूत था।

सात दिन बाद उनके घर गया। पूछा, तो पत्नी कहने लगी, ‘बड़ी मुसीबत हो गयी! ‘ मैने पूछा कि क्या उसने वह खिलौना तोड़ दिया। पत्नी ने कहा, ‘नहीं, वह खिलौना तो नहीं तोड़ पाया, लेकिन उस खिलौने से उसने सारे खिलौने तोड़ डाले, घर के सब दर्पण तोड़ डाले और अब आत्मरक्षा के लिए हमें कुछ उपाय करना पड़ेगा। वह खिलौने का अस की तरह उपयोग कर रहा है।’

तुम वैसे ही विक्षिप्त दशा में हो। मंत्र से विक्षिप्तता टूट भी सकती है, बढ़ भी सकती है। वैसे ही तुम बोझ से भरे हो और नया मंत्र और एक बोझ ले आयेगा। इसलिए एक अनहोनी घटना रोज घटती है, कि जिनको तुम साधारणतया धार्मिक आदमी कहते हो, वे साधारण सांसारिक आदमी से ज्यादा परेशान हो जाते हैं; क्योंकि संसारी को संसार की परेशानी है, उनको संसार की तो बनी ही रहती है, धर्म की और जुड़ जाती है। वह प्लस है। उससे कुछ घटता नहीं, बढ़ता है। मन पुराने सब धंधे तो जारी रखता है, यह एक नया धंधा और पकड़ लिया है; व्यस्तता और बढ गयी।

तो मंत्र के साथ अत्यंत धैर्य चाहिए, अन्यथा उस झंझट में मत पडना। जैसे दवा को मात्रा में लेना होता है यह मत सोचना कि पूरी बोतल इकट्ठी पी गये तो बीमारी अभी ठीक हो जायेगी; उससे बीमार मर सकता है, बीमारी न मरेगी उसे मात्रा में ही लेना। और मंत्र की मात्राएं बड़ी होमियोपौथिक हैं, बड़ी सूक्ष्म हैं। तो बहुत धैर्य की जरूरत है, वह पहली जरूरत है। फल की बहुत जल्दी आकांक्षा मत करना; वह जल्दी आयेगा भी नहीं। क्योंकि यह परम फल है। यह कोई मौसमी फूल नहीं है कि बोया और पन्द्रह दिन के भीतर आ गया। जन्म जन्म  लग जाते हैं। और एक कठिन बात जो समझ लेने की है, वह यह है कि जितना धैर्य हो उतना जल्दी फल आ जायेगा। और जितना अधैर्य हो, उतनी ज्यादा देर लग जायेगी।

एक आदमी जा रहा था रास्ते से। उसका जूता उसे काट रहा था; जूता छोटा था। वह जूते को गालियां दे रहा था और परेशान था। नसरुद्दीन ने उससे पूछा कि मेरे भाई, इतना तंग जूता कहां से खरीदा। वह आदमी वैसे ही जला— भुना था, वैसे ही क्रोध में था, उसने कहा, ‘जूता कहां से खरीदा! झाडू से तोड़ा है! ‘नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरे भाई, थोड़ी देर रुक जाते तो पैर के नाप का तो हो जाता। कच्चा तोड़ लिया!’

मंत्र कभी कच्चा मत तोडना, नहीं तो बुरे फंस जाओगे। जूते को तो कोई फेंक दे, मंत्र को फेंकना बहुत मुश्किल है। क्योंकि जूता तो बाहर है, मंत्र भीतर होता है। और अगर गलती से मंत्र में फंस गये तो निकालना बहुत मुश्किल हो जाता है। बहुत—से धार्मिक लोग पागल हो जाते हैं। उसका कारण है कि मंत्र में फंस गये, कुछ जल्दी कर ली तोड्ने की; फल पक नहीं पाया था, कच्चा ले गये। पके तो फल बहुत मीठा हो जाता है; कच्चा बहुत तिक्त होगा, बहुत क्क्वा होगा, जहरीला होगा।

पहली पर्त है शरीर। तो मंत्र का पहला प्रयोग शरीर से शुरू करना जरूरी है। क्योंकि वहीं तुम हो, वहीं से इलाज शुरू होगा। अगर तुमने वह पर्त छोड़कर मंत्र का इलाज शुरू किया तो बीमारी तुम्हारी रह जायेगी, मिटेगी नहीं। कल नहीं परसों, कच्चा फल हाथ आयेगा। ध्यान रखना, यात्रा वहीं से शुरू की जा सकती है जहां तुम खड़े हो; कहीं और से यात्रा की तो वह सपना है। तुम अभी शरीर हो। तो अभी मंत्र को शरीर से ही शुरू करना होगा। विधि को समझ लो। पहले दस मिनट शांत बैठ जाना। शांत बैठने के पहले क्योंकि शांत बैठना आसान नहीं है पांच मिनट नाचना, उछलना, कूदना। और दिल खोलकर उछलना, कूदना, नाचना, ताकि शरीर के भीतर, रग रग, रेशे रेशे में जो रेस्टलेसनेस, वह जो बेचैनी है, वह निकल जाये। तभी तुम दस मिनट शांति से बैठ पाओगे।


 शांति से बैठने के लिए यह जरूरी रेचन है। दस पांच मिनट, जितना तुम्हें ठीक लगे, जितनी तुम्हारी बेचैनी हो उस हिसाब से, तुम नाचना, कूदना, डोलना, शरीर को सब तरफ से हिलाना ताकि दस मिनट शरीर हिलने की आकांक्षा न करे। उसकी हिलने की तृप्ति कर देना। दस मिनट शरीर को हिलाना डुलाना, नाचना कूदना, दौड़ना, फिर बैठ जाना। और फिर बैठ जाना बिलकुल थिर, दस मिनट अब शरीर न हिले। आंखें आधी खुली रखना और उचित होगा कि प्रयोग खुले में मत करना, बंद में करना। छोटा कमरा हो, बंद हो और बिलकुल खाली हो, वहां कोई भी चीज न हो। इसलिए मंदिर, मस्जिद या चर्च बहुत अच्छा है जहां कुछ भी नहीं है, कोई सामान नहीं। या घर में एक कोना साफ कर लेना, जहां कुछ भी नहीं है। वहां देवी देवताओं को भी मत रखना, वे भी उपद्रव हैं। बिलकुल खाली कर देना।

बस, खालीपन ही एक परमात्मा है, बाकी सब चीजें मन का ही खेल है। और मन ऐसा पागल है कि लोगों के अगर पूजागृह देखो तो उनका पागलपन पता चल जाये। कोई सौ पचास देवी देवताओं को लटकाये हुए हैं, जमाने भर के कलेंडर काट काट कर टांग लिये हैं। जो भी देवी देवता जहां मिल जाता है, रही में, अखबार में उसको वे चिपका लेते हैं। यह इनकी खोपड़ी का सबूत है। और इन सबके सामने जल्दी जल्दी सिर झुकाकर, पानी वगैरह छिड़कर, सबको तृप्त करके, वे गये! इनमें से कोई एक भी तृप्त नहीं होता है।

 एक को तृप्त करने से सभी तृप्त हो जायेंगे, सभी को तृप्त करने से एक भी तृप्त नहीं होता।

एक साधे, सब सधे। और वह एक बाहर नहीं है, भीतर है। 

शिव सूत्र 

ओशो 

आदमी चलता ही रहता है हार में, जीत में; सफलता में, असफलता में; प्रेम में, विरह में। वह क्या है जो उसे चलाए रखता है?

दो चीजें: अहंकार और आशा। एक तो अहंकार चलाए रखता है। क्योंकि अहंकार कहता है, टूट जाना मगर झुकना मत, मिट जाना मगर रुकना मत। एक तो अहंकार चलाए रखता है। कुछ भी हो जाए, अहंकार कहता है, चले चले जाओ। लड़ते रहो, जूझते रहो। ‘अगर हार ही बदी है किस्मत में, तो भी लड़ते लड़ते ही हारना। हार स्वीकार मत करना। अहंकार हार को स्वीकार नहीं करने देता। और उसी कारण हम बुरी तरह हार जाते हैं। जो हार को स्वीकार कर लेता है, उसकी तो जीत शुरू हो गयी। कहते हैं न हारे को हरिनाम। जिसने हार को अंगीकार कर लिया, उसके जीवन में तो हरि उतरना शुरू हो जाता है। संसार में जीत तो होती ही नहीं, हार ही होती है। जीत हो ही नहीं सकती। जीत संसार का स्वभाव नहीं है। वह छोटी मोटी जीत, जो तुम्हें दिखायी पड़ती है, बड़ी हारों की तैयारी है और कुछ भी नहीं। वह वैसे ही है जैसे जुआरी जुआ खेलने जाता है। कभी कभी जीत भी जाता है। वह जीत सिर्फ बड़ी हार के लिए आकर्षण है।

एक आदमी के संबंध में मैं पढ़ रहा था। उसे दस हजार डालर वसीयत में मिल गए। उसने सोचा कि एक बार जुआ खेलकर जितने बढ़ सकें ये डालर उतना बढ़ा लेना उचित है, ताकि जिंदगीभर के लिए फिर झंझट ही काम करने की मिट जाए। वह अपनी पत्नी को लेकर जुआघर गया। वह सब हार गया, सिर्फ दो डालर बचे। वह भी इसलिए बचा लिए थे कि होटल में लौटकर जाने के लिए रास्ते में टैक्सी का किराया भी तो चुकाना पड़ेगा।
वह बाहर आया, बाहर उसने पत्नी से कहा कि सुन, आज पैदल ही चल लेंगे, यह दो और लगा लेने दे। नहीं तो मन में एक बात खटकती रह जाएगी कि कौन जाने, यह दो के लगाने से जीत हो जाती! पत्नी ने कहा, अब तुम जाओ, मैं तो चली।

वह आदमी भीतर। उसने दो डालर दाव पर लगाए और जीत गया। और चला गया। हजार डालर तो दूर, उसके पास एक लाख डालर थे आधी रात होते-होते। फिर उसने सोचा, अब आखिरी दाव लगा लूं। उसने वह एक लाख डालर भी दाव पर लगा दिए अगर जीत जाता तो बीस लाख हो जाते मगर वह हार गया।

आधी रात पैदल ही होटल वापस लौटा, दरवाजा खटखटाया, पत्नी ने पूछा, क्या हुआ? उसने कहा, वह दो डालर हार गया। वह दो डालर हार गया। उसने सोचा, अब एक लाख की बात कहने का कोई मतलब ही नहीं। इतनी देर कहां रहे फिर? उसने कहा, वह पूछ ही मत! अब वह दुख छेड़ ही मत! इतना तू जान लिए दो डालर जो थे, वह भी हार गया हूं।

जुए का खेल जैसा है जगत। यहां कभी कभी जीत भी होती है ऐसा नहीं है कि नहीं होती, जीत होती, मगर हर जीत किसी और बड़ी हार की सेवा में नियुक्त है। हर जीत किसी बड़ी हार की नौकरी में लगी है। यहां कभी कभी सुख भी मिलता है, नहीं कि नहीं मिलता, लेकिन हर सुख किसी बड़े दुख का चाकर है। हर सुख तुम्हें किसी बड़े दुख पर ले आएगा। सुख भरमाता है। सुख कहता है, सुख हो सकता है, घबड़ाओ मत, भागो मत। तो आशा बनी रहती है कि शायद अभी हुआ, कल फिर होगा, परसों फिर होगा।
तो एक तो आशा चलाती, एक अहंकार चलाता।

आदमी बहुत बार जागने जागने के करीब आ जाता है। तुम्हारा कोई प्रियजन मर गया। बड़े करीब होते हो तुम बुद्धत्व के उस घड़ी में। जब तुम मौत के दुख में होते हो, बुद्धत्व बहुत करीब होता है। अगर पकड़ लो सूत्र तो छलांग लग जाए। लेकिन तुम सूत्र पकड़ नहीं पाते, तुम दुख को झुठला लेते हो। तुम अपने को समझा लेते हो, मना लेते हो। तुम फिर नयी नयी आशाओं के सपनों पर सवार हो जाते हो। दुख झकझोरता है, लेकिन तुम उस झकोरे को भी समा लेते हो अपने में। सात्वना बांध लेते हो, सोचते हो, फिर सब ठीक हो जाएगा, फिर वसंत आएगा, फिर फूल लगेंगे


मरो है जोगी मरो

ओशो

 

दांपत्‍य जीवन अशांत क्‍यों ?

एक बच्‍चा अपनी मां को प्रेम करता है। और मां खुश होगी कि बच्‍चा मा को प्रेम करता है। और वह बच्‍चे को कितना प्रेम करती है,

लेकिन बच्‍चे के मन में मां के प्रेम की जो तस्‍वीर बनती चली जायेगी, मां भी नहीं सोच सकती। बच्‍चा भी नहीं सोच सकता कि अंतत: यही प्रेम उसकी जिंदगी को भी उपद्रव में डाल सकता है। अगर बच्‍चे के मन में अपनी मां की तस्‍वीर पूरी तरह बैठ गयी तो वह जिंदगी भर पत्‍नी में अपनी मां को खोजेगा। जो नहीं मिल सकता है। और वही जिंदगी भर फ्रस्‍टेश्‍न में जिएगा। जिंदगी भर तनाव और परेशानी में रहेगा। क्‍योंकि खोज रहा है मां को। उसको मां जैसी पत्‍नी चाहिए वैसी पत्‍नी कहां मिल सकती है? वह एक ही औरत थी और मां को पत्‍नी बनाया नहीं जा सकता। उसका कोई उपाय नहीं है। अब वह अपनी मां को खोज रहा है, मां के गुण खोज रहा है। मां की तस्‍वीर उसको कहीं भी मिलेगी। उसको कोई पत्‍नी कभी सुख नहीं दे पायेगी। हर पत्‍नी कभी सुख नहीं दे पायेगी। हर पत्‍नी के साथ मुसीबत खड़ी हो जायेगी। क्‍योंकि वह मां की एक इमेज एक धारणा मन में बैठ गयी थी। अब बचपन में सीखी गयी एक धारणा जीवन भर उसका पीछा करेगी। वह कभी शांत नहीं हो सकता।
एक धुँधली धारणा है भीतर इस लिए हर आदमी जानता है कि मुझे कैसी पत्‍नी चाहिए। और स्‍त्री जानती है, कि मुझे कैसा पति चाहिए। और हर स्‍त्री जानती है कि मुझे कैसा पति चाहिए। और हम उसकी तलाश में रहते है। लेकिन वह कभी मिलने वाला नहीं है। क्‍योंकि लड़की के मन में अपने पिता की तस्‍वीर और लड़के के मन में अपनी मां कि तस्‍वीर है। और वह कहीं भी मिलने वाली नहीं है। एक सक व्‍यक्‍ति दोबारा पैदा ही नहीं होते। अब बचपन में बैठ गयी तस्‍वीर जिंदगी भर पीछा करती है। और सारी जिंदगी को खराब कर देती है। बचपन में अगर गलत सीमाएं बीठा दी जाएं तो जिंदगी भर उनको भूलना मुश्‍किल है।

एक बच्‍चा पैदा होता है और मां के प्रति जो इतना बड़ा प्रेम है, उसका पहला कारण यह है कि उस मोमेंट आफ एक्‍सपोजर में पहले मां ही उसका उपलब्‍ध होती है। तब उसका मन खुदा होता है। और मां की तस्‍वीर भीतर चली जाती है। लड़की के मन में भी मां की तस्‍वीर चली जाती है। और जिंदगी भर में मनुष्‍य के प्रेम और दांपत्‍य में बाधा डालने वाला एक कारण यह भी है। क्‍योंकि जो तस्‍वीर भीतर चली गयी है लड़के के मन में अब जिंदगी भर वह इसी तस्‍वीर को खोजता रहेगा। पहले मां के प्रेम में इसको पायेगा और परिपक्‍व कर लेगा, फिर वह मजबूत हो जायेगी। जब सेक्‍सुअल मेच्‍योरटि आती है। पहली यौन की दृष्‍टि से व्‍यक्‍ति परिपक्‍व होता है, तब फिर मोमेंट आप एक्सपोजर आता है। जिसको लोग कहते है, लव एट फर्स्‍ट साइट। वह कुछ भी नहीं है। वह वहीं मोमेंट आफ एक्सपोजर है। वह वही का वही मामला है, जैसे उस मुर्गी को प्रेम हो गया गुब्‍बारे से। वह मुर्गी का बच्‍चा गुब्‍बारे के पीछे घूमने लगा। वह लव एट फर्स्‍ट साइट, वह पहली नजर है प्रेम की, खुल गया मन और वह गुब्‍बारा भीतर बैठ गया है। जब यौन की दृष्‍टि से व्‍यक्‍ति पहली दफे परिपक्‍व होता है, तब फिर उसका मन खुलता है। और जो पहली तस्‍वीर भीतर बैठ जाती है, भीतर प्रवेश कर जाती है। और गहरा प्रवेश कर जाती है। लेकिन अगर इन दोनों तस्‍वीरों में भीतर संघर्ष हो जाए तो वह व्‍यक्‍ति कभी भी शांति से जी न पायेगा। और इन दोनों तस्‍वीरों में संघर्ष हो जाता है।

दांपत्‍य जीवन से पीड़ा कैसे हटे?

