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Thursday, September 3, 2015

गुरु

बिना गुरु के अक्सर शिष्य दलदल में भटक जाता है। इसलिए उतरना ही नहीं अच्छा है। झंझट में पड़ना ही नहीं बेहतर। फिर संसार ही बेहतर है। फिर स्वयं की तरफ जाना खतरनाक है। क्योंकि तुम विक्षिप्त होकर लौटोगे, अकेले गये तो। लौट भी आओगे तो फिर ऐसे न रहोगे जैसे अब हो। क्योंकि अपने सब झूठ देख कर आ जाओगे। पैर कंप जायेंगे। पूरा भवन हिल जायेगा। जैसे एक भूकंप आ गया। सब चीज अस्त-व्यस्त हो जायेगी। फिर तुम लौट भी आओगे, तो भी तुम्हारी दशा विक्षिप्त की होगी। इसलिए बिना गुरु के बहुत से शिष्य विक्षिप्त हो जाते हैं। न तो इस संसार के रह जाते, न उस संसार के रह जाते। न घर के, न घाट के, बीच में खड़े रह जाते हैं। और बड़ी मुसीबत हो जाती है। इससे तो बेहतर संसार में चुपचाप चलते रहना अच्छा है। कम से कम कहीं तो हो! कुछ तो मानते हो कि ठीक है। वह झूठ ही हो, सपना ही सही, लेकिन अकेले अगर भीतर चले गये तो सपना भी पता चल जाता है। और घबड़ा कर वापिस आ गये सत्य जानने के पहले, तो बड़ी कठिनाई में पड़ जाओगे।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पागलखानों में बंद नब्बे प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिन्होंने जीवन के सत्य की थोड़ी सी झलक पा ली। तुम हैरान होओगे यह सुन कर, पश्चिम में बड़ा विचार चलता है कि पागलखाने में हमने जिनको बंद किया है, वे सच में सब पागल हैं? या उनमें से अधिक लोग ऐसे हैं, जिन्हें जीवन का सत्य थोड़ा सा दिखाई पड़ गया, झूठ उखड़ गये जिनके?

तुम्हीं सोचो, अगर तुम चौबीस घंटे सचाई का प्रयोग करो और झूठ बिलकुल बंद कर दो, तो सारी दुनिया समझेगी कि तुम पागल हो गये। सुबह ही तुम रास्ते पर निकलोगे और एक आदमी आता है, तुम्हारे मन में होता है, यह दुष्ट कहां से दिखाई पड़ गया सुबह! हालांकि जब तुम मिलते हो तब नमस्कार करके कहते हो कि बड़ी कृपा हुई कि सुबह से दिखाई पड़ गये, शुभ दर्शन हुआ। आज का दिन अच्छा जायेगा। काश! तुम सच ही कह दो, कि यह अपनी शनीचरी शकल क्यों सुबह से दिखाते हो? गया, खराब हुआ यह पूरा दिन अब। कम से कम सुबह तो घर के बाहर न निकला करें।

चौबीस घंटे अगर तुम तय कर लो कि सच ही कहोगे, तुम पागल हो जाओगे। तुम्हारे घर के लोग ही तुम्हें बांध कर कोठरी में बंद कर देंगे। झूठ हो, तो तुम ठीक हो। सच हुए, तो तुम पागल हो जाओगे। क्योंकि लोग कहेंगे, यह जरूर कुछ गड़बड़ हो गई। क्योंकि चारों तरफ झूठ का समाज है। इस समाज में जागना बड़ा कठिन है।
इसलिए कोई गुरु चाहिए, जो तुम्हें झूठ के पार ले जाये। और तब तक तुम्हारा साथ दे जब तक तुम्हें सच का पता न चल जाये। क्योंकि यह झूठ जिसको तुमने अभी सच समझ रखा है, जिससे तुम एडजस्टेड हो, योजित हो, टूट जाये और नये सत्य का अनुभव न हो। यह नाव छूट जाये, माना कि कागज की है, तो भी नाव तो है! और असली नाव न मिले। यह घाट खो जाये और दूसरे किनारे का पता न मिले और तुम मझधार में पड़ जाओ। दूसरा किनारा जरूर है, लेकिन दूसरे किनारे तक जाना तो पड़ेगा। और यह किनारा छोड़ना खतरे से खाली नहीं है।

सामान्य आदमी बिना गुरु के चेष्टा करे तो विक्षिप्त हो जायेगा। अगर गुरु के साथ चेष्टा करे तो विमुक्त हो जायेगा। विमुक्त और विक्षिप्त दो अवस्थायें हैं तुमसे अलग। तुम दोनों में से किसी में भी जा सकते हो। और इसलिए एक-एक कदम सम्हाल कर रखना जरूरी है। कोई जो जा चुका हो, कोई जो तुमसे आगे हो, जिसने दूसरा किनारा देखा हो, जिसे रास्ते का पता हो, जो कम से कम इतना तो कर ही सके कि तुम्हें भरोसा दे सके, कि घबड़ाओ मत। बस, जरा और!

दिया तले अँधेरा

ओशो 

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