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Sunday, September 6, 2015

मैत्री

        विवेकानंद अमरीका जाते थे। रामकृष्ण की तो मृत्यु हो गई थी। रामकृष्ण की पत्नी शारदा से वे आशा मांगने गए कि मैं जाता हूं परदेश, खबर ले जाना चाहता हूं धर्म की, सत्य की। मुझे आशीर्वाद दें कि मैं सफल होऊं।

        शारदा तो ग्रामीण स्त्री थी। वे उससे आशीर्वाद लेने गए। उन्होंने सोचा भी न था कि शारदा आशीर्वाद देने में भी सोच विचार करेगी। उसने विवेकानंद को नीचे से ऊपर तक देखा। वह अपने चौके में खाना बनाती थी। फिर बोली सोच कर बताऊंगी।

 
       विवेकानंद ने कहा सिर्फ आशीर्वाद मांगने आया हूं शुभाशीष चाहता हूं तुम्हारी मंगलकामना कि मैं जाऊं और सफल होऊं।

    उसने फिर उन्हें गौर से देखा और उसने कहा ठीक है। सोच कर कहूंगी।

    विवेकानंद तो खड़े रह गए अवाक। कभी आशीर्वाद भी किसी ने सोच कर दिए हों और आशीर्वाद सिर्फ मांगते थे शिष्टाचारवश। वह कुछ सोचती रही और फिर उसने कहा विवेकानंद को कि नरेन्द्र, वह जो सामने पड़ी हुई छुरी है, वह उठा लाओ। सामने पड़ी हुई छुरी विवेकानंद उठा लाए और शारदा के हाथ में दी। हाथ में देते ही वह हंसी और उसकी हंसी से उन्हें आशीर्वाद बरस गए उनके ऊपर। उसने कहा कि जाओ। जाओ, तुमसे सबका मंगल ही होगा। विवेकानंद कहने लगे कि इस छुरी के उठाने में और तुम्हारे आशीर्वाद देने में कोई संबंध था क्या?

         शारदा ने कहा संबंध था। मैं देखती थी कि छुरी उठा कर तुम किस भांति मुझे देते हो। मूठ तुम पकड़ते हो कि फलक तुम पकड़ते हो। मूठ मेरी तरफ करते हो कि फलक मेरी तरफ करते हो। और आश्चर्य कि विवेकानंद ने फलक अपने हाथ में पकड़ा था छुरी का और मूठ लकड़ी की शारदा की तरफ की थी। आमतौर से शायद ही कोई फलक को पकड़ कर और मूठ दूसरे की तरफ करे। मूठ कोई पकड़ेगा सहज, खुद। शारदा कहने लगी तुम्हारे मन में मैत्री का भाव है, तुम जाओ, तुमसे कल्याण होगा। तुमने फलक अपनी तरफ पकड़ा, मूठ मेरी तरफ। अपने को असुरक्षा में डाला। हाथ में चोट लग सकती है और मेरी सुरक्षा की फिकर की। तुम जाओ, आशीर्वाद मेरे तुम्हारे साथ हैं।

         इतनी सी, छोटी सी घटना में मैत्री प्रकट होती है, साकार बनती है। बहुत छोटी सी घटना है! क्या है मूल्य इसका कि क्या पकड़ा आपने, फलक या मूठ? शायद हम सोचते भी नहीं। और सौ में निन्यानबे मौके पर कोई भी मूठ ही पकड़ता है। वह सहज मालूम होता है। अपनी रक्षा सहज मालूम होती है, आत्मरक्षा सहज मालूम होती है।

       मैत्री आत्मरक्षा से भी ऊपर उठ जाती है। दूसरे की रक्षा, वह जो जीवन है हमारे चारों तरफ, उसकी रक्षा महत्वपूर्ण हो जाती है। मैत्री का अर्थ है. मुझसे भी ज्यादा मूल्यवान है सब कुछ जो है। वैर का अर्थ है मैं सबसे ज्यादा मूल्यवान हूं। सारा जगत मिट जाए, लेकिन मेरी रक्षा जरूरी है। मैं हूं केंद्र जगत का। वैर भाव का आधार है मैं हूं केंद्र जगत का। वैर भाव ईगोसेंट्रिक है। वह अहंकेंद्रित है। मैं हूं जगत का केंद्र। सारा जगत चलता है मेरे लिए, सारा जगत मिट जाए, लेकिन मैं बचूं।

          मैत्री का केंद्र मैं नहीं हूं सर्व है। मैं मिट जाऊं, सब बचे। मैं खो जाऊं, सब रहे। मैत्री है मंगल की कामना, सर्वमंगल की। कामना ही नहीं, सक्रिय जीवन भी। उठूं, बैठूं, चलूं  और मेरा उठना, बैठना, चलना, मेरा श्वास लेना भी सर्वमंगल के लिए समर्पित हो जाए; तो मनुष्य परमात्मा के दूसरे द्वार में प्रवेश पाता है।

साधना शिविर
 नारगोल

ओशो 

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