अब सारा दांपत्‍य जीवन सड़ गया है। सारा दांपत्‍य दुःख की सूली से भरा हुआ है। सब सूली पर लटके हुए है। लेकिन कोई भीतर उतर कर देखने की फिक्र में नहीं है। कि कारण क्‍या है। लड़के के मन में मां का चित्र बैठ जाए वह तो ठीक है। लेकिन लड़की के मन में मां का चित्र बैठ जाये तो कठिनाई हो जाती है। जरूरी है कि लड़की के मन में बाप का चित्र बैठे। लेकिन हमारी जो व्‍यवस्‍था है उसमे सब बच्‍चों को मां पालती है। बाप तो किन्‍हीं को पालता नहीं है। आने वाले भविष्‍य में लड़कियां बाप के निकट ज्‍यादा पाली जानी चाहिए। लड़के मां के निकट ज्‍यादा पाले जाने चाहिए। तभी हम दांपत्‍य जीवन से दुःख और पीड़ा और कलह को हटा पायेंगे। अन्‍यथा नहीं हटा पाएंगे। इसलिए आज तक पाँच हजार वर्षों में जितने विवाह के प्रयोग हुए, सभी असफल हो गये। क्‍योंकि प्रयोग ऊपर से होते है। भीतर कुछ और गहरी जड़ें है। जो हमारे ख्‍याल में भी नहीं है। लड़की के मन में भी अगर मां का चित्र बैठ जाये तो बहुत खतरा है। खतरा यह है कि हो सकता है, वह किसी पुरूष को कभी ठीक से पूरा प्रेम न कर पाये। वह पहले क्षण में जो तस्‍वीर बैठ गयी है, वह तस्‍वीर खतरनाक हो सकती है। पहली तस्‍वीर लड़की के मन में पुरूष की ही बैठनी चाहिए। वह एक ही पुरूष की नहीं बैठनी चाहिए। वह भी उचित है कि और ज्‍यादा पुरूषों की बैठे। ताकि कोई निश्‍चित तस्‍वीर न हो। और निश्‍चित तस्‍वीर की खोज जिंदगी में शुरू न हो जाएं।

अगर यह हो सके तो हम दांपत्‍य के दंश को, कलह को दुःख को, सफ्रिंग को अलग कर सकते है। अन्‍यथा नहीं कर सकते। लेकिन इस सब पर कोई ध्‍यान नहीं है। और एक आदमी अशांत हो गया है। एक-एक आदमी पीड़ित हो गया है। एक-एक आदमी अपनी अशांति और पीड़ा के लिए तरकीबें खोजता फिरता है। वह पूछता है। मैं शांत कैसे हो जाऊं। जब कि अशांति के कारण इतने गहरे है। इतने सामूहिक है, और इतने अतीत से जुडे है। कि उस एक व्‍यक्‍ति के सामर्थ्‍य के बहार की बात है उन्‍हें पहचाना। कि वह उस के बारे में कुछ कर पाये। वह करीब-करीब विवश, भाग्‍य के हाथों में बंधा हुआ अनुभव करता है। कुछ भी नहीं कर पाता है, तड़पता है, परेशान होता है और मर जाता है।


ओशो

चौथा प्रश्न:

मैं बड़ी उलझन में हूं। तीस अक्ट्रबर को मेरी प्यारी छोटी बहन ज्योति का देहांत हो गया। मैं बहुत दुख और परेशानी महसूस कर रहा हूं ध्यान तथा प्रवचन सुनने से थोड़ी सी शांति की अनुभूति होती है परंतु इतने सालों से प्रेम एवं ममत्व होने के कारण रोम रोम में उसकी याद सताती है। ऐसे संयोग में मुझे क्या करना चाहिए? प्रभु आप कृपया कुछ मार्गदर्शन देने की अनुकंपा करें।

कबीर! जाना है और सबको जाना है। हम सब पंक्तिबद्ध जाने को तैयार खड़े हैं कब किसका बुलावा आ जाये! बहन गयी तुम्हारी, चोट लगी तुम पर। चोट इसीलिए लगी कि तुमने यह मानकर जिंदगी चलायी थी कि बहन कभी जायेगी नहीं। बहन के जाने से चोट नहीं लगी, तुम्हारी मान्यता भ्रांत थी; मान्यता के टूटने से चोट लगी। काश, तुमने जाना ही होता कि सब को जाना है, तो चोट न लगती! तुमने झूठी मान्यता बना रखी थी कि बहन कभी न जायेगी। किसी अचेतन में चुपचाप तुम इस भाव को पालते पोसते रहे थे कि बहन कभी न जायेगी। इतनी प्यारी बहन कहीं जाती है! लेकिन सबको जाना है। 

अब तुम सोचते हो कि बहन के जाने के कारण तुम विक्षुब्ध हो, तो फिर गलत सोच रहे हो। धारणा टूट गयी, इसलिए विक्षुब्ध हो। तुम्हारी मान्यता उखड़ गयी, इसलिए विक्षुब्ध हो। यह बहन का जाना तुम्हारे सारे तारतम्य को तोड़ गया, इसलिए विक्षुब्ध हो। अब भी सोचो, अब भी जागो। तुम्हें भी जाना है। पिता भी जायेंगे, मां भी जायेगी, भाई भी जायेंगे, मित्र भी जायेंगे, सभी को जाना है। बहन तो जैसे राह दिखा गयी। धन्यवाद मानो उसका, अनुग्रह स्वीकार करो कि अच्छा किया कि तू गयी और हमें चेता गयी। तो जाने की तैयारी हम करें।

दुनिया में दो तरह की शिक्षाएं होनी चाहिए, अभी एक ही तरह की शिक्षा है। और इसलिए दुनिया में बडा अधूरापन है। बच्चों को हम स्कूल भेजते हैं, कालेज भेजते हैं, युनिवर्सिटी भेजते हैं, मगर एक ही तरह की शिक्षा है वहा—कैसे जीयो? कैसे आजीविका अर्जन करो? कैसे धन कमाओं! कैसे पद प्रतिष्ठा पाओ। जीवन के आयोजन सिखाते हैं। जीवन की कुशलता सिखाते हैं। दूसरी इससे भी महत्वपूर्ण शिक्षा है और वह है कैसे मरो? कैसे मृत्यु के साथ आलिंगन करो? कैसे मृत्यु में प्रवेश करो? वह शिक्षा पृथ्वी से बिलकुल खो गयी है। ऐसा अतीत में नहीं था। अतीत में दोनों शिक्षाएं उपलब्ध थीं।

इसलिए जीवन को हमने चार हिस्सों में बांटा था। पच्चीस वर्ष तक विद्यार्थी का जीवन, ब्रह्मचर्य का जीवन। गुरु के पास बैठना। जीवन को कैसे जीना है, इसकी तैयारी करनी है। जीवन की शैली सीखनी है। फिर पच्चीस वर्ष तक गृहस्थ का जीवन : जो गुरु के चरणों में बैठकर सीखा है उसका प्रयोग, उसका व्यावहारिक प्रयोग। फिर जब तुम पचास वर्ष के होने लगो तो तुम्हारे बच्चे पच्चीस वर्ष के करीब होने लगेंगे। उनके गुरु के गृह से लौटने के दिन करीब आने लगेंगे। अब बच्चे घर लौटेंगे गुरु—गृह से। अब उनके दिन आ गये कि वे जीवन को जीये। और जब बच्चे घर आ गये, फिर भी पिता और बच्चे पैदा करता चला जाये, तो यह अशोभन समझा जाता था; यह अशोभन है। अब बच्चे बच्चे पैदा करेंगे। अब तुम इन खिलौनों से ऊपर उठो।

तो पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ। वानप्रस्थ का अर्थ बड़ा प्यारा है; जंगल की तरफ मुंह इसका अर्थ होता है। अभी जंगल गये नहीं, अभी घर छोड़ा नहीं; लेकिन घर की तरफ पीठ और जंगल की तरफ मुंह यह वानप्रस्थ का अर्थ होता है। चले—चले, तैयार… जैसे कभी तुम यात्रा पर जाते हो, बिस्तर बोरिया सब बांध कर बस बैठे हो कि कब आ जाये बस, कि कब आ जाये गाड़ी यह वानप्रस्थ। पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ, ताकि अगर तुम्हारे बेटों को तुम्हारी कुछ सलाह की जरूरत हो तो पूछ लें। अपनी तरफ से सलाह मत देना। वानप्रस्थी स्वयं सलाह नहीं देता, लेकिन बेटे अभी नये नये गुरुकुल से लौटे हैं, अभी उन्हें बहुतसी व्यावहारिक बातें पूछनी होंगी, तांछनी होंगी। तुम्हारा मार्गदर्शन शायद जरूरी हो। तो अब पीठ कर के घर की तरफ रुके रहना कि ठीक है, कुछ पूछना हो तो पूछ पीछ लो।

फिर पचहत्तर वर्ष के तुम जब हो जाओगे, तो सब छोड़ कर जंगल चले जाना। वे शेष अंतिम पच्चीस वर्ष मृत्यु की तैयारी थे। उसी का नाम संन्यास था। पच्चीस वर्ष जीवन के प्रारंभ में, जीवन की तैयारी; और जीवन के अंत में पच्चीस वर्ष, मृत्यु की तैयारी।

आज दुनिया से मृत्यु की तैयारी खो गयी है। लोग मृत्यु की बात ही नहीं करना चाहते। मृत्यु की बात से ही मन तिलमिला जाता है, मन डरने लगता है। रास्ते पर निकलती अर्थी देखकर तुम बेचैन नहीं हो गये हो? वह बेचैनी इस बात की खबर है कि तुम्हें याद आ रही है, कि आज नहीं कल मेरी अर्थी भी उठेगी! यही लोग जो दूसरे को लिये जा रहे हैं, कल मुझे भी मरघट पहुंचा आयेंगे। आज कोई और चढ़ा है चिता पर, कल मैं भी चढूंगा।

ऐसा अगर तुम्हें दिखाई पड़ जाये, तो क्रांति हो जाये! मगर हम बड़े चालबाज हैं। हम इसको छिपा लेते हैं। हम धुआं खड़ा कर लेते हैं। अब कबीर, तुम धुआं खड़ा कर रहे हो।

तुम कहते हो : ज्योति मेरी बहन का देहांत हो गया। मैं बहुत दुख में हूं बहुत परेशानी में हूं सालों से प्रेम एवं ममत्व होने के कारण रोम  रोम में याद सताती है।

तुम झुठला रहे हो। तुम अपनी सारी बात को ज्योति पर आरोपित कर रहे हो कि न तू गयी होती, न मैं दुखी होता। तू क्या चली गयी, मुझे दुख में छोड़ गयी। तुम यह बात भुलाने की कोशिश कर रहे हो कि दुख ज्योति के जाने का नहीं है, दुख इस बात का है कि जाना पड़ेगा। दुख इस बात का है कि यह ज्योति सजग कर गयी तुम्हें कि मौत आती है; मेरी आ गयी, तुम्हारी भी आती होगी। देखो, मेरी आ गयी और मैं तो तुमसे कम उम्र की थी!
अब तुम इसको झुठलाओ मत।

तुम कहते हो कि प्रवचन सुनता हूं ध्यान करता हूं थोड़ी शांति अनुभव होती है।

वह शांति नहीं है, सांत्वना है। प्रवचन सुनने में भूल जाते होओगे, याद न रह जाती होगी। यह शांति नहीं है, यह तो विस्मरण है। यह तो वैसे ही है जैसे कोई सिनेमा में जाकर बैठ गया, तो दो घड़ी के लिए उलझ गया सिनेमा की कहानी में, तो अपनी कहानी भूल गयी; कि पढ्ने लगा कोई उपन्यास, जासूसी, सनसनीखेज, कि लग गया चित्त उसमें, तो अपनी चिंता भूल गयी; कि पी ली शराब, कि डूब गये थोड़ी मूर्च्छा में, कि भूल गयी अपनी आपाधापी। मगर कितनी देर? फिर लौट आओगे। आना ही पड़ेगा।

मरो है जोगी मरो 

ओशो 

जब कुंड़लिनी या सक्रिय ध्यान में ऊर्जा जाग्रत होती है, तो उसे नाचकर क्यों खत्म कर दिया जाता है?

अरे कंजूस!
 
 तुम भारत के सच्चे प्रतिनिधि मालूम होते हो! यह भारतीय बुद्धि का इतिहास है। कुछ खर्च न हो जाए! बस खर्च न हो, बचा बचाकर मर जाओ!

