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Monday, October 5, 2015

स्रोतापन्न

‘पृथ्वी का अकेला राजा होने से चक्रवर्ती होने से या स्वर्ग के गमन से देवता होने से अथवा सभी लोकों का अधिपति बनने से भी स्रोतापत्ति फल श्रेष्ठ है।’

जो ध्यान की सरिता में उतर गया, उसको बौद्ध भाषा में कहते हैं, स्रोतापन्न। वह स्रोत की तरफ चल पड़ा। हम तो ऐसे लोग हैं जो किनारे पर खड़े हैं। नदी में उतरते नहीं, बस किनारे पर खड़े हैं। नदी बही जा रही है, पीते तक नहीं, क्योंकि पीने के लिए झुकना पड़ेगा। उतरते नहीं, क्योंकि डरते हैं, कहीं गल न जाएं। क्योंकि जो झूठ हमने बना रखी है अपने जीवन में, वह निश्चित गल जाएगी। जो प्रतिमा हमने अपनी मान रखी है, वह बह जाएगी, तो घबड़ाहट है। और हमें भीतर का तो कुछ पता नहीं है, तो हम ध्यान की धारा में उतरते नहीं। ध्यान की धारा में जो उतरता है, उसे कहते हैं स्रोतापन्न।
 
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक, जो जीवन में लक्ष्य की तरफ दौड़ रहे हैं। लक्ष्य का मतलब धन पाना है, पद पाना है। स्रोतापन्न दूसरे तरह के लोग हैं, जो स्रोत की तरफ जा रहे हैं। जो लक्ष्य की तरफ नहीं जा रहे हैं, जिनकी सारी खोज यह है कि हम आए कहा से? उस मूलस्रोत को पकड़ लेना है। उसे पकड़ लिया तो सब पकड़ लिया। क्योंकि जहां से हम आए, अंततः वहीं जाना है। गंगा गंगोत्री में ही लौट जाती है। बीज वृक्ष बनता है और फिर बीज बन जाता है, वर्तुल पूरा हो जाता है। हम जहां से आए वहीं लौट जाना है स्रोत, मूलस्रोत की तरफ।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

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