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Friday, August 14, 2015

गुलामी

महापुरुष मुक्त हो जाता है, और हम अजीब पागल लोग हैं, हम उसी मुक्त महापुरुष से बंध जाते हैं!

समस्त वाद बांध लेते हैं। वाद से छूटे बिना जीवन में क्रांति नहीं हो सकती। लेकिन यह खयाल भी नहीं आता कि हम बंधे हुए लोग हैं।

अगर मैं अभी कहूं कि हिंदू धर्म व्यर्थ है, या मैं कहूं कि इस्लाम व्यर्थ है, या मैं कहूं कि गांधीवाद से छुटकारा जरूरी है, तो आपके मन को चोट लगेगी। और अगर चोट लगे, तो आप समझ लेना कि आप बंधे हुए आदमी हैं। चोट किसको लगती है? चोट का कारण क्या है? चोट कहां लगती है हमारे भीतर……?

चोट वहीं लगती है, जहां हमारे बंधन हैं। जिस चित्त पर बंधन नहीं है, उसे कोई भी चोट नहीं लगती।
‘इस्लाम खतरे में है’ यह सुनकर वे जो इस्लाम के बंधन में बंधे है-खड़े हो जायेंगे युद्ध के लिए, संघर्ष के लिए! उनके छुरे बाहर निकल आयेंगे! ‘हिन्दू- धर्म खतरे में है’ -सुनकर, वे जो हिंदू- धर्म के गुलाम हैं, वे खड़े हो जायेंगे लड़ने के लिए! और अगर कोई मार्क्स को कुछ कह दे तो जो मार्क्स के गुलाम हैं वे खड़े हो जाएंगे, और अगर कोई गांधी को कह दे, तो जो गांधी के गुलाम हैं, वे खड़े हो जायेंगे! लेकिन वह और यह गुलामी किसी के साथ भी हो सकती है। मेरे साथ भी हो सकती है…।

अभी मुझे पता चला कि बंबई में किसी ने अखबार में मेरे संबंध में कुछ लिखा होगा। तो किन्हीं मेरे दो मित्रों ने उन मित्र को रास्ते में कहीं पकड़ लिया और कहा कि अब अगर आगे कुछ लिखा तो तुम्हारी गर्दन दबा देंगे। मुझे जिस मित्र ने यह बताया, तो मैंने उन्हें कहा कि जिन्होंने उनको पकड़ कर कहा कि गर्दन दबा देंगे-वे मेरे गुलाम हो गये। वे मुझसे बंध गये।

……मैं अपने से नहीं बांध लेना चाहता हूं किसी को। मैं चाहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति किसी से बंधा हुआ न रह जाये। एक ऐसी चित्त की दशा हमारी हो कि हम किसी से बंधे हुए न हों। उसी हालत में क्रांति तत्काल होनी शुरू हो जाती है। एक एक्सप्लोजन, एक विस्फोट हो जाता है। जो आदमी किसी से भी बंधा हुआ नहीं है, उसकी आला पहली दफा अपने पंख खोल लेती है, और खुले आकाश में उड़ने के लिए तैयार हो जाती है।

हमारे पैर गड़े हैं जमीन में, और इस पर हम पूछते हैं कि चित्त दुखी है, अशांत है, परेशान है! आनंद कैसे मिले? परमात्‍मा कैसे मिले? सत्य कैसे मिले? मोक्ष कैसे मिले? निर्वाण कैसे मिले?

कहीं आकाश में नहीं है निर्वाण। कहीं दूर सात आसमानों के पार नहीं है मोक्ष। यहीं है, और अभी है। और उस आदमी को उपलब्ध हो जाता है, जो कहीं भी बंधा हुआ नहीं है। जिसकी कोई क्लिंगिंग नहीं है। जिसके हाथ, किसी दूसरे के हाथ को नहीं पक्के हुए है। वह अकेला है, और अकेला खड़ा है। और जिसने इतना साहस और इतनी हिम्मत जुटा ली है कि अब वह किसी का अनुयायी नहीं है, किसी के पीछे चलनेवाला नहीं है, किसी का अनुकरण करनेवाला नहीं है। अब: वह किसी का मानसिक गुलाम नहीं है, किसी का मेंटल स्लेव नहीं है।

….. लेकिन हम कहेंगे कि हम जैन हैं और कभी नहीं सोचेंगे कि हम महावीर के मानसिक गुलाम हो गये! हम कहेंगे कि हम कमुनिस्ट हैं और कभी नहीं सोचेंगे कि हम मार्क्स और लेनिन के मानसिक गुलाम हो गये! हम कहेंगे कि हम गांधीवादी हैं और कभी नहीं सोचेंगे कि हम गांधी के गुलाम हो गये!