हर चीज में यह दृष्टि है, तुम इसे थोड़ा समझने की कोशिश करना। यह भारत के बुनियादी रोगों में से एक है: कंजूसी, कृपणता। कहीं खर्च न हो जाए। और मर जाओगे! तब यह कुंड़लिनी और यह ऊर्जा और यह सब पड़ा रह जाएगा। इस देश में अधिक लोग कब्जियत से परेशान हैं। डाक्टरों से पूछो, वे भी यही कहते हैं। भारत जितना कब्जियत से परेशान है, दुनिया का कोई देश इतना कब्जियत से परेशान नहीं है। यह कब्जियत आध्यात्मिक है। इसमें मनोविज्ञान है। हर चीज को पकड़ लो! मल मूत्र को भी पकड़ लो! और अगर ज्यादा आगे बढ़ जाओ, तो मोरारजी जैसा पी जाओ उसे वापिस। वह भी कंजूसी का हिस्सा है। कहीं निकल न जाए! कोई सारतत्व खो न जाए! ‘रि साइक्लिंग’। फिर डाल दो भीतर फिर फिर डालते रहो। उसको बिलकुल चूस लो। कुछ निकल न जाए! इसलिए तुम मल तक को पकड़ लेते हो भीतर उसको छोड़ते ही नहीं कुछ खर्चा हुआ जा रहा है। सड़ गये हो इसी में। इसलिए जीवन यहां फैल नहीं सका, सिकुड़ गया। हर बात में एक कृपणता छा गयी।

तुम जिसको ब्रह्मचर्य कहते हो, मेरे देखे, तुम्हारे सौ ब्रह्मचारियों में निन्यानबे सिर्फ कृपणता की वजह से ब्रह्मचर्य को स्वीकार कर लिये। कहीं वीर्य ऊर्जा खर्च न हो जाए! कंजूस हैं। एक ब्रह्मचर्य है जो आनंद से फलित होता है, ब्रह्म के शान से फलित होता है, वह तो बात अलग। मगर जिनको तुम आमतौर से ब्रह्मचारी कहते हो, ये ब्रह्मचारी सिर्फ कृपण हैं, कंजूस हैं। इनका सिर्फ भाव इतना ही है कि कहीं कुछ खर्च न हो जाए। ये मरे जा रहे हैं, हर चीज को रोक लो और सब पड़ा रह जाएगा! तुम्हारा वीर्य, तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारी कुंड़लिनी सब पड़ी रह जाएगी! सब मरघट पर जलेगी। और मजा यह है कि जो जितना रोकेगा उतना ही कम उसके पास ऊर्जा होगी, इस विज्ञान को ठीक से खयाल में ले लेना, क्योंकि कुछ चीजें हैं जो बांटने से बढ़ती हैं और रोकने से घटती हैं।
परमात्मा तुम्हारे साधारण अर्थशास्त्र को नहीं मानता। ऐसा समझो कि एक कुआ है, उसमें तुम रोज पानी भर लेते हो ताजा ताजा, तो नया ताजा पानी आ जाता है, झरनों से नया पानी आ रहा है। तुम अगर कुएं से पानी न भरोगे, तो तुम यह मत समझना कि कुएं में पानी के झरने बहते रहेंगे और कुआ भरता जाएगा भरता जाएगा और एक दिन पूरा भर जाएगा। कुएं में उतना ही पानी रहेगा। फर्क इतना ही रहेगा अगर तुम भरते रहे तो ताजा पानी आता रहेगा, कुएं का पानी जीवंत रहेगा। और अगर तुमने न भरा, तो कुएं का पानी सड़ जाएगा, मर जाएगा, जहरीला हो जाएगा। और जो झरने कुएं को पानी दे सकते थे, तुमने भरा ही नहीं, उन झरनों की कोई जरूरत नहीं रही, वे झरने भी धीरे— धीरे अवरुद्ध हो जाएंगे। उन पर पत्थर जम जाएंगे, कीच जम जाएगी, मिट्ठी जम जाएगी; उनका बहाव बंद हो जाएगा। तुमने हत्या कर दी कुएं की।

मनुष्य एक कुआ है। जैसे हर कुआ सागर से जुड़ा है, नीचे झरनों से, दूर विराट सागर से जुड़ा है, जहां से सब झर—झर कर आ रहा है, ऐसे ही मनुष्य भी कुआ है और परमात्मा के सागर से जुड़ा है। कंजूसी की यहां जरूरत ही नहीं है। लेकिन प्रेम में आदमी ड़रता है कि कहीं खर्चा न हो जाए। छोटेमोटे आदमियों की तो बात छोड़ दो, सिग्मंड़ फ्राँयड़ जैसा आदमी भी यह लिखता है कि बहुत लप्तेगें को प्रेम मत करना नहीं तो प्रेम की गहराई कम हो जाएगी। जैसे एक को प्रेम किया तो ठीक; फिर दो को किया तो आधा आधा बंट गया, फिर तीन को किया तो एक बटा तीन मिला एक एक को। ऐसे पचास सौ आदमियों के प्रेम में पड़ गये कि बस फैल गया सब। बहुत पतला हो जाएगा, गहराई न रह जाएगी।

फ्राँयड़ बिलकुल नासमझी की बात कह रहा है।

फ्राँयड़ यहूदी था। वह यहूदी कंजूसी उसके दिमाग में सवार है! तुम जितना प्रेम करोगे, उतना ज्यादा तुम प्रेम पाओगे। उतना प्रेम करने की क्षमता बढेगी। उतनी प्रेम की कुशलता बढ़ेगी। और जितना तुम प्रेम लुटाते रहोगे, उतना तुम पाओगे परमात्मा से नये— नये झरने फूट रहे हैं और प्रेम आता जाता है। दो और तुम्हारे पास ज्यादा होगा। रोको और तुम कृपण हो जाओगे और कंजूस हो जाओगे और सब मर जाएगा, सब सड़ जाएगा। और ध्यान रखना, जो चीज बड़ी आनंदपर्णू है बांटने में, अगर रुक जाए, सड़ जाए, तो वही तुम्हारे लिए रोग का कारण बन जाती है। जिन लोगों ने प्रेम को रोक लिया है, उनका प्रेम ही रोग बन जाता है, कैंसर बन जाता है।

अब तुम आ गये हो यहां भूल से आ गये। तुम गलत जगह आ गये। यहां मैं उलीचना सिखाता हूं। यहां मैं बांटना सिखाता हूं। यहां मैं खर्च करने का आनंद तुम्हें सिखाना चाहता हूं। और तुम पूछते हो, जब कुंड़लिनी या सक्रिय ध्यान में ऊर्जा जाग्रत होती है तो उसे नाचकर क्यों खत्म कर दिया जाता है? नाचने से ऊर्जा खत्म नहीं होती है। नाचने से ऊर्जा निखरती है। नाचने से ऊर्जा बंटती है। और जितनी बंटती है, उतनी तुम्हारे भीतर पैदा होती है। जितना सृजनात्मक व्यक्ति होता है उतना शक्तिशाली व्यक्ति होता है। तुमने अगर एक गीत गाया तो तुम दूसरा गीत गाने में समर्थ हो जाओगे। और दूसरा गीत पहले से ज्यादा गहरा होगा। फिर तुम तीसरा गीत गाने में समर्थ हो जाओगे, वह उससे भी ज्यादा गहरा होगा। जैसे जैसे गीत गाते जाओगे वैसे तुम पाओगे नयी तले उघड़ने लगी, नयी गहराइयां प्रकट होने लगीं, तुम्हारे भीतर नये आयाम छूने लगे।!

अथातो भक्ति जिज्ञासा 

ओशो 

एक मित्र ने पूछा है कि आप जो कह रहे हैं वह बात समझ में भी आती है, और समझ में आती भी नहीं, तो क्या करें?

उनका प्रश्न मूल्यवान है। ऐसी सभी की प्रतीति होगी। क्योंकि समझ के दो तल हैं। एक तो जो मैं कहता हूं वह आपकी बुद्धि की समझ में आ जाता है, आपकी बुद्धि को युक्तिपूर्ण लगता है, आपकी बुद्धि को प्रतीत होता है कि ऐसा होगा।

यह समझ ऊपर ऊपर है। यह समझ प्राण के भीतर तक नहीं उतर सकती। यह समझ आपके पूरे व्यक्तित्व की समझ नहीं है ,आत्मिक नहीं है। इसलिए ऊपर से समझ में आता हुआ लगेगा। और जब तक यहां बैठ कर सुन रहे हैं, तब तक ऐसा लगेगा, बिलकुल समझ में आ गया। फिर यहां से हटेंगे और समझ खोनी शुरू हो जाएगी। क्योंकि जो समझ में आ गया है, वह जब तक साधा न जाए, तब तक आपके प्राणों का हिस्सा नहीं हो सकता। जो समझ में आ गया है, जब तक वह आपके खून, मांस, मज्जा में सम्मिलित न हो जाए, तब तक वह ऊपर से किए रंग रोगन की तरह उड़ जाएगा।

फिर, जो समझ में आ गया है, उसके भीतर आपकी पुरानी सब समझ दबी हुई पडी है। जैसे ही यहां से हटेंगे, वह भीतर की सब समझ इस नई समझ के साथ संघर्ष शुरू कर देगी। वह इसे तोड़ने की, हटाने की कोशिश करेगी। इस नए विचार को भीतर प्रवेश करने में पुराने विचार बाधा देंगे, अस्तव्यस्त कर देंगे; हजार शंकाएं, संदेह उठाएंगे। और अगर उन शंकाओं और संदेहों में आप खो जाते हैं, तो वह जो समझ की झलक मिली थी, वह नष्ट हो जाएगी।

एक ही उपाय है कि जो बुद्धि की समझ में आया है, उसे प्राणों की ऊर्जा में रूपांतरित कर लिया जाए; उसके साथ हम एक तालमेल निर्मित कर लें। हम उसे साधें भी, वह केवल विचार न रह जाए, वह गहरे में आचार भी बन जाए; न केवल आचार, बल्कि हमारा अंतस भी उससे निर्मित होने लगे। तो ही धीरे धीरे, जो ऊपर गया है, वह गहरे में उतरेगा, और साधा हुआ सत्य, फिर आपके पुराने विचार उसे न तोड़ सकेंगे। फिर वे उसे हटा भी न सकेंगे। बल्कि उसकी मौजूदगी के कारण पुराने विचार धीरे धीरे स्वयं हट जाएंगे और तिरोहित हो जाएंगे।

अध्यात्म उपनिषद 

ओशो 

मुल्ला नसरुद्दीन एक मरघट के करीब से गुजर रहा है....

 .. साझ हो गई है और डर उसे लग रहा है। गांव अभी दूर है। तभी उसने देखा कि दूर से कुछ लोग चले आ रहे हैं, बैंड बाजे हैं। वह डरा और भी, कोई लुटेरे तो नहीं हैं! दीवार थी मरघट की, छलांग लगाकर उस तरफ चला गया कि छिप जाए। नई कोई कब खुदी थी, अभी आया तो नहीं था मेहमान उस कब का। सोचकर कि इसमें लेट जाए यह भीड़भाड़ निकल जाए उपद्रवियों की जो बाहर से गुजर रहे हैं, फिर अपने घर लौट जाएगा, उसमें लेट गया। रात सर्द थी, थोड़ी देर में हाथ पैर ठंडे होने लगे। किताब में पढ़ा था उसने कि आदमी जब मरता है, तो हाथ पैर ठंडे हो जाते हैं। सोचा कि गए। मर गए। जब सोचा कि मर गए तो हाथ पैर और ठंडे होने लगे।

तभी उसे खयाल आया, लेकिन अभी सांझ का भोजन नहीं किया। कम से कम भोजन तो कर ही लेना चाहिए मरने के पहले। तो वह उचककर कब के बाहर निकला। दीवार कूदकर अपने घर की तरफ भागता था, तो वहां वह जो यात्री दल आया था, उसने अपने ऊंट बांधे थे, वह विश्राम की तैयारी कर रहा था। उसके कूदने से ऊंट भड़क गए, भगदड़ मच गई, लोगों ने उसकी पिटाई की।
पिटा कुटा घर पहुंचा। पत्नी ने कहा, बड़ी देर लगाई, कहां रहे? मुल्ला ने कहा, यह कहो किसी तरह लौट आए। मर गए थे। पत्नी मन में तो हंसी, फिर भी उसने जिज्ञासावश पूछा कि मर गए थे, मरने का अनुभव कैसा हुआ! मुल्ला ने कहा, मरने में तो कोई तकलीफ नहीं, अनलेस यू डिस्टर्ब देअर कैमल्स। जब तक उनके ऊंटों को तुम गड़बड़ मत करो, तब तक तो बड़ा शांत। लेकिन ऊंट गड़बड़ करो कि सब गड़बड़, बड़ी पिटाई होती है। तो अगर तू मरे, तो एक बात का ध्यान रखना, मुल्ला ने अपनी पत्नी से कहा कि ऊंट भर गड़बड़ मत करना। मौत में तो कोई खतरा ही नहीं है। हम पूरा अनुभव करके आए, कब में लेटकर आ रहे हैं। वह तो हम लौटते भी नहीं, लेकिन सांझ का खाना नहीं लिया था, इसलिए लौट आए। तो एक ध्यान रखना सदा, ऊंट कभी गड़बड़ मत करना।
 
अप्रासंगिक जो है, इरेलेवेंट जो है, जिसकी कोई संगति भी जीवन की धारा से नहीं है, वह भी पकड़ जाता है। और हमारे भीतर कॉज़ और अफेक्ट बन जाता है। ऐसा लगता है कि कार्य और कारण का संबंध है। ऊंट का और मौत से कोई लेनादेना नहीं, लेकिन सिलसिला तो है। मुल्ला ने जिसे मृत्यु समझी उसी के बाद ऊंट गड़बड़ हुए और वह पिटा। मन ने सब पकड़ लिया और सबका तादात्म्य हो गया। सब इकट्ठा जुड गया। जिंदगीभर हम इसी तरह की चीजें जोड़े चले जाते हैं, जोड़े चले जाते हैं। आखिर में यह जो संघट हमारे पास इकट्ठा हो जाता है, यह जो लंबी फिल्म इकट्ठी हो जाती है, इसमें दर्पण जैसा कुछ भी नहीं होता। सब गंदा होता है, सब बिगड़ गया होता है, सब पर धूल जम गई होती है।

निर्वाण उपनिषद 

ओशो 

यारी मेरी यार की 3

कहानी अब नर्मदा के पात्र की तरह गहरी हो चली थी: इसके बाद फौरन पैंतरा बदलकर ओशो कहते है मैं जाता हूं। तू भी मेरे साथ चल। मैंने कहा, आपकी छोटी गाड़ी है, पहले ही इतने सारे लोग बैठे है, आप निकलो, मैं पीछे-पीछे आ रहा हूं। तो वे बोले, अच्‍छा एक काम कर, तेरे बेटे शेखर को मेरे साथ भेज दे। लेकिन मैं नहीं माना। मेरी यही रट कि मैं आपके पीछे आ रहा हूं।

ऐसा अक्‍सर होता है। ओशो की त्रिकालदर्शी आंखे कुछ और ही देखती है और हम आँख के अंधे उस होनी से बेखबर होकर ओशो से बहस करने लगते है। लेकिन वे अपनी अहिंसक पारदर्शिता हम पर थोपते नहीं है। उनका आदेश हमेशा होनी और अनहोनी के बीच एक नाजुक सुझाव की तरह नि:सारित होता है—मानों या न मानों, यह तुम्‍हारी स्‍वतंत्रता है।

