पूछो पृथ्वी से, पूछो वायु से, पूछो आकाश से, जल से-लेकिन वे तुमसे बाहर हैं और उन्होंने जो भी छिपा रखा है, वह तुमसे बाहर की घटना है। वे तुम्हें बुद्धों के संबंध में बता सकेंगे, तीर्थंकरों के संबंध में, क्राइस्टों, कृष्णों के संबंध में, लेकिन असली रहस्य तो तुम्हारे भीतर ही छिपा है।
तुम्हारा अंतरतम अनंत से यात्रा कर रहा है। अनंत उसके अनुभव हैं। तुम क्या नहीं रहे हो? तुम कभी पत्थर थे, कभी तुम पौधे थे, कभी तुम पक्षी थे, कभी तुम पशु थे, कभी तुम स्त्री थे, कभी तुम पुरुष थे, कभी तुम साधु थे और कभी तुम चोर थे। ऐसा कोई भी अनुभव नहीं है, जो तुम्हें नहीं हो चुका है। ऐसी कोई अवस्था नहीं है, जिससे तुम पार नहीं हुए हो। तुमने नर्क भी जाने हैं, तुमने स्वर्ग भी। तुमने दुख भी, तुमने सुख भी। तुमने पीड़ाओं का संताप झेला है और आत्महत्याएं की हैं। और तुमने विनाश भी किया है, हिंसाएं की हैं। तुमने सृजन का सुख भी जाना है। तुमने जन्म भी दिया है, तुमने निर्माण भी किया है, तुमने बनाया भी है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तुमसे न गुजर गया हो, जिससे तुम न गुजर गए हो। तुम्हारे अंतरतम में वह धरोहर सुरक्षित है। तुमने जो भी जीया है, और जो भी जाना है, और जो भी किया है, उस सबका सार संचित है। उस सारे अनुभव का निचोड़ तुम्हारे गहन में छिपा है। इससे भी तुम पूछो, इसको भी तुम खोलो। इसके खुलते ही तुम्हें जीवन का सारा रहस्य खुल जाएगा। क्योंकि तुम जीवन को जीए हो, तुम स्वयं जीवन हो।
ऐसा कुछ भी नहीं है इस जगत में जो अपरिचित हो तुम्हें। लेकिन तुम भूल भूल गए हो। और हर नए शरीर के साथ तुमने नया अहंकार निर्मित कर लिया है। और हर नए अहंकार के साथ तुम्हें विस्मृति हो गई है अतीत की। तुम्हें ख्याल नहीं रहा है कि पीछे क्या हुआ। इसलिए तुम अपनी ही धरोहर को भूलते चले गए हो। तुमने ही जो संचित किया है, उसका भी तुम उपयोग नहीं कर पाते हो। और इसलिए तुम बार बार वही भूलें दोहराते हो, जिनको तुम बहुत बार कर चुके हो।
महावीर निरंतर अपने शिष्यों को जातिस्मरण का आग्रह करते थे। वे कहते थे, पहले तुम पिछले जन्मों का स्मरण करो। उन्होंने इसे अपनी पद्धति का आधारभूत बना रखा था। वे कहते थे, जब तक तुम्हें याद न आ जाए पिछला जन्म, तब तक तुम वही भूलें दोहराओगे, जो तुम अभी दोहरा रहे हो। क्योंकि तुम भूल ही जाते हो कि तुम यह काम कर चुके हो।
तुमने बहुत बार धन इकट्ठा किया है, यह कोई पहला मौका नहीं है। और बहुत बार धन इकट्ठा करके तुम असफल हुए हो और फिर तुम वही कर रहे हो। तुमने बहुत बार मकान बनाए हैं और वे उजड़ गए हैं, और आज उनका कोई नामोनिशान नहीं है। लेकिन तुम फिर बड़े मकान बना रहे हो और फिर तुम सोच रहे हो कि ये मकान सदा रहेंगे, और जैसे कि तुम सदा इन मकानों में रहोगे! तुमने पहले भी स्त्रियों को और पुरुषों को प्रेम किया है, और सब प्रेम व्यर्थ गए हैं, और तुमने कुछ उपलब्ध नहीं किया है। लेकिन तुम फिर वही कर रहे