मैत्री का अर्थ है सक्रिय करुणा, एक्टिव कंपेशन। जब करुणा सक्रिय हो
जाती है तो मैत्री बन जाती है। लेकिन मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं है।
मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं है, फ्रेंडशिप नहीं है। मैत्री का अर्थ है.
फ्रेंडलीनेस। मैत्री का अर्थ है मित्रत्व। और इन दोनों में सबसे पहले फर्क
समझ लेना जरूरी है। और यह फर्क बहुत गहरा है। आमतौर से हम समझेंगे कि
मैत्री का अर्थ है मित्रता। नहीं, मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं- मित्रत्व।
इनमें फर्क क्या होगा
मित्रता जब तक रहेगी तब तक शत्रुता भी रहेगी। जिनके कोई मित्र होते हैं उनके शत्रु भी होते हैं। मैत्री का अर्थ है वैर भाव समाप्त हो गया। अब कोई शत्रुता शेष न रही। मित्रता में शत्रुता की गंध बाकी रहेगी, मैत्री में शत्रुता तिरोहित हो गई। अब कोई शत्रुता का सवाल न रहा। जो मित्र बनाता है वह शत्रु भी बना लेता है, लेकिन जो मैत्री भाव को जगाता है उसका कोई शत्रु नहीं रह जाता। मित्रता में मित्र का गुण और योग्यता महत्वपूर्ण होते हैं। मैत्री भाव में गुणों की, योग्यता की कोई अपेक्षा नहीं। मैं अगर आपसे मित्रता करूं तो आपकी योग्यता, आपके गुण महत्वपूर्ण होंगे, उनको देख कर मित्रता बनेगी। अगर वे गुण मिट जाएंगे तो शत्रुता आ जाएगी।
मित्रता आप पर निर्भर है, मित्रता दूसरे पर निर्भर है। मैत्री का भाव मुझ पर निर्भर है, दूसरे से उसका कोई संबंध नहीं। मैत्री मेरी अंतर्भाव दशा है, इसलिए मैत्री को मैं कह रहा हूं मित्रत्व, फ्रेंडलीनेस-फ्रेंडशिप नहीं।
यह मैत्री क्या है?
और मैंने कहा है कि मैत्री है सक्रिय करुणा। करुणा जब साकार हो उठती है, सगुण हो जाती है; करुणा जब सक्रिय हो उठती है और काम में संलग्न हो जाती है, तब वह मैत्री बनती है। पहले तो करुणा का जन्म होता है हृदय में, उतरती है वह। प्राण भर जाते हैं अनुकंपा से, कंपेशन से, करुणा से। जैसे बादल भर जाते हैं पानी से, फिर बादल बरसते हैं, फिर खाली करते हैं अपने को, उड़ेल देते हैं और तब पृथ्वी तक पहुंच पाते हैं, फिर बीज अंकुरित होते हैं, पृथ्वी की प्यास बुझती है। करुणा है हृदय में उठा हुआ बादल। फिर जब वह व्यक्तित्व के सब द्वारों से प्रकट होने लगता है, और व्यक्तित्व के सारे द्वारों से वे जलस्रोत बहने लगते हैं और अनंत तक पहुंचने लगते हैं, तब वह मैत्री बन जाती है।
साधना शिविर
नारगोल
ओशो
मित्रता जब तक रहेगी तब तक शत्रुता भी रहेगी। जिनके कोई मित्र होते हैं उनके शत्रु भी होते हैं। मैत्री का अर्थ है वैर भाव समाप्त हो गया। अब कोई शत्रुता शेष न रही। मित्रता में शत्रुता की गंध बाकी रहेगी, मैत्री में शत्रुता तिरोहित हो गई। अब कोई शत्रुता का सवाल न रहा। जो मित्र बनाता है वह शत्रु भी बना लेता है, लेकिन जो मैत्री भाव को जगाता है उसका कोई शत्रु नहीं रह जाता। मित्रता में मित्र का गुण और योग्यता महत्वपूर्ण होते हैं। मैत्री भाव में गुणों की, योग्यता की कोई अपेक्षा नहीं। मैं अगर आपसे मित्रता करूं तो आपकी योग्यता, आपके गुण महत्वपूर्ण होंगे, उनको देख कर मित्रता बनेगी। अगर वे गुण मिट जाएंगे तो शत्रुता आ जाएगी।
मित्रता आप पर निर्भर है, मित्रता दूसरे पर निर्भर है। मैत्री का भाव मुझ पर निर्भर है, दूसरे से उसका कोई संबंध नहीं। मैत्री मेरी अंतर्भाव दशा है, इसलिए मैत्री को मैं कह रहा हूं मित्रत्व, फ्रेंडलीनेस-फ्रेंडशिप नहीं।
यह मैत्री क्या है?
और मैंने कहा है कि मैत्री है सक्रिय करुणा। करुणा जब साकार हो उठती है, सगुण हो जाती है; करुणा जब सक्रिय हो उठती है और काम में संलग्न हो जाती है, तब वह मैत्री बनती है। पहले तो करुणा का जन्म होता है हृदय में, उतरती है वह। प्राण भर जाते हैं अनुकंपा से, कंपेशन से, करुणा से। जैसे बादल भर जाते हैं पानी से, फिर बादल बरसते हैं, फिर खाली करते हैं अपने को, उड़ेल देते हैं और तब पृथ्वी तक पहुंच पाते हैं, फिर बीज अंकुरित होते हैं, पृथ्वी की प्यास बुझती है। करुणा है हृदय में उठा हुआ बादल। फिर जब वह व्यक्तित्व के सब द्वारों से प्रकट होने लगता है, और व्यक्तित्व के सारे द्वारों से वे जलस्रोत बहने लगते हैं और अनंत तक पहुंचने लगते हैं, तब वह मैत्री बन जाती है।
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