आखिर मैं नहीं माना। ओशो जाते-जाते बार-बार जता गए कि चार बजे से पहले सागर पहुंच जाना। हम एक घंटे के बाद ही निकलने वाले थे। लेकिन मेरे वे राइटर महोदय न जाने कहां गायब हो गये। लिखना-विखना दूर, वे तो हर दम गांजा पीकर धुत पड़े रहते थे। उनको ढूँढ़ते-ढूंढते निकलते हम लोगों को देर हो गई। तीन घंटे बाद हम लोग जैसे-तैसे जीप में बैठे। जीप गेट से निकली, दायी और मुड़कर मेन रोड पर आयी ही थी कि सामने से एक फूल स्‍पीड से आती हुई बस से धड़ाम से टकरा गई। जीप के तो चीथड़े-चीथड़े हो जाने थे लेकिन मैं क्‍या देखता हूं, जीप सही सलामत खड़ी है। सिर्फ उसका एक चक्‍का सूँ करके निकला और पाँच सौ फिट जाकर दूर गिरा, जीप में जितने लोग थे, किसी को खरोंच तक नहीं आई। लेकिन बस ढुलकती हुई पुल के नीचे पंद्रह फीट पर जा गिरी। शुक्र है खुदा का। थोड़ी और नीचे जाती तो पानी में गिर जाती। बस के सब आदमी घायल हो गए। सब जगह चिल्‍लोचोंट मच गई। पूरी सड़क खून से रंग गई।

और वहां सागर में चार बजने के बाद ओशो मुझे बार-बार याद कर रहे थे। रह-रह कर क्रांति से पूछते, सुखराज नहीं आया। सुखराज नहीं आया? उससे कहा था, चार बजे तक पहुंच जाना। आखिर मैं जब छह बज गये तो ओशो बोले, फंस गया सुखराज।

उस रात फिर हमारी नींद गायब। वहीं घर, वही जंगल, वैसी ही रात लेकिन कितना फर्क पड़ गया था। रात इतनी तप रही थी जैसे लपटों में बिठा दिया हो। नर्क की कहानी सुनते है न। कि वहां कड़ाहों में तलते है, वैसे तले जा रहे थे हम। सारा वायुमंडल ही उत्‍तप्‍त हो गया था। बार-बार ओशो के शब्‍द याद आने लगे। ‘’It is not a genius Work”
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यह अप्रैल-मई की बात है। और उस बरसात में क्‍या तमाशा हुआ वह सुनने जैसी बात है। उस साल नर्मदा में ऐसी बाढ़ आई जैसी कई वर्षों में नहीं आई थी। हमारा मकान तो नर्मदा के तट पर ही बना था। पानी बढ़ता गया, बढ़ता गया….इतना बढ़ गया की पुल और बाँध टूट गये। नर्मदा मैया फुफकारती हुई मेरे आंगन में चली आई। गराज में जितने भी ट्रक, जीपें खड़ी थी, सब एक क्षण में बह गई। उनके अस्थिर पंजर भी देखने को नहीं मिले।

नर्मदा की बाढ़ की तरह सुखराज जी बहे जा रहे थे, उनको पता नहीं था कि उस धाराप्रवाह में वे कितना बड़ा सत्‍य कह रहे थे, ‘’आपको विश्‍वास हो या न हो, लेकिन पानी बढ़ते-बढ़ते उस बिंदु तक आ गया जहां ओशो जी का पलंग बिछा था। बस उस स्‍थान को छूकर पानी उतरने लगा। मनुष्‍य को समझने में देर लग रही है लेकिन नर्मदा को देर नहीं लगी वह जानने में कि कोई बुद्ध यहां आया था।

उस साल न जाने कैसी विचित्र बाढ आई कि जहां-जहां भी सुखराज जी ने पूंजी लगाई हुई थी वह सब उस सर्वभक्षी जल में स्‍वाहा हो गई। कोई 10-12लाख रूपये शब्दशः: पानी में डूब गये। उस भयंकर विप्‍लव के बीच खड़े सुखराज जी के भीतर से सवाल उठा, बोल सुखराज, इसे सुख ले लेता है कि दुःख में। और दूसरे ही क्षण जैसे कोई आवाज आई, ‘’सुख में कह दे, सुख में।‘’ उस क्षण पता नहीं कौन घेरे हुये था चारों और से।

यह उत्‍तर बबूले कि तरह ह्रदय में उठा और सुखराज जी खिलखिलाकर हंस पड़े। उनकी हंसी सुनकर पत्‍नी घबराकर दौड़ी चली आई कि कहीं इनके दिमाग में असर तो नहीं हुआ। उसे देखते ही सुखराज जी ने वही सवाल दोहराया: बोल इसको सुख में लेती है कि दुःख में।

आप कैसे लेते है।
हम तो मौज मनायेंगे।

तो फिर मैं भी आपके साथ हूं, अर्धांगिनी का समुचित जवाब आया।

और सुखराज जी ने सचमुच हलवा पूड़ी बनवाई , पाँच ब्राह्मणों को बुलाया और धूमधाम से त्‍योहार मनाया। ओशो के सतधारा आने का मतलब अब उनको साफ हुआ। इससे कि ओशो अपना विश्‍वरूप धारण करते, उन्‍हें अपने इस नादान दीवाने को अपने पंखों में समेट लेना था। संपूर्ण विनाश के बीच खड़े सुखराज जी की यह उन्‍मुक्‍त खिलखिलाहट वस्‍तुत: उनके अंतर में खिले हुए संन्‍यास का फूल था। इस घटना के ठीक एक साल बाद मा आनंद मधु की कीर्तन मंडली निकली और उनके साथ ओशो ने दो मालाएँ और दो कागजों पर लिखे हुए नाम भेजे: स्‍वामी सुखराज भारती और मा योग भारती।

यार ने अपनी यारी निभाते हुए दुनिया की सबसे बड़ी सौगात अपने याद की झोली में डाल दी थी।

समाप्त 

स्‍वामी सुखराज भारती


 

यारी मेरी यार की 2

एक बार रजनीश बोले, ‘’यार सुखराज, अपन तो ऊब गये है यहां रहते-रहते। अपन तो चलें कहीं और। ये कहां की झंझट में पड़े है, रोज खाना खाओ, पानी पीओ, यह करो, वह करो।‘’ सुखराज जी की आंखों में एक चित्र उभर आया।
‘’मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया कि कहां चलने की बात कर रहे है। मैंने पूछा, क्‍या कह रहे हो यार? कहां चले अपन?’’
रजनीश बोले: अपन तो ऊपर चलते है, वहां बहुत मजा है। बड़े सुंदर महल है और यह है, वह है…..न जाने कितने लालच दिखायें। बोले, ‘’वहां कुछ करना नहीं पड़ता, सब अपने आप हो जाता है। वहां बहुत बढ़िया जगत है।‘’ मेरा मन तो भरमा गया। एक तो हम वैसे ही अक्ल के दुश्‍मन। और फिर यह रजनीश कब कौन सी बात उठा दे, इसका कोई ठीकाना नहीं। लेकिन मेरे ह्रदय में हमेशा एक भाव था कि तुम जो कह रहे हो, हमे सब स्‍वीकार है। उनके कहने भर की देर थी कि हम तैयार।
‘’तो इस बात के लिए भी हम तैयार हो गये। लेकिन एक सवाल उठा, ‘’हम दोनों ऊपर चले जायेंगे तो घर वाले क्‍या करेंगे? वो लोग तो ढूंढा-ढाढ़ी मचायेंगे। परेशान होंगे।
‘’ उसका भी मैंने इंतजाम कर लिया है। ओशो ने बड़े आत्‍मविश्‍वास के साथ कहां, ‘’हम यहां डूप्लीकेट सुखराज और डूप्लीकेट रजनीश छोड़ कर जायेगे। किसी को पता भी नहीं चलेगा कि हम वो ही है कि दूसरे है।‘’
‘’आपके मन में संदेह नहीं उठा कि यह संभव है भी या नहीं? मुझे इन बाल योगियों की योजना में बड़ा रस आ रहा था।
‘’कहां का संदेह साब, रजनीश ने कह दिया इत्‍ता काफी है। बस, फिर पूरी योजना तैयार हो गई कि कल रात आठ बजे चलना है। इसी जगह ऊपर से कोई दिव्‍य यान आयेगा। हम दोनों उसमें बैठकर ऊपर चले जायेंगे और पीछे अपने डूप्लीकेट छोड़ जायेंगे।
‘’लेकिन एक शर्त है, भगवान ने कहा, ‘’किसी से कहना नहीं। कह देंगे तो सब बात बिगड़ जायेगी। मैंने कहा, ‘’बिलकुल ठीक। नहीं कहेंगे। लेकिन बात मन में समाई नहीं।‘’ सुखराज जी जोर से हंसते हुए बोले। आज 45 वर्षों के बाद भी उस रहस्‍य की स्‍मृति से ही उन्‍हें गुदगुदी हो रही थी। उसकी स्‍मृति ही उनके भीतर नहीं समा रही थी। तो वह बात तो क्‍या समाई होगी। वह उनके भीतर उछलती रही।
‘’ओशो ने ऐसा चक्‍कर चला दिया था कि मैं बिलकुल अभिभूत हो गया सारी बात से। इतनी बड़ी बात मन में रखना—मेरा तो पेट फूल गया। जैसे-जैसे सुबह हुई। सूरज निकला बात मेरी बरदाश्त के बहार हो रही थी। मज-दतौन कर रहा था। मां चाय बना रही थी। मैंने कहा मां मैं जा रहा हूं…
‘’कहां जा रहे हो? मां चाय में उलझी हुई थी।
‘’यह तो पता नहीं लेकिन मैं जा रहा हूं—सदा के लिए।‘’
‘’क्‍या ? दिमाग तो खराब नहीं हो गया तेरा?’’
‘’अब अगली बात तो इससे भी रोचक थी। उसे पेट में रखना भी मुश्‍किल था। वह मैंने उगल दी। सो तू चिंता मत कर मां, मैं डूप्लीकेट सुखराज छोड़ कर जाऊँगा तेरे पास। तू मेरी कमी महसूस नहीं करेगी। मैंने बड़े विश्‍वास के साथ कहा।‘’
‘’अब तो मां को लगा कि सचमुच पगला गया है। यह लड़का। उसने कोई ध्‍यान नहीं दिया। खैर साहब, हम ठीक आठ बजे रात को पहुंचे। तो ओशो ने पूछा किसी से कहा तो नहीं? मैंने कहा, सिर्फ मां से कहा है, तब तो मुश्‍किल हो गई बात, यहीं तो बात खराब कर दी तुने, सब गड बड हो गया। अब जो उपर से जहाज आने वाला था वह नहीं आयेगा। क्‍योंकि तुने बात कह दी….सब खराब कर दिया।

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नौवीं कक्षा से कुछ विषय आवश्‍यक हो गए थे, रामपाल सिंह नाम था उसका। उनको बच्‍चों से बड़ा प्रेम था। वे हमारे खेलकूद के शिक्षक भी थे। अब ड्रॉईंग टीचर को कुछ करना नहीं पड़ता था। आम-इमली बनाना है, और क्‍या। वो तो कक्षा में आते थे और बोलते थे, सब सिखा देंगे तुमको आखिरी महीने में। रजनीश, इधर आओ और कहानी सुनाओ। अब ड्रॉईंग की क्‍लास लगी है और रजनीश की कहानी चल रही है। उस समय की जो किताबें थी चंद्रकांता और संतति, भूतनाथ इनको पढ़-पढ कर सुना रहे थे। और उनका स्टाक खत्‍म हो गया तो अपने ही मन से बना-बना कर सुना रहे थे। क्‍लास में ऐसे मजे हो रहे थे साहब।‘’
‘’इक्‍कीस मार्च, 1953 के दिन ओशो के भीतर विस्‍फोट हुआ और वे बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हुए। चूंकि आप उनसे निकटतम थे, उस घटना के बाद आपको उनमें कोर्इ पर्क दिखाई दिया?
सुखराज जी थोड़ा अंतर्मुखी हुए, ‘’ओशो ने कोई फर्क नहीं मालूम पड़ने दिया। वहीं के वहीं, वैसे के वैसे चल रहा है। इस समय वे खादी की धोती और कुर्ता पहनते थे। ढीली धोती, पीछे से लाँग लगी हुई। और लाँग जमीन पर झूमती हुई जा रही है। अब पीछे मूड कर देखता हुं तो याद आत है, एक अजीबोगरीब रौनक चल रही थी उनके भीतर। उनके भीतर के परिवर्तन का तो कोई पता नहीं, पर अपने एक परिर्वतन के बारे में बतला दूँ। करीब-करीब इसी समय से मैं उनको पैर छूकर प्रणाम करने लगा। हालांकि कह, ‘’भैया’’ ही रहा हूं। दोस्‍त तो जी ही रहा है। पहले पाँव छू रहा हूं, फिर बगल में बैठकर सिगरेट भी पी रहा हूं। शराब भी पी रहा हूं। लेकिन मुझे लगता है पीछे भी बुद्ध पुरूष हुए होंगे, लेकिन पहचानने का कोई उपाय नहीं है कि यह आदमी बुद्ध हो गया।
अब यहां से ओशो का शिखर ऊपर उठने लगा। उनका भारत भ्रमण शुरू हो गया। जगह-जगह घूमकर प्रवचन करना, लोगों को जगाना, ध्‍यान-शिविर, यह सब खेल शुरू हुआ।
‘’तो इस दौर में क्‍या आप दोनों के बीच कुछ दूरी पैदा हो गई?’’
‘’बिलकुल नहीं साहब, छूटते ही सुखराज जी बोले, दुनिया का स्‍वागत हो न हो, सुखराज का स्‍वागत तो हो ही रहा था ओशो के पास। अब भैया जबलपुर में प्रोफेसर हो गये थे। मैं जब भी उनसे मिलने जाता—वहीं खनक भरी हंसी, ‘’आओ सुखराज’’ वहीं गले मिलना। हां जब वे यात्रा पर होते तो मिलने-झुलने का सवाल ही नहीं था। लेकिन तब बंबई बहुत आ-जा रहे थे। और मेल गाडरवारा से गुजर ही रही है। जैसे ही पता चला, हम सब काम-काज छोड़कर स्‍टेशन चले आ रहे है। उनके डिब्‍बे में बैठकर सफर भी कर रहे है।
क्‍या बताऊ.., अपनी नादानी में कभी-कभी ऐसा कष्‍ट दिया है ओशो को। वो गाडरवारा से जाना चाह रहे है। उन्‍हें जबर्दस्‍ती रोक लिया, यार दोस्‍तों की महफिल में बिठा लिया। हम मो दोस्‍त ही मान कर चल रहे थे। यह देख ही नहीं रहे थे कि चह कोई दूसरा आदमी हो गया है। और वो हमारी बात मानते थे इसलिए लोग हमें ही आगे कर देते थे। लेकिन वो ऐसे क्षमावान है कि हमें कभी हमारी नासमझी का अहसास नहीं दिलाया।‘’
खुदा जब दोस्‍त बन कर आता है तो उस दोस्‍ती की जलवानुमाई का क्‍या कहिए। उस दोस्‍ती के पारस स्‍पर्श से खुदी खुदाई बन जाती है। बचपन का दोस्‍त रजनीश आचार्य बन चुका था और ओशो बनने की देहरी पर खड़ा था। लेकिन यह वैश्‍विक उड़ान भरने से पहले वह अपने शैशव काल के मुँहबोले हमराज़ को इस दौर में भी अपना हमसफर बनाना चाहता था। यह वीं प्रेम सगाई थी जिससे बंध कर कृष्‍ण ने दुर्योधन के राजसी मेवे त्याग कर विदुर की झोपड़ी में साग रोटी खायी थी