दुनिया में गुलामों की कतारें लगी हैं। गुलामियों के नाम अलग-अलग हैं, लेकिन गुलामियां कायम हैं। मैं आपकी गुलामी नहीं बदलना चाहता कि एक आदमी से आपकी गुलामी छुड़ाकर दूसरे की गुलामी आपको पकड़ा दी जाये। उससे कोई- फर्क नहीं पड़ता। वह वैसे ही है, जैसे लोग मरघट लाश को ले जाते हैं कंधे पर रखकर तो जब एक आदमी का कंधा दुखने लगता है, तो दूसरा आदमी अपने कंधे पर रख लेता है। थोड़ी देर में दूसरे का कंधा दुखने लगता है, तो तीसरा अपने कंधे पर रख लेता है।

आदमी गुलामियों के कंधे बदल रहा है। अगर गांधी से छूटता है तो मार्क्स को पकड़ लेता है; महावीर से छूटता है तो मुहम्मद को पकड़ लेता है; एक वाद से छूटता तो फौरन दूसरे वाद को पकड़ने का इंतजाम कर लेता है।
…. लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि मैं कहता हूं यह गलत है, वह गलत है। वे पूछते है, आप हमें यह बताइये कि सही क्या है? वे असल में यह पूछना चाहते हैं कि फिर हम पकड़े क्या, वह हमें बताइये। जब तक हमारे पास पकड़ने को कुछ न हो, तब तक हम कुछ छोड़ेंगे नहीं!

और मैं आपसे कह रहा हूं पकड़ना गलत है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप क्या पकड़े, मैं आपसे कह रहा हूं कि पकड़ना ही गलत है। क्लिंगिंग एज सच। चाहे वह पकड़ गांधी से हो, या बुद्ध से हो, या मुझसे हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पकड़ने वाले चित्त का स्वरूप एक ही है कि पकड़ने वाला चित्त खाली नहीं रहना चाहता। वह चाहता है कहीं न कहीं उसकी मुट्ठी बंधी रहे। उसे कोई सहारा होना चाहिए। और जब तक कोई आदमी किसी का सहारा खोजता है, तब तक उसकी आला के पंख खुलने की स्थिति में नहीं आते। जब आदमी बेसहारा हो जाता है, सारे सहारे छोड़ देता है, हैल्पलेस होकर खड़ा हो जाता है, और जानता है कि मैं बिलकुल अकेला हूं कहीं किसी के कोई चरण-चिन्ह नहीं हैं…।

…… कहा हैं महावीर के चरण-चिन्ह, जिन पर आप चल रहे हैं? कहां हैं कृष्ण के चरण-चिन्ह, जिन पर आप चल रहे हैं? जीवन खुले आकाश की भांति है, जिस पर किसी के चरण-चिन्ह नहीं बनते। किसको पकड़े हैं आप? कहां हैं कृष्ण के हाथ? कहां हैं गांधी के चरण, जिनको आप पकड़े है?

सिर्फ आंख बंद करके सपना देखू रहे हैं। सपने देखने से कोई आदमी मुक्त नहीं होता। न गांधी के चरण आपके हाथ में हैं, न कृष्ण के, न राम के। किसी के चरण आपके हाथ में नहीं है। आप अकेले खड़े हैं। आंख बंद करके कल्पना कर रहे हैं कि मैं किसी को पकड़े हुए हूं। जितनी देर तक आप यह कल्पना किये हुए हैं, उतनी देर तक आपकी आत्मा के जागरण का अवसर पैदा नहीं होता। और तब तक आपके जीवन में वह क्रांति नहीं हो सकती, जो आपको सत्य के निकट ले आये। न जीवन में वह क्रांति हो सकती है कि जीवन के सारे पर्दे खुल जायें; उसका सारा रहस्य खुल जाये, उसकी मिस्ट्री खुल जाये और आप जीवन को जान सकें, और देख सकें।

बंधा हुआ आदमी आंखों पर चश्मा लगाये हुए जीता है। वह खिड़कियों में से, छेदों में से देखता है दुनिया को। जैसे कोई एक छेद कर ले दीवाल में और उसमें से देखे आकाश को, तो उसे जो भी दिखायी पड़ेगा, वह उस छेद की सीमा से बंधा होगा, वह आकाश नहीं होगा। जिसे आकाश देखना है, उसे दीवालों के बाहर आ जाना चाहिये। और कई बार कितनी छोटी चीजें बांध लेती हैं, हमें पता भी नहीं चलता!


 सम्भोग से समाधी की ओर

ओशो 


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