हो और तुम सोच रहे हो जैसे जीवन की संपदा स्त्रीपुरुषों के संबंध से उपलब्ध हो जाएगी! तुमने पहले भी बच्चे पैदा किए हैं, तुमने पहले भी उन्हें बड़ी महत्वाकांक्षा से बड़ा किया था और वे सब व्यर्थ गए। उन्होंने तुम्हें कभी तृप्त नहीं किया है। क्योंकि जो स्वयं को तृप्त नहीं कर पाता, उसे कोई दूसरा कैसे तृप्त कर सकेगा? लेकिन तुम फिर—फिर वही कर रहे हो! तुम चक्के की तरह घूम रहे हो, जिसके आरे बारबार नीचे जाते हैं और बारबार ऊपर आ जाते हैं, और चाक घूमता चला जाता है। हर बार जब तुम्हारा कोई आरा ऊपर आता है, तो तुम सोचते हो कि कोई नई घटना घट रही है। लेकिन तुम अनंत बार उन घटनाओं से गुजर चुके हो।
तो महावीर कहते थे कि तुम पीछे लौट जाओ, थोड़ा स्मरण कर लो अपने पिछले जन्मों का। तो फिर तुम उन भूलों को दोबारा न दोहराओगे। तब तुम समझोगे कि तुम जो कर रहे हो, वह पुनरुक्ति है। पुनरुक्ति व्यर्थ है, उसका कोई अर्थ नहीं है।
लेकिन तुम्हारे भीतर सब छिपा है। सब छिपा है, कुछ भी खोता नहीं। जो भी तुम्हारे ज्ञान में एक बार आ गया है, वह तुम्हारा हिस्सा हो गया है। यह तो है ही, इससे भी बड़ी चीज तुम्हारे भीतर छिपी है, और वह है इस जगत का प्रारंभ। क्योंकि तुम प्रारंभ में साक्षी थे। यह सृष्टि जब शुरू हुई, तब तुम साक्षी थे, क्योंकि तुम कभी शुरू नहीं हुए। तुम उसका हिस्सा हो, जो कभी शुरू नहीं होता। सृष्टियां बनती हैं और विलीन हो जाती हैं। सृष्टियां आती हैं, समाप्त हो जाती हैं। लेकिन तुम उस चैतन्य के हिस्से हो, तुम उस चैतन्य की किरण हो, जो सृष्टि के बनने के क्षण में मौजूद होती है, जो सृष्टि को बनाती है कहना चाहिए। और जब सृष्टि विसर्जित होती है, तब भी साक्षी होता है। चैतन्य कभी नष्ट नहीं होता। उस परम—चैतन्य के तुम हिस्से हो। तुम्हें सृष्टि के जन्म का क्षण भी मालूम है क्योंकि तुमने ही इसे जन्म दिया है, तुम भागीदार थे। वह तुम्हारे गहरे अंतरतम में छिपी है घटना। तुम लोगों से पूछते फिरते हो कि जगत को किसने बनाया है? तुम्हें पता ही नहीं कि तुम भी भागीदार हो जगत को बनाने में।
लेकिन यह तो तुम भीतर प्रवेश करोगे, तो ही जान सकोगे। तुम्हारे भीतर जगत का अंत भी छिपा है। क्योंकि यह कथा तुमने ही लिखी है। इस कहानी के निर्माता तुम्हीं हो। इस सारी लीला के तुम भागीदार हो। यह परम गुह्य रहस्य भी तुम्हारे भीतर मौजूद है। तुम मृत्यु से भयभीत होते हो, क्योंकि तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारे भीतर अमृत का केंद्र है। तुम डरते हो, कंपते हो क्षुद्र बातों से, जब कि कुछ भी तुम्हें कंपा नहीं सकता, कुछ भी तुम्हें डरा नहीं सकता, क्योंकि कुछ भी तुम्हें मिटा नहीं सकता। लेकिन वह तुम्हारे भीतर छिपा है।
यह सूत्र कहता है, ‘ पूछो अपने ही अंतरतम, उस एक से, जीवन के परम रहस्य को, जो कि उसने तुम्हारे लिए युगों से छिपा रखा है।’
अपने से ही पूछो।
साधनसूत्र
ओशो
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