क्रमश अगली पोस्‍ट में……
सुखराज

यारी मेरी यार की 1

‘’ओशो सीधे दूसरी कक्षा में भर्ती हुए। वह जब कक्षा में आये तो क्‍लास लग चुकी थी। जूट की पट्टियाँ बीछी थी। लड़के अपनी-अपनी जगह बैठे हुए थे। इतने में एक सांवला सा लड़का अपने चाचा के साथ दरवाजे पर आकर खड़ा हुआ। उसकी उम्र होगी कोई नौ-साढ़े नौ वर्ष की। घने घुंघराले बाल, बड़ी-बड़ी आंखे, निर्भीक मुद्रा। आते ही उसने पूरी कक्षा पर एक नजर घुमाई। उसे देखते ही मेरा मन चाहा कि इस लड़के से मेरी दोस्‍ती होनी चाहिए। और आश्‍चर्य पूरी क्लास का निरीक्षण कर वह लड़का मेरा चुनाव करता है। वह जैसे ही मेरे पास आत है, मैं खिसक कर उसके लिए जगह बनाता हूं।
वह लड़का मेरे पास आकर बैठ जाता है। मैं नाम पूछता हूं, तुम्‍हारा नाम क्‍या है?
रजनीश। तुम्‍हारी?
सुख राज। चलो, आज से हम दोस्‍त हो गये।
और हम दोनों ने अंगूठे से अंगूठा मिलाया और अपना-अपना अंगूठा चूम लिया। इसका मतलब हुआ अब यह बंधन अटूट हुआ।
फिर रजनीश ने अपना बस्‍ता खोला, उसमें से स्‍लेट निकाली। क्‍या बढ़िया स्‍लेट थी। मैं तो ईर्ष्‍या से भर गया। मेरी स्‍लेट तो बिलकुल घटिया थी। मास्टर जी थोड़ा इधर-उधर हो गये तो हमारी बात शुरू हुई।
रजनीश ने पूछा, तुम्‍हें क्‍या आता है?
हमको तो कुछ भी नहीं आता।
चित्रकारी आती है?
हमने कहा: नहीं आती।
मुझे आती है।
कुछ बनाकर दिखाओं तो जाने।
और पलक झपकते ही घोड़ा बन गया। फिर देखते ही देखते गाय बन गई। मैंने सोचा, इसको कोई कठिन विषय देना चाहिए। गाय-घोड़ा तो क्‍या कोई भी बना सकता है। मैंने उससे कहा, एक बैलगाड़ी बनाओ, जिसमें गाड़ीवान बैठा हो और गाड़ी को छत भी हो। और इधर मैंने कहा नहीं और उधर खटाखट-खटाखट बैलगाड़ी बनकर तैयार हो गई। हमने कहा, वाह यार, तुम तो बड़े होशियार हो।

मैं उसकी बुद्धि से बड़ा प्रभावित हुआ। और इसके साथ-साथ गर्व भी महसूस हुआ की ऐसा लड़का मेरा दोस्‍त है।
फिर शाम को स्‍कूल खत्‍म होने पर हम दोनों ने एक-दूसरे को अपना-अपना घर दिखाया। और हम दोनों के बीच यह तय हुआ कि दोनों साथ जाएंगे साथ आयेंगे। स्‍कूल के खत्‍म होने पर साथ खेलेंगे।

अब दोपहर की छुट्टियों में हम घर जाकर, कुछ खा-पीकर फिर स्‍कूल आते थे। आते वक्‍त ओशो के घर जाकर, उसको साथ लेकर स्‍कूल वापस आते थे। एक दृश्‍य जो मुझे सदा ख्‍याल में रहा है वह यह था कि मैंने ओशो को कभी अपने हाथों से खाना खाते नहीं देखा। 10-12साल की उम्र तक उनकी मां या नानी उन्‍हें खिलाती थी। और दोपहर में वे हमेशा दूध-रोटी खाते थे। मैं उनके घर जाता हूं और देखता हूं, ओशो बैठे है पालथी लगाकर और उनके मुंह में कौर दिये जा रहे है।

तो तब आपको यह दृश्‍य अजीब नहीं लगता था।

अब कौन जाने क्‍या लगता था। क्‍योंकि ओशो के साथ ऐसे-ऐसे अजीब दृश्‍य देखने को मिले है कि वह दृश्‍य तो बिलकुल धुल गया उनके सामने। और ओशो की क्‍या कहें। वे जो करें सो थोड़ा है। सुख राज जी ने अपने उसी सहज अंदाज में कहा।

यादों के भंडार में से किसी चिनगारी को कुरेदते हुए सुख राज जी कहने लगे, ओशो दूसरी हिंदी बहुत अच्‍छी पढ़ते लगे थे। मुझे ठीक से पढ़ना नहीं आता था। मैं अटक-अटक कर पढ़ता था। और वे जाने कहां-कहां से कहानियों की किताबें लाते थे और बोलते, सुख राज यह देख कितनी अच्‍छी कहानी है। हम कहते सुनाओ यार। वे कहते, चलो बग़ीचे में चलें। स्‍कूल के पीछे एक बग़ीचा था। उसमें चले गये। उसमें बिही के पेड़ के नीचे दोनों बैठ गये। सुन रहे है। सुनते-सुनते अपने को थोड़ी अलाली आ गई तो उनकी गोदी में लेट गया और रजनीश पेड़ से पीठ टिकाकर बैठे किताब पढ़े चले जा रहे है।

कहते-कहते सुख राज जी गाडरवारा की उस नीरव दुपहरी में फिर से लौट गये। तब उन्‍हें क्‍या पता था कि वह साक्षात परब्रह्म की गोदी में विश्राम कर रहे थे। लेकिन उस धन्‍य भागी बिही के पेड़ और निःशब्द आकाश ने इस निर्मल प्रेम की छवि निश्चित ही अपने अंतस में अंकित कर ली होगी।

उन दिनों सुख राज और रजनीश का यह अटूट नियम था कि सांझ होने से पहले खाना खा लिया और फिर सुख राज के घर अनाज मंडी में 10-15 बच्‍चे खेलने के लिए इकट्ठे हो गये।

बुद्ध कक्ष की तरफ इशारा करके सुख राज कहने लगे, यह महफिल आज जमी नहीं, यह बड़ी पुरानी है। हम 9-10 साल के थे तब की बात है। हमारा रोज का नियम था। शाम को एक डेढ़ घंटा खूब खेलना। और फिर जैसे ही खेल खत्‍म फारिग हुए, आ गये हमारे गोदाम में, वहां बोरे-मोर लगे थे। सब बच्‍चे अनाज के बोरों पर बैठ गये। एक बोरे पर रजनीश बैठे है। पहले बोलेंगे सुख राज एक गिलास पानी। मैं भाग कर घर से पानी ले आता। न जाने क्‍या, मुझे बड़ी खुशी होती थी पानी लाने में। और बस, फिर रजनीश शुरू। अब शुरू यानी शुरू। एक घंटे तक तो बीच में कोई बोल नहीं सकता।

बुद्ध सभागार के उस निपट देहाती, अनगढ़ रूप को मनश्चक्षु से देख मुझे बड़ी पुलक महसूस हो रही थी। अनाज मंडी में बोरों पर बैठी हुई वह बाल सभा आज के बुद्ध कक्ष से क्‍या कम शानदार थी?

लेकिन ये 9 वर्ष के बुजुर्ग प्रवचनकर्ता बात क्‍या करते थे?

बात चाँद-तारों की हो रही थी साब कि दूर आकाश में ऐसा है, और वैसा है। और अपने पृथ्‍वी के लोग यहां रह रहे है। अब डीटेल तो कोई याद नहीं रह गई। लेकिन इतना याद है कि हम भौंचक्का होकर सुनते थे—जैसे आज यहां पर सुनते है न, ठीक वैसे ही, और एक सिटिंग में एक कहानी तो पूरी नहीं होती थी। जैसे यहां सतत बोलते है। आज जहां खत्‍म किया कल वहीं से चालू हो गये। सुख राज कल हम कहां थे…..ओर यह सिलसिला तब से आज तक चला आ रहा है। र्निबाद्ध बिना रुके। ऐसा कभी नहीं हुआ कि रजनीश गाडरवारा में हों और शाम को उनका भाषण न हुआ हो। विषय बदलते गये। श्रोता बदलते गये। सभी का रूप बदलता गया लेकिन कार्यक्रम वही का वही।

बचपन की बातें बताते-बताते सुख राज जी का बचपन फिर लौट आया था। अब हम ओशो कम्‍यून में नहीं राम घाट पर बैठे थे। उनके सामने वही दस साल का शरारती रजनीश खड़ा है और वे उससे फिर लड़-झगड़ रहे है। उनका बोलने का खास प्रादेश लहजा उस माहौल को एक जीवंतता प्रदान कर रहा था।


यारी मेरे यार की (ओशो-सुखराज )

क्रमश अगली पोस्‍ट में……

संयम

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी को लेकर हवाई-अड्डे पर गया। वहां सौ रुपये में पूरे गांव का चक्कर लगवाने की व्यवस्था थी। अनेक लोग उड़े, वापिस लौट गये, पायलट देखता रहा कि मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी दोनों खड़े विचार करते हैं; हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। सौ रुपया! जब कोई भी न रहा और सारे उड़नेवाले जा चुके तो वह पायलट उतर कर आया और उसने कहा कि कंजूस मैंने बहुत देखे। अब तुम कब तक सोचते रहोगे? बंद होने का समय भी आ गया।

दोनों नसरुद्दीन पति-पत्नी एक दूसरे की तरफ देखने लगे। बड़ी आकांक्षा कि एक दफा हवाई जहाज में उड़ लें; लेकिन सौ रुपये को छोड़ना!

आखिर पायलट को दया आ गई। उसने कहा, तुम एक काम करो। मैं तुम्हें मुफ्त घुमा देता हूं, लेकिन एक शर्त है। और वह शर्त यह है कि तुम एक भी शब्द बोलना मत। अगर तुम एक भी शब्द बीच में बोले, तो सौ रुपये देना पड़ेंगे। नसरुद्दीन प्रसन्न हो गया और उसने कहा कि बिलकुल ठीक!

वे दोनों बैठे। पायलट ने बड़ी बुरी तरह खतरनाक ढंग से हवाई जहाज उड़ाया। उलटा, नीचा, तिरछा, कलाबाजियां कीं, और बड़ा हैरान हुआ कि सब मुसीबत में वे चुप रहे दोनों। कई दफा जान को खतरा भी आ गया होगा, उलटे हो गये, लेकिन वे चुप ही रहे। नीचे उतर कर उसने कहा कि मान गये नसरुद्दीन! तुम जीत गये। पर उसने कहा, ‘तुम्हारी पत्नी कहां है?’

नसरुद्दीन ने कहा, ‘ऐसा वक्त भी आया जब मैं बोलने के करीब ही था, लेकिन संयम बड़ी चीज है। मेरी पत्नी तो गिर गई। तब मैं बिलकुल बोलने के करीब था लेकिन संयम बड़ी चीज है, शास्त्रों में कहा है। मैंने बिलकुल सांस रोक कर आंख बंद करके संयम रखा है। और संयम का फल सदा मीठा होता है। दोहरे फायदे हुए। सौ रुपया भी बचा, पत्नी से झंझट भी मिटी। संयम का फल मीठा है।’

संयम का अर्थ है जबर्दस्ती। तो तुम यह भी कर सकते हो कि तुम्हारा मन तो था शाही वस्त्र पहनने का और तुमने संयम से लंगोटी लगा ली। यह सादा जीवन नहीं है। इसमें चेष्टा है। इसमें समझ नहीं है, इसमें प्रयास है। और तुम्हें लंगोटी को थोपने के लिए अपने ऊपर निरंतर जद्दोजहद करनी पड़ेगी। मन की आकांक्षा तो शाही वस्त्रों की थी। तुमने किसी प्रलोभन के वश, स्वर्ग, ईश्वर का दर्शन, योग, अमृत, कुछ पाने की आकांक्षा में लंगोटी लगा ली।

ध्यान रहे, संयम सदा लोलुपता का अंग है। तुम कुछ पाना चाहते हो, इसीलिए तुम्हें कुछ करना पड़ता है। सादगी लोलुपता से मुक्ति है। सादा आदमी वह है जिसे लंगोटी लगाने में आनंद आ रहा है। वह कोई संयम नहीं है। उसके भीतर कोई संघर्ष नहीं चल रहा है, कि पहनूं शाही वस्त्र, और वह लंगोटी लगा रहा है। कोई लड़ाई नहीं है। सादा आदमी अपने भीतर लड़ता नहीं। और जो भी लड़ता है, वह जटिल है।

दिया तले अँधेरा 

ओशो 

संसारचक्र 2

मैंने सुना है, एक प्रोफेसर हैं पोपट लाल। दादर के एक प्राइवेट सिंधी कालेज में प्रोफेसर हैं। एक तो प्राइवेट कालेज और फिर सिंधियों का! तो प्रोफेसर की जो गति हो गई वह समझ सकते हो। असमय में मरने की तैयारी है। समय के पहले आंखों पर बड़ा मोटा चश्मा चढ़ गया है, कमर झुक गई है। पिता तो चल बसे हैं; की मां, वह पीछे पड़ी थी कि विवाह करो, विवाह करो पोपट! पोपट ने बहुत समझाया, बहुत तरह के बहाने खोजे। कहा कि मैं तो विवेकानंद का भक्त हूं और मैं तो ब्रह्मचर्य का जीवन जीना चाहता हूं। लेकिन मां कहीं इस तरह की बातें सुनती है! मा ने समझाया कि संसारचक्र कैसे चलेगा? ऐसे में तो संसारचक्र बंद हो जायेगा। फिर मा पर दया करके पोपट लाल विवाह को राजी हुए।

बंबई में तो कोई लड़की उनसे विवाह करने को राजी थी नहीं। सच तो यह है कि जब से वे प्रोफेसर हुए, जिस विभाग में प्रोफेसर हुए उसमें लड़कियों ने भर्ती होना बंद कर दिया। तो कोई गांव की, देहात की लड़की खोजी गई। वह विवाह ‘करके आ भी गई। प्रोफेसर तो सुबह ही से निकल जाते दूर, उपनगर में रहते हैं, सुबह से ही निकल जाते हैं। दिन भर पढ़ाना। प्राइवेट कालेज और सिंधियों का! फिर प्रिंसिपल की भी सेवा करनी, प्रिंसिपल की पत्नी को भी सिनेमा दिखाना, बच्चों को चौपाटी घुमाना सब तरह के काम। रात कुटे पिटे लौटते, तो सो जाते।

बूढ़ी को बहू पर दया आने लगी। एक दिन बंबई भी नहीं दिखाया ले जा कर, तो एक दिन वह बंबई दिखाने ले गई। जैसे ही बस पर पहुंचे स्टेशन पर, तो वहा कोई किसी सांड को पकड़ का बधिया बनाते थे। तो उस बहू ने बूढ़ी से पूछा कि इस सांड को यह क्या कर रहे हैं? बूढ़ी शर्माई भी, किन शब्दों में कहे! लेकिन बहू न मानी तो उसे कहना पड़ा कि ये इसे खस्सी करते हैं। तो उसने कहा, इतनी मेहनत क्यों करते हैं दादर के सिंधी कालेज में प्रोफेसर ही बना दिया होता!

जो मन में छिपा हो वह कहीं न कहीं से निकलता है। तुम्हारे दबाये दबाये नहीं दबता नई नई शक्लों में प्रगट हो जाता है। कहीं से तो निकलेगा। तुम संसारचक्र के बंद होने से घबड़ाये हुए हो! परमात्मा ने तुमसे पूछ कर संसारचक्र चलाया था? और अगर बंद करना चाहेगा तो तुमसे सलाह लेगा? तुम्हारी सलाह चलती है कुछ? अपने पर ही नहीं चलती, दूसरे पर क्या चलेगी? और सर्व पर तो चलने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन तुम ऐसी चिंतायें लेते हो। ऐसी बड़ी चिंताओं में तुम छोटी चिंताओं को छिपा लेते हो। असली चिंता भूल जाती है। और इस भांति तुम एक पर्दा डाल लेते हो अपनी आंख पर और आंख नहीं खुलने देते। छोड़ो! यह रुकता हो रुक जाये।

यह तो ऐसे ही हुआ कि तुम किसी चिकित्सक के पास जाओ और उससे कहो कि दवाइयां खोजना बंद करो, अगर ऐसी दवाइयों को खोजते रहे तो फिर बीमारियों का क्या होगा, बीमारियों का चक्र बंद ही हो जायेगा!
संसारचक्र जिसे तुम कहते हों सिवाय बीमारियों के और क्या है? सिवाय दुख और पीड़ा के क्या जाना? जीवन में घाव ही घाव तो हो गये हैं, कहीं फूल खिले? मवाद ही मवाद है! कहीं कोई संगीत पैदा हुआ? दुर्गंध ही दुर्गंध है। कहीं तो कोई सुगंध नहीं। फिर भी संसारचक्र बंद न हो जाये, इसकी चिंता है। गटर में पड़े हो, लेकिन कहीं गटर की गंदगी समाप्त न हो जाये, इसकी चिंता है।

कहीं गटर बहना बंद न हो जाये, इसकी चिंता है। पाया क्या है? अन्यथा सारे ज्ञानी संसार से मुक्त होने की आकांक्षा क्यों करते?

तुम्हारा संसार सिवाय नर्क के और कुछ भी नहीं है। इस संसार से तुम थोड़े जागो तो स्वर्ग के द्वार खुलें। यह तुम्हारा सपना है। यह सत्य नहीं है जिसे तुम संसार कहते हो। सत्य तो वही है जिसे शानी ब्रह्म कहते हैं।
 
अब इस बात को भी तुम खयाल में ले लेना : जब अष्टावक्र या मैं तुमसे कहता हूं कि संसार से जागो, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जब तुम जाग जाओगे तो ये वृक्ष वृक्ष न रहेंगे, कि पक्षी गीत न गायेंगे, कि आकाश में इंद्रधनुष न बनेगा, कि सूरज न निकलेगा, कि चांदतारे न होंगे। सब होगा। सच तो यह है कि पहली दफा, पहली दफा प्रगाढ़ता से होगा। अभी तो तुम्हारी आंखें इतने सपनों से भरी हैं कि तुम इंद्रधुनष को देख कैसे पाओगे? तुम्हारी आंख का अंधेरा इतना है कि इंद्रधनुष धुंधले हो जाते हैं। तुम फूल का सौंदर्य पहचानोगे कैसे? भीतर इतनी कुरूपता है, फूल पर उंडल जाती है। सब फूल खराब हो जाते हैं। पक्षियों के गीत तुम्हारे हृदय में कहां पहुंच पाते हैं? तुम्हारा खुद का शोरगुल इतना है कि पक्षियों सारे गीत बाहर के बाहर रह जाते हैं।

अष्टावक्र महागीता 

ओशो 

एक मित्र ने बड़े क्रोध में पत्र लिखा है। लिखा है कि अष्टावक्र जो कहते हैं, आप जो समझाते हैं, वैसा अगर लोग मान लेंगे तो संसारचक्र बंद ही हो जायेगा।

सुनें। एक तो संसार चक्र चले, इसका मैंने कोई जुम्मा नहीं लिया। आपने लिया हो, आपकी आप जानें। फिर संसारचक्र आप नहीं थे तब भी चल रहा था, आप नहीं होंगे तब भी चलता रहेगा। संसारचक्र आप पर निर्भर है, इस भांति में पड़े मत। जो चलाता है, चलायेगा, और न चलाना चाहेगा तो तुम्हारे चलाये न चलेगा। तुम अपने को ही चला लो, उतना ही बहुत है। बड़ी चिंतायें सिर पर मत लो। छोटी चिंतायें हल नहीं हो रही हैं। ऐसी चिंताओं में मत उलझ जाना जिन पर तुम्हारा कोई बस ही न हो।

अष्टावक्र को हुए कोई पांच हजार साल होते हैं। अष्टावक्र कह गये, संसारचक्र चल रहा है। और मेरे पांच हजार साल बाद अगर तुम आओगे, तो भी तुम पाओगे संसार सब चल रहा है। संसारचक्र के चलने का मेरे या तुम्हारे कुछ कहने या होने से कोई संबंध नहीं है। हा, इतना ही है कि अगर तुम समझ जाओ तो तुम संसारचक्र के बाहर हो जाते हो। तुम्हारे लिए चलना बंद हो जाता है। आवागमन से छूटने की बात, मुक्ति की आकांक्षा और क्या है? संसारचक्र के मैं बाहर हो जाऊं। तुम्हें संसारचक्र की चिंता भी नहीं है; तुम छिपे ढंग से कुछ और कह रहे हो। शायद तुम्हें होश भी न हो कि तुम क्या कह रहे हो। तुम इस संसार के चक्र को छोड़ना नहीं चाहते। बात तुम कर रहे हो : कहीं यह बंद तो न हो जाये! तुम भीतर से पकड़ना चाहते हो। पकड़ने के लिए बहाने खोज रहे हो। बहाना तुम कितना ही करो, तुम मुझे धोखा न दे पाओगे। तुम्हें चिंता भी क्या है संसार की? कौड़ी भर चिंता नहीं है तुम्हें कल का मिटता आज मिट जाये। फिक्र तुम्हें कुछ और है। तुम्हारी वासनाओं का एक जाल है। उस वासना के जाल को तुम छिपाना चाहते हो। वह वासना का जाल नई नई तरकीबें खोजता है। वह सीधा सीधा हाथ में आता भी नहीं, क्योंकि सीधा सीधा हाथ में आ जाये तो बड़ी शर्म लगेगी। तुम अपनी भांति और मूढ़ता को बचाना चाहते हो, नाम बड़ा ले रहे हो। नाम तुम कह रहे हो संसार चक्र; जैसे तुम कुछ इस चक्र के रक्षक हो!

अष्टावक्र महागीता

ओशो

कान छेदना

भारत में बहुत पुरानी ग्रामीण परंपरा है। अभी भी कुछ लोग गांव में मिल जाएंगे। अगर तुम्हें कभी कोई आदमी मिले जिसका नाम हो कनछेदी लाल, या जिसका नाम हो नत्थूलाल, तो तुम पूछना कि यह नाम क्यों रखा गया? जिन घरों में बच्चे मर जाते हैं, दो चार बच्चे हुए और मर गए, तो बहुत पुरानी परंपरा है कि फिर जो बच्चा पैदा हो, तत्क्षण या तो उसकी नाक छेद दो या कान छेद दो। अगर नाक छेदा तो उसका नाम नत्थूलाल, कान छेदा तो उसका नाम कनछेदी लाल।

और यह बात बड़ी अनुभव की है कि फिर नाक या कान छेदने के बाद बच्चे नहीं मरते। उनकी जीवन-ऊर्जा में कुछ बुनियादी अंतर आ जाता है। बच्चा बच जाता है। यह हजारों सालों के अनुभव के बाद लोगों ने धीरे-धीरे प्रयोग खोजा है।

अब तो इस पर रूस में बड़ी खोज हुई है। और किरलियान फोटोग्राफी ने बड़े महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं, कि मनुष्य के शरीर में जो विद्युत का प्रवाह है, सारा खेल स्वास्थ्य का, बीमारी का, जन्म का, मरण का, उस विद्युत के प्रवाह पर निर्भर है। और उस प्रवाह को कुछ बिंदुओं से बदला जा सकता है। उस प्रवाह के मार्ग को रूपांतरित किया जा सकता है। उस प्रवाह को एक तरफ जाने से रोका जा सकता है, दूसरी तरफ ले जाया जा सकता है।
आक्युपंक्चर की सारी कला यही है कि जब कोई आदमी बीमार होता है, तो किन्हीं शरीर के खास बिंदुओं पर वे गर्म सुई चुभोते हैं। और जरा सा सुई का चुभन, और भीतर की विद्युत धारा बदल जाती है। उस विद्युत धारा के बदलने से सैकड़ों बीमारियां तिरोहित हो जाती हैं। चीन में तो कोई पांच हजार सालों से वे इसका प्रयोग करते हैं। उन्होंने जो शरीर में माने हैं बिंदु, अब तो विज्ञान ने भी स्वीकृति दे दी है कि वे बिंदु हैं। और यह भी स्वीकार हो गया है–रूस में कम से कम! और रूस के तो अस्पतालों में भी आक्युपंक्चर का प्रयोग शुरू हो गया है। और अब तो उन्होंने यंत्र भी खोज लिए हैं कि मरीज को वे यंत्र में खड़ा कर देते हैं। तो जैसे एक्स-रे से पता चलता है कि भीतर कहां खराबी है, उस यंत्र से पता चलता है कि शरीर में घूमने वाली इलेक्ट्रिक करंट कहां बीमार पड़ गयी है। तो जहां बीमार पड़ गयी है वहां इलेक्ट्रिक का शाक उसे देते हैं। इलेक्ट्रिक का शाक देते ही विद्युतधारा प्रवाहित हो जाती है और बीमारी तिरोहित हो जाती है।

कान छेदना, नाथ-संप्रदाय के योगियों ने बड़े महत्वपूर्ण शाक की तरह खोजा था। वह शाक था। इस तरह के शाक बहुत तरह खोजे गए हैं। तुम्हें पता है कि यहूदी और मुसलमान खतना करते हैं। वह खतना भी इसी तरह का शाक है और बड़ा महत्वपूर्ण है। यहूदी तो, बच्चा पैदा होता है, उसके चौदह दिन के भीतर उसका खतना करते हैं। और जननेंद्रिय के ऊपर की चमड़ी को काट कर अलग कर देते हैं।

इस संबंध में बहुत अध्ययन चलता आ रहा है कि इससे क्या लाभ होते होंगे? और लाभ प्रगाढ़ मालूम होते हैं। क्योंकि यहूदियों से ज्यादा प्रतिभाशाली कौम खोजना कठिन है। उनकी संख्या तो थोड़ी है, लेकिन जितनी नोबल-प्राइज यहूदी ले जाते हैं, उतनी कोई दूसरी जाति नहीं ले जाती। और यहूदी जिस दिशा में भी काम करेगा, हमेशा अग्रणी हो जाएगा। आगे पहुंच जाएगा। दूसरों को पीछे खदेड़ देगा। यहूदी के पास प्रतिभा तो ज्यादा मालूम पड़ती है।

इस सदी में जिन लोगों ने बड़े प्रभाव पैदा किए हैं वे सब यहूदी हैं। कार्ल माक्र्स, सिगमन फ्रायड और अलबर्ट आइंस्टीन, तीनों यहूदी हैं। और इन तीनों ने इस सदी को निर्मित किया है। और यहूदियों ने जितने प्रगाढ़ विचारक पैदा किए हैं, वैज्ञानिक पैदा किए हैं, किसी ने पैदा नहीं किए। उनका कोई मुकाबला नहीं है। और अभी इस संबंध में विचार शुरू हुआ है कि हो सकता है, चौदह दिन के भीतर जो खतना किया जाता है, उसका कुछ न कुछ गहरा संबंध प्रतिभा से है।

मुसलमान वह नहीं कर पाए, क्योंकि वे खतना बड़ी देर से करते हैं। यहूदियों का खयाल है कि चौदह दिन के भीतर बच्चे को जो पहला शाक मिलता है–क्योंकि खतना जननेंद्रिय की चमड़ी का किया जाता है–तो पहला शाक जननेंद्रिय के पास जो इकट्ठी ऊर्जा है, जो विद्युत-ऊर्जा है, उसको लगता है। और वह शाक इतना गहरा है कि वह विद्युत-ऊर्जा उस जगह से हट कर सीधी मस्तिष्क पर चोट करती है। और छोटे बच्चे को वह जो चोट है, सदा के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है। उसकी जीवन-धारा बदल जाती है।

एक ओमकार सतनाम 

ओशो 


अंधे आदमी से प्रकाश के संबंध में कुछ कहो:

इसाई समझ नहीं पाए जीसस को। जीसस तो कहते हैं कि मैं और मेरा पिता अर्थात् ब्रह्म, परमात्मा, हम दोनों एक हैं। लेकिन ईसाइयों ने इस बात को बिलकुल गलत ढंग से पकड़ा है। वे कहने लगे कि यह बात सिर्फ जीसस के संबंध में सच है कि जीसस परमात्मा से एक हैं, किसी और के संबंध में यह सच नहीं है। जबकि जीसस अपने संबंध में कुछ भी नहीं कह रहे हैं। जब जीसस कहते हैं, मैं और परमात्मा एक हैं, तो वे जोसफ और मरियम के बेटे जीसस के संबंध में कुछ भी नहीं कह रहे हैं, वे तो उस भीतर छिपे हुए परम चैतन्य के संबंध में कह रहे हैं। वही परम चैतन्य हमारा असली ‘मैं’ है। वही हमारा असली अस्तित्व है। वही हमारी अस्मिता है। वही हमारी आत्मा है।’मैं’ उसकी तरफ ही इशारा कर रहा है। लेकिन ईसाइयों ने यूं पकड़ ली बात!
अंधे आदमी से प्रकाश के संबंध में कुछ कहो, वह कुछ का कुछ पकड़ लेगा। बहरे को संगीत के संबंध में कुछ समझाओ, वह कुछ—का—कुछ पकड़ लेगा। ईसाइयों ने यह समझा कि जीसस अपने संबंध में कह रहे हैं। जीसस उन सबके संबंध में कह रहे हैं जिन्होंने भी जाना है। मगर ईसाइयत उस तल तक ऊंचा न उठ पायी; ईसाइयत उस ऊंचाई को न छू सकी; ईसाइयत में वह फूल न खिल सका।

वही परिणाम इस्लाम में हुआ। इसलिए अलहिल्लाज मैसूर को मुसलमानों ने सूली पर लटका दिया। क्यों? क्योंकि उसने अनलहक की घोषणा की। उसने कहा कि मैं परमात्मा हूं? और मुसलमानों में इस तरह की घोषणा कुफ्र है, पाप है, महापाप है। कोई कहे कि मैं परमात्मा हूं परमात्मा के साथ कोई बराबरी ‘ करे! अलहिल्लाज मंसूर परमात्मा के साथ बराबरी नहीं कर रहा था, क्योंकि अलहिल्लाज यह कह रहा था, मैं तो हूं ही नहीं, परमात्मा है; बराबरी का सवाल कहां था! बराबरी तो तब हो जब दो हों! दो तो हैं ही नहीं! अनलहक का मतलब है : मैं सत्य हूं। मैं और सत्य, ऐसी दो चीजें नहीं हैं। अलहिल्लाज अपने संबंध में कोई घोषणा नहीं कर रहा है। अलहिल्लाज तो मिट गया। ध्यान में जौ गया, उसका अहंकार तो मिट ही जाता है। फिर जो शेष रह जाता है, वह परमात्मा है।

अलहिल्लाज मंसूर का गुरु था जुन्नैद। उसने अलहिल्लाज को बहुत बार समझाया कि देख, इस बात को भीतर ही पी जा! मैं भी जानता हूं लेकिन मत कह! जुन्नैद का था, जीवन के कड़वे—मीठे अनुभव उसने लिए थे; अलहिल्लाज जवान था! जुन्नैद अलहिल्लाज को समझाता रहा कि तू यह बात कहेगा तो आज नहीं कल तू मुश्किल में पड़ेगा और मुझे भी मुश्किल में डालेगा। क्योंकि अंततः यह दोष मुझ पर भी आएगा, कि तेरा शिष्य घोषणा कर रहा है। अलहिल्लाज हमेशा स्वीकार कर लेता था कि अब नहीं करूंगा। लेकिन जब भी ध्यान में बैठता था, बस भूल ही जाता था! जब मैं ही न रहा, तो मैं के द्वारा दिये गये वचन कौन याद रखे? जिसने वचन दिये थे वह तो गया और जो प्रगट होता, वह फिर वही धुन उठा देता; वही अनलहंक का नाद। और जुन्नैद कहता, कितनी बार तुझे समझाया कि यह बात अगर फैल गयी तो मुश्किल खड़ी होगी। तू तो मारा ही जाएगा, तेरे साथ मेरा भी जो काम चल रहा है, जो सैकड़ों लोग ध्यान को, समाधि को उपलब्ध हो रहे हैं, इनकी प्रक्रिया भी अवरुद्ध हो जाएगी। फिर वह वायदा करता। और फिर वायदा टूट जाता!

अंततः अलहिल्लाज ने एक दिन कहा कि अब और वायदा न करूंगा, क्योंकि बहुत वायदा किया, वह टूट—टूट जाता है; असलियत यह है कि जो वायदा करता है, वह तो मौजूद नहीं होता, और जो मौजूद होता है, उसने कभी वायदा नहीं किया। मैं वहां होता नहीं और जो वहां होता है, वह घोषणा करता है। मैं रोकूं तो कैसे रोकूं!
जुन्नैद ने कहा कि ऐसा कर, तू काबा की यात्रा कर आ!……. उन दिनों पैदल ही यात्रा करनी होती थी। वर्ष लग जाते थे। जुन्नैद ने सोचा कि काबा की यात्रा कर आएगा, तब तक तो बात टलेगी। इस बीच कुछ भी हो सकता है। समझ आ जाए!……. लेकिन पता है अलहिल्लाज मंसूर ने क्या किया? वह उठा और उसने कहा, ठीक, आप आज्ञा देते हैं तो जाकर तीर्थयात्रा कर आता हूं। उठा और उसने जुन्नैद के तीन चक्कर लगाए और फिर बैठ गया सामने। जुन्नैद ने कहा, यह क्या किया? उसने कहा, मेरे लिए तुम ही काबा हो। तुम्हारे अलावा और कहां काबा है! जब जीवित गुरु को पा लिया, तो अब किस पत्थर की पूजा करने जाऊं! और किसलिए? तुम्हारे तीन चक्कर लगा लिए, यात्रा पूरी हो गयी। अब कहां जाना है! और वही अनलहक का नाद।

वह नाद मैसूर के संबंध में नहीं है। मुसलमान गलत समझे। उन्होंने व्यर्थ ही मैसूर को सूली दे दी।

लेकिन इस देश में धर्म के ऊंचे—से—ऊंचे शिखर छुए गये। वे दिन भी जा चुके हैं। आज भारत की मनोदशा वैसी नहीं है, जो उपनिषद् के काल में थी। आज तो भारत बहुत दयनीय है। अब तो यहां भी आदमी जमीन पर घिसट रहा है; आकाश में उड़ने की क्षमता उसने खो दी। आज तो यह घोषणा करना कि मैं ब्रह्म हूं खतरे से खाली नहीं है। लेकिन जो जानेगा, वह रुक भी नहीं सकता है।

दीपक बारा नाम का

ओशो 

हरिजन

उद्दालक ने अपने बेटे श्वेतकेतु को कहा था–जब वह लौटा ब्रह्मविद्या की शिक्षा पूरी करके, वेदों को कंठस्थ करके–तो उद्दालक ने अपने बेटे को कहा था कि तूने वह भी जाना या नहीं, वह एक, जिसको जानने से सब जान लिया जाता है? श्वेतकेतु ने कहा: कौन-सा एक? मैंने चारों वेद जाने, मैंने सारे उपनिषद जाने, मैंने सब शास्त्र पढ़े, मगर आप किस एक की बात कर रहे हैं?

उद्दालक उदास हो गया, उसने कहा: बेटा तू वापिस जा, अभी तूने जो जाना, वह जानकारी है। उस एक को जानकर आ, जिसको जान लेने से कोई सभी जानने के पार हो जाता है। और मैं तुझे याद दिला दूं कि हमारे कुल में नाममात्र के ब्राह्मण नहीं होते रहे हैं, हमारे कुल में वस्तुतः ब्राह्मण होते रहे हैं। पूछा श्वेतकेतु ने: क्या अर्थ है वस्तुतः ब्राह्मण का? तो उसने कहा: जो ब्रह्म को जान ले, वह ब्राह्मण।

बुद्ध ने भी यही कहा कि जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण।
महावीर ने भी यही कहा: जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण।

ब्राह्मण घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। यह एक मूढ़ता की बात चल रही है कि ब्राह्मण घर में पैदा हो गए तो ब्राह्मण हो गए! इस मूढ़ता का उत्तर गांधी ने दूसरी मूढ़ता से दिया कि अछूत हरिजन हैं। भंगी के घर में पैदा होने से कोई हरिजन नहीं हो जाता। “हरिजन’ बड़ा बहुमूल्य शब्द है; इसे मत लथेड़ो! हां, अछूत मिटना चाहिए; लेकिन एक बीमारी को दूसरी बीमारी से नहीं मिटाया जा सकता, और एक अतिशयोक्ति को दूसरी अतिशयोक्ति से नहीं मिटाया जा सकता। न तो ब्राह्मण ब्राह्मण है, न हरिजन हरिजन है। दोनों आदमी हैं। ब्राह्मण से ब्राह्मण शब्द छीन लो, हरिजन से हरिजन शब्द छीन लो, दोनों को आदमी रहने दो। हां, जिस दिन वे जागेंगे और परमात्मा को जानेंगे, उस दिन फिर उनको ब्राह्मण कहो या हरिजन कहो, एक अर्थ ही होता है।
 हरिजन बड़ा प्यारा शब्द है, उसे खराब कर दिया! उसे राजनीति की गंदगी में घसीट दिया।

कहै वाजिद पुकार 

ओशो 

मन का नाम संसार

मन क्या है? विचारों का सतत प्रवाह। जैसे राह चलती है! दिन-भर चलती है, चलती ही रहती है, भीड़-भाड़ गुजरती ही रहती है। कोई इधर जा रहा है, कोई उधर जा रहा है, कोई पूरब, कोई पश्चिम, कोई दक्षिण, कोई उत्तर! ऐसा मन एक चौराहा है, जिस पर विचारों के यात्री चलते हैं, वासनाओं के यात्री चलते हैं, कल्पनाओं, आकांक्षाओं के यात्री चलते हैं, स्मृतियों, योजनाओं के यात्री चलते हैं।

तुम मन नहीं हो, तुम चौराहे पर खड़े द्रष्टा हो, जो इन यात्रियों को आते-जाते देखता है। लेकिन इस चौराहे पर तुम इतने लंबे समय से खड़े हो, सदियों-सदियों से, कि तुम्हें अपना विस्मरण हो गया है। तुम्हें अपनी ही याद नहीं रही है। तुमने मान लिया है कि तुम भी इसी भीड़ के हिस्से हो जो मन में से गुजरती है। तुम मन के साथ एक हो गए हो, तादात्म्य हो गया है। तुम मन की भीड़ में अपने को डुबा दिए हो, भूल गए हो, विस्मरण कर दिए हो। और यही मन तुम्हें भरमाए है। इसी मन का नाम संसार है।

संसार से तुम अर्थ मत समझना–ये निर्दोष हरे वृक्ष संसार नहीं हैं। इन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है! कभी छाया दे दी होगी भला, और कभी फल दे दिए होंगे, और कभी तुम पर फूल बरसा दिए होंगे। इन वृक्षों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? इन चांदत्तारों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? दिया है खूब, लिया तो तुमसे कुछ भी नहीं है। संसार से तुम अर्थ यह जो विस्तार है अस्तित्व का, ऐसा मत समझ लेना। इस संसार से तुम्हारी क्या हानि हुई है? क्या हानि हो सकती है? यही संसार तो तुम्हें जीवन दे रहा है।

नहीं, जिस संसार से भक्त कहते हैं मुक्त हो जाओ, वह है तुम्हारे मन का संसार, मन का विस्तार। तुम्हारे मन में जो ऊहापोह चलता है, वह जो भीड़ तुम्हारे मन में सदा मौजूद रहती है, वह जो तरंगें बनी रहती हैं विचार की। और जिनके कारण तुम कभी शांत नहीं हो पाते, और जिनके कारण तुम सदा ही बिगूचन और विडंबना में उलझे रहते हो, जिनके कारण तुम सदा किंकर्तव्यविमूढ़ हो–क्या करूं, क्या न करूं? यह करूं, वह करूं? और मन हजार योजनाएं देता है। कोई योजना न कभी पूरी होती, न पूरी हो सकती है। और मन तुम्हें कितने सब्जबाग दिखलाता है, कितने मरूद्यान! कितने सुंदर-सुंदर सपने देता है और उलझाता है और भरमाता है और अटकाता है। मन माया है, संसार माया नहीं है। मन का संसार ही माया है।

उनमनि का अर्थ है–जागो! यह जो मन का जाल है, इसके द्रष्टा बनो; भोक्ता न रहो, कर्ता न रहो। इससे जरा दूर हटो, इसके जरा पार हटो। रास्ते की भीड़ में अपने को एक न मानकर रास्ते के किनारे खड़े हो जाओ। रास्ते के किनारे खड़े हो जाना और रास्ते को चलते देखना, ऐसे जैसे हमें रास्ते से कुछ लेना-देना नहीं है–निरपेक्ष, निष्पक्ष, उदासीन, तटस्थ, साक्षी मात्र–और उनमनि दशा फलेगी। क्योंकि जैसे ही तुम मन से अलग हुए कि मन मरा।

तुम्हारे सहयोग से ही मन के विचार चलते हैं। तुम्हारी ही ऊर्जा उन्हें जीवन देती है। उनकी अपनी कोई ऊर्जा नहीं है, तुम्हीं अपने सहयोग से उनमें प्राण डालते हो, श्वासें डालते हो। तुम्हारी ही श्वासों से वे जीते हैं और तुम्हारे ही हृदय की धड़कन से धड़कते हैं। तुमने हाथ खींच लिया कि उनके आधार गए, कि वे ताश के पत्तों के महल की तरह गिर जाएंगे। उनके गिरने में क्षण-भर का भी विलंब नहीं होगा। वे तुम्हारे मेहमान हैं, तुम मेजबान हो। तुम उनका स्वागत कर रहे हो, इसलिए वे तुम्हारे मन में टिक गए हैं। जिस दिन तुम्हारा स्वागत तुम वापिस लौटा लोगे और उन्हें नमस्कार कर लोगे और कहोगे–बहुत हो गया! और हट जाओगे स्वागत से, उसी दिन मेहमान विदा होने शुरू हो जाएंगे! और तब आती है चित्त की उनमनि दशा। धीरे-धीरे विचार दूर होते जाते हैं, दूर और दूर…।

और मजा समझ लेना, जैसे-जैसे विचार दूर होते हैं, वैसे-वैसे परमात्मा करीब होता है। जितने ज्यादा विचार तुम्हारे मन में हैं, उतनी ही परमात्मा से ज्यादा दूरी है; जितने कम विचार रह जाएंगे, उतनी ही कम दूरी। विचार का अनुपात परमात्मा से दूरी है। उसी अनुपात में दूरी होती है। जिस दिन विचार बिलकुल शून्य हो जाएंगे, उस दिन कोई दूरी न रह जाएगी। संन्यास की एक ही प्रक्रिया है–उनमनि मुद्रा! इसलिए संन्यास को बाहर से आयोजित नहीं करना होता। क्या खाएं, क्या पीएं, कैसे उठें, कैसे बैठें–यह सब गौण है। असली बात भीतर घटती है, अंतरतम में।

कहै वाजिद पुकार 

ओशो 

जब सभी पहुंचे हुए पूर्ण-पुरुष परमात्मा की पुकार करते हैं, तभी मेरी समझ में नहीं आता कि पुकारने के लिए वे बचते हैं कहां?


नंद भारती! तेरा प्रश्न ठीक है, लेकिन एक भ्रांति पर खड़ा है, एक छोटी-सी भूल पर खड़ा है।

पूछा तूने: “जब सभी पहुंचे हुए पूर्ण-पुरुष परमात्मा की पुकार करते हैं, तभी मेरी समझ में नहीं आता कि पुकारने के लिए बचते हैं कहां?’

दो बातें ख्याल रख। एक: भक्त पुकारता है परमात्मा को, तब तक वह परमात्मा तक पहुंचा नहीं है, इसलिए परमात्मा को पुकारता है। फिर जब पहुंच जाता है और भक्त भगवान हो जाता है, तो परमात्मा को भक्त नहीं पुकारता। फिर भक्त के माध्यम से परमात्मा संसार को पुकारता है। फिर परमात्मा ही पुकारता है उससे। ये दो अलग-अलग पुकारें हैं। एक भक्त की पुकार है कि आन मिलो कि मुझे समा लो अपने में कि बहुत देर हो गई कि अब और देर नहीं सही जाती कि रोता हूं कि मनाता हूं तुम्हें कि रूठो मत कि मान जाओ कि द्वार खोलो कि कितनी देर हो गई, कितने जन्मों से मैं रो रहा हूं और पुकार रहा हूं, तुम कहां खो गए हो! यह भक्त की पुकार है, ये भक्त के आंसू हैं! अभी भक्त पुकार रहा है। भक्त लीन होना चाहता है। जैसे नदी पुकार रही है सागर को, क्योंकि सागर में लीन हो जाए तो सीमाओं से मुक्त हो जाए, चिंताओं से मुक्त हो जाए!

फिर जब नदी सागर में लीन हो गई, तो सागर गरजेगा! नदी सागर का हिस्सा हो गई। अब नदी अलग नहीं है। अब नदी पुकारने के लिए बची नहीं है। अब तो नदी सागर है। अब तो नदी का जल भी सागर की गर्जनत्तर्जन बनेगा। ऐसा ही भक्त जब भगवान को पहुंच जाता है, जब पूर्ण हो जाता है, तब भी पुकारता है। लेकिन अब भक्त नहीं पुकारता, अब भगवान पुकारता है। अब तो सागर का गर्जन है। अब भगवान औरों को पुकारता है।

इससे भूल हो सकती है। जैसे ये ही वाजिद के वचन, वाजिद कहते हैं: कहै वाजिद पुकार। यह वाजिद जो पुकारकर कह रहे हैं, यह अब परमात्मा वाजिद से पुकार रहा है। अब यह वाजिद नहीं पुकार रहे हैं। वाजिद तो गए, कब के गए! जब तुम बांस की पोंगरी की तरह पोले हो जाओगे, तब उसके ओंठों पर रखने के योग्य होओगे। तब बजेंगे स्वर! गीत फूटेगा तुमसे! तब उसकी श्वासें तुम्हारे भीतर से बहेंगी। फिर बांसुरी औरों को पुकारेगी, फिर बांसुरी की टेर औरों को पुकारेगी।

भक्त पहले भगवान को पुकारता है; फिर भगवान भक्त के माध्यम से और रास्तों पर जो भटक गए हैं, अंधेरे में जो अटक गए हैं, उन्हें पुकारता है। ये दोनों अलग-अलग पुकारें हैं। इनको एक ही मत समझ लेना। पहली पुकार में द्वैत है: भक्त है और भगवान है, बीच में फासला है। दूसरी पुकार में अद्वैत है; न भक्त है अब, न भगवान अलग है। अब तो एक है और अब एक ही गूंज रहा है: सागर की गर्जन है!

कहै वाजिद पुकार 

 

जीवन-विधेय

जीवन के कुछ नियम हैं। जब एक बार गलत बात प्रभावी हो जाती है, तो हम उसी के प्रभाव में जीए चले जाते हैं। हम फिर सुनते ही नहीं दूसरी बात। हम दूसरी बात को समझने के योग्य भी नहीं रह जाते। अब जैसे समझो, सारी दुनिया समृद्ध होती जा रही, हम अपना चरखा लिए बैठे हैं! मोरारजी देसाई अभी भी चरखा कातते रहते हैं बैठे। चरखे से कहीं कोई दुनिया समृद्ध हुई है! चरखे से होती होती तो तुम दरिद्र ही क्यों हुए, चरखा तो तुम कात ही रहे हो सदियों से। कोई गांधी ने चरखा ईजाद नहीं किया, चरखा तो कत ही रहा है यहां, हजारों साल से कत रहा है। हमें चाहिए बड़ी टेक्नालॉजी। हमें चाहिए तकनीक के नए से नए साधन। समृद्धि तकनीक से पैदा होती है। क्योंकि एक मशीन हजारों लोगों का काम कर देती है, लाखों लोगों का काम कर सकती है। मशीन से लाखों गुना उत्पादन हो सकता है।

लेकिन गांधी इस देश की छाती पर बैठे हैं! गांधी की पूजा चल रही है। गांधी को मानने वाले लोग छाती पर चढ़े हैं। जो भी गांधी बाबा का नाम ले, वही छाती पर चढ़ जाता है। तुम दरिद्र हो गए हो, और दरिद्र होने की तुम्हारी आदत हो गई है। इसलिए जो भी तुम्हारी दरिद्रता से मेल खाता है, वह तुम्हें जंचता है। मैं तुम्हारी दरिद्रता तोड़ना चाहता हूं, मैं तुम्हें नहीं जंच सकता।

तुम्हें यह बात बहुत जंचती है कि गांधी बाबा थर्ड क्लास में चलते हैं। उनके थर्ड क्लास में चलने से क्या होने वाला है? उनके थर्ड क्लास में चलने से तुम सोचते हो सारा देश फर्स्ट क्लास में चलने लगेगा! उनके थर्ड क्लास में चलने से सिर्फ और थर्ड क्लास में भीड़ बढ़ गई। वैसे ही भीड़ थी, और एक सज्जन घुस गए! और एक ही सज्जन नहीं, गांधी बाबा जब चलेंगे थर्ड क्लास में तो पूरा डिब्बा उनके लिए है। जिसमें कोई साठ-सत्तर, अस्सी-नब्बे आदमी चढ़ते हैं, उसमें अब एक आदमी चल रहा है अपने दो-चार सेक्रेटरी वगैरह को लेकर। थर्ड क्लास में चलने से क्या होगा?

अगर मैं गरीब हो जाऊं, नंगा होकर सड़क पर भीख मांगने लगूं, तुम सोचते हो, इस देश की समृद्धि आ जाएगी? अगर मेरे नग्न होने से और सड़क पर भीख मांगने से इस देश की समृद्धि आती होती तो कितने लोग तो नंगे हैं और कितने लोग तो भीख मांग रहे हैं, समृद्धि आई क्यों नहीं?

लेकिन हम इसी तरह की मूढ़ता की बातों में पड़ गए हैं। तुमको भी जंचेगा; अगर मैं नग्न होकर सड़क पर भीख मांगने लगूं, तब तुम देखना कि भारतीयों की भीड़ मेरे पीछे खड़ी हो जाएगी। लाखों भारतीय जय-जयकार करने लगेंगे। हालांकि तब मैं उनके किसी काम का नहीं रह गया, मगर जय-जयकार वे तभी करेंगे। अभी मैं उनके किसी काम का हो सकता हूं, लेकिन अभी वे जय-जयकार नहीं कर सकते। क्योंकि उनकी तीन हजार साल की बंधी हुई धारणाओं से मैं विपरीत पड़ता हूं।

मैं चाहता हूं, इस देश में उद्योग हों, इस देश में बड़ा तकनीक आए, बड़ी मशीनें आएं। इस देश में विज्ञान का अवतरण हो। यह देश फैले।

लेकिन यह देश तभी फैल सकता है, जब हम जीवन को स्वीकार करें—उसके सब रंगों में, सब ढंगों में। जीवन-निषेध की प्रक्रिया आत्मघाती है। जीवन-विधेय की प्रक्रिया ही अमृतदायी है। उस जीवन-विधेय के आयाम में ही मैं सब स्वीकार करता हूं—कामवासना भी अंगीकार है।

श्री मोरारजी देसाई को कहना चाहता हूं कि आप जैसे लोगों की व्यर्थ बकवास के कारण इस देश का दुर्भाग्य सघन होता जा रहा है। इस पर दया करो! पुनः सोचो, पुनर्विचार करो। इस देश को उमंग दो, निराशा नहीं। हताशा मत दो, इस देश के प्राणों को उत्साह दो। इसकी मरी आत्मा में सांस फूंको; इस देश के जीवन में नए खून का संचार करो। वही मैं कर रहा हूं। इसीलिए मेरी बात पश्चिम के लोगों को ज्यादा अनुकूल पड़ रही है। इसलिए अनुकूल पड़ रही है कि वे जीवन के प्रेमी हैं, वे फैलाव के आतुर हैं। उनके और मेरे बीच तर्क ठीक बैठ रहा है।

मुझसे लोग पूछते हैं: यहां भारतीय क्यों कम दिखाई पड़ते हैं? वे इसीलिए कम दिखाई पड़ते हैं कि भारत ने तीन हजार साल में एक गलत ढंग की सोचने की प्रक्रिया बना ली है। मेरा उससे कोई तालमेल नहीं है। मेरे पास तो वे ही भारतीय आ सकते हैं, जो थोड़े आधुनिक हैं; जिनमें थोड़ा सोच-विचार का जन्म हुआ है, जिन्होंने आंखें खोली हैं और जो देख रहे हैं कि दुनिया में क्या हो रहा है। अब कोई देश गरीब रहने के लिए बाध्य नहीं है। अगर हम गरीब रहेंगे, तो अपने ही कारण। अब तो विज्ञान ने इतने साधन उपलब्ध कर दिए हैं कि हर देश समृद्ध होना चाहिए। कोई कारण नहीं है। अगर हम दरिद्र हैं तो हमारी दार्शनिक वृत्ति, हमारे सोचने-विचारने की प्रक्रिया में कहीं कोई भूल है।

कहै  वाजिद पुकार 

ओशो 

जीवन-निषेध

कथा है: जनक ने एक बड़े विवाद की घोषणा की कि जो भी इस विवाद में जीत जाएगा, उसे एक हजार गाएं भेंट करूंगा। उन गायों के सींगों पर सोना चढ़वा दिया, हीरे जड़वा दिए। वे गाएं खड़ी हैं महल के द्वार पर। आने लगे विचारक, दार्शनिक विवाद के लिए। विवाद शुरू होने लगा।

दोपहर हो गई तब याज्ञवल्क्य आया उस समय का एक महर्षि। उसका बड़ा आश्रम था; जैसा आश्रम यह है, ऐसा आश्रम रहा होगा। याज्ञवल्क्य आया अपने शिष्यों के साथ और उसने कहा, कि गऊएं धूप में खड़े-खड़े थक गई हैं और उनको पसीना आ रहा है। शिष्यों से कहा कि बेटो! तुम ले जाओ गऊओं को आश्रम, विवाद मैं निपट लूंगा। और उसके शिष्य खदेड़कर गऊओं को ले गए। हजार गऊएं सोने के सींग चढ़ी, हीरे-जवाहरात जड़ी। जनक भी खड़ा रहा गया, और पंडित भौचक्के रह गए! क्योंकि यह तो विवाद के बाद पुरस्कार है मिलने वाला।
याज्ञवल्क्य ने कहा: चिंता ही मत करो, विवाद हम निपट लेंगे; विवाद में क्या रखा है! लेकिन गऊएं क्यों सतायी जाएं?

अब जिस आश्रम में हजार गऊएं हो सोने के सींग चढ़ी, वह तुम सोचते हो बंबई की झोपड़पट्टियां रही होंगी! तो हजार गऊओं को खड़ा कहां करोगे, बांधोगे कहां? हजारों विद्यार्थी आते थे गुरुकुलों में। और क्या तुम सोचते हो, ये जो तुम्हारे गुरुकुल के ऋषि-मुनि थे, ये जीवन से भगोड़े थे? इनकी पत्नियां थीं, इनके बेटे थे। और इनके पास जरूर सुंदर पत्नियां रही होंगी। क्योंकि कहानियां कहती हैं कि देवता भी कभी-कभी इनकी पत्नियों के लिए तरस जाते थे। कभी चंद्रमा आ गया चोरी से, कभी इंद्र आ गए चोरी से। तो पत्नियां भी कुछ साधारण न रही होंगी! क्योंकि कहानियां नहीं कहतीं कि राजाओं की पत्नियों के लिए देवता तरसते थे। कहानियां तो साफ हैं।

एक कहानी नहीं कहती कि राजाओं की पत्नियों से, राजमहल की पत्नियों से देवता तरसते थे। लेकिन ऋषि-मुनियों की पत्नियों से तरस जाते थे। सौंदर्य भी रहा होगा, ध्यान की गरिमा भी रही होगी तो सौंदर्य हजार गुना हो जाता है। तो सुंदर पत्नियां थीं। कभी-कभी ऐसा भी हो जाता था, कि गुरु का शिष्य भी गुरु की पत्नी के प्रेम में पड़ जाता था। कभी ऐसा भी हो जाता था कि गुरुकुल में पढ़ते हुए युवक और युवतियां…दोनों पढ़ते थे। तुम्हें शकुंतला की कथा तो याद ही है कि कभी राजा भी गुरुकुल में पढ़ती हुई युवतियों को देखकर मोहित हो उठता था। सुंदर थे, वैभव था, ऐश्वर्य था। जीवन के जीने की एक शैली थी; दरिद्रता, दीनता, सिकुड़ाव नहीं था।

इस देश में सिकुड़ाव की शुरुआत हुई जैनों और बौद्धों के प्रभाव से। जैनों और बौद्धों के प्रभाव में इस देश की संस्कृति मरी। जैनों और बौद्धों के प्रभाव में नकार पैदा हुआ, निषेध पैदा हुआ। और उनके साथ ही इस देश का पतन शुरू हुआ। कलिंग का पतन नहीं, एकाध सभ्यता का पतन नहीं, इस देश का पतन जैनों और बौद्धों के निषेध के कारण शुरू हुआ। दीनता और दरिद्रता, तपश्चर्या और जीवन-निषेध, इनके कारण इस देश का पतन शुरू हुआ। यह देश सिकुड़ता चला गया…। धीरे-धीरे इस देश ने सारी सामर्थ्य खो दी। कितने विदेशी आए, और यह देश सबसे हारता चला गया।

कहै वाजिद पुकार 

ओशो 

चुनौती से मत भागना।

मेरी मान्यता है, तुम जितनी चुनौतियों का सामना करोगे, उतना ही तुम्हारे भीतर जागरण बढ़ेगा। हर चुनौती का सामना करना विकास है। हर चुनौती एक सोपान है, एक सीढ़ी है। हर चुनौती तुम्हें जगाने का एक अवसर है। अगर तुम जरा कला सीख जाओ जागने की: वही ध्यान है कला, तो तुम हर चुनौती से लाभ उठा लोगे। जो चुनौती अगर तुम बेहोश उसका सामना करो तो नर्क ले जाती है, वही चुनौती होशपूर्वक सामना करने से स्वर्ग बन जाती है।

चीन का एक सम्राट एक झेन फकीर के पास गया और उसने कहा कि मैं जानना चाहता हूं स्वर्ग और नर्क होते हैं या नहीं? इसका मुझे प्रमाण चाहिए। मैं बातचीत सुनने नहीं आया। शास्त्र मैंने सब पढ़े हैं, और बड़े-बड़े ज्ञानियों की बातें सुनी हैं, मगर मैं यह प्रमाण चाहता हूं कि स्वर्ग और नर्क होते हैं या नहीं? उस फकीर ने सम्राट की तरफ देखा और कहा: तुम हो कौन? सम्राट ने कहा कि आपको समझ में नहीं आता कि मैं कौन हूं? मैं सम्राट हूं! वह फकीर हंसने लगा, बोला: हाऱ्हा, शकल देखी है आईने में? उल्लू के पट्ठे! मक्खियां भिनभिना रही हैं! सम्राट! सम्राट तो एकदम आगबबूला हो गया कि यह तो हद्द हो गई! इस तरह का अपमान कभी किसी ने किया नहीं था।…भूल गया, निकाल ली तलवार। तलवार चमक गई! फकीर की गर्दन के पास जा रही थी, फकीर ने कहा: एक क्षण रुक, यही नरक का द्वार है। एक क्षण रुकना उस घड़ी में, और बात समझ में आ गई सम्राट को कि नरक का द्वार यही है। तलवार वापिस म्यान में गई। सम्राट के चेहरे का भाव बदला। और फकीर ने कहा: यही स्वर्ग का द्वार है।

स्वर्ग और नर्क दूर-दूर नहीं हैं। एक ही चुनौती; कैसे ली, इस पर निर्भर करता है। वही चुनौती है। क्रोध की चिनगारी फेंकी गई, तुम उत्तप्त हो गए, ज्वर-ग्रस्त हो गए, निकाल ली तलवार नर्क हो गया! जलोगे आग में; कल नहीं, अभी यहीं। आग पैदा हो गई। रख दी तलवार। बोध हुआ, होश आया कि यह मैं क्या कर रहा हूं? यही स्वर्ग का द्वार है। चुनौती वही है। 

चुनौती से मत भागना।

कहे वाजिद पुकार 

ओशो 

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