बाहर जाने वाली श्वास पर जोर दो। और तुम इस विधि का उपयोग मन में अनेक परिवर्तन लाने के लिए कर सकते हो। अगर तुम कब्जियत से पीड़ित हो तो श्वास लेना भूल जाओ, सिर्फ श्वास को बाहर फेंको। श्वास भीतर ले जाने का काम शरीर को करने दो, तुम छोड़ने भर का काम करो। तुम श्वास को बाहर निकाल दो और भीतर ले जाने की फिक्र ही मत करो। शरीर वह काम अपने आप ही कर लेगा, तुम्हें उसकी चिंता नहीं लेनी है। उससे तुम मर नहीं जाओगे। शरीर ही श्वास को भीतर ले जाएगा। तुम छोड़ने भर का काम करो, शेष शरीर कर लेगा। और तुम्हारी कब्जियत जाती रहेगी।
अगर तुम हृदय—रोग से पीड़ित हो तो श्वास को बाहर छोड़ो, लेने की फिक्र मत करो। फिर हृदय—रोग तुम्हें कभी नहीं होगा। अगर सीढ़ियां चढ़ते हुए या कहीं जाते हुए तुम्हें थकावट महसूस हो, तुम्हारा दम घुटने लगे तो तुम इतना ही करो : श्वास को बाहर छोड़ो, लो नहीं। और तब तुम कितनी ही सीढ़ियां चढ़ जाओगे और नहीं थकोगे। क्या होता है?
जब तुम श्वास छोड़ने पर जोर देते हो तो उसका मतलब है कि तुम अपने को छोड़ने को, अपने को खोने को राजी हो, तब तुम मरने को राजी हो। तब तुम मृत्यु से भयभीत नहीं हो। और यही चीज तुम्हें खोलती है, अन्यथा तुम बंद रहते हो। भय बंद करता है। जब तुम श्वास छोड़ते हो तो पूरी व्यवस्था बदल जाती है और वह मृत्यु को स्वीकार कर लेती है। भय जाता रहता है और तुम मृत्यु के लिए राजी हो जाते हो।
और वही व्यक्ति जीता है जो मरने के लिए तैयार है। सच तो यह है कि वही जीता है जो मृत्यु से राजी है। केवल वही व्यक्ति जीवन के योग्य है, क्योंकि वह भयभीत नहीं है। जो व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार करता है, मृत्यु का स्वागत करता है, मेहमान मानकर उसकी आवभगत करता है, उसके साथ रहता है, वही व्यक्ति जीवन में गहरे उतर सकता है।
श्वास बाहर छोड़ो, लेने की फिक्र मत करो और तुम्हारा समस्त चित्त रूपांतरित हो जाएगा। इन सरल विधियों के कारण ही तंत्र प्रभावी नहीं हुआ। क्योंकि हम सोचते हैं कि हमारा मन तो इतना जटिल है, वह इन सरल विधियों से कैसे बदलेगा। मन जटिल नहीं है, मन मूढ़ भर है। और मूढ़ बड़े जटिल होते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति सरल होता है। तुम्हारे चित्त में कुछ भी जटिल नहीं है, वह एक बहुत सरल यंत्र है। अगर तुम उसे समझोगे तो बहुत आसानी से उसे बदल सकते हो।
जब एक कुत्ता मरता है तो दूसरे कुत्तों को कभी यह आभास नहीं होता कि हमारी मृत्यु भी होगी। जब भी मरता है, कोई दूसरा मरता है, तो कोई कुत्ता कैसे कल्पना करे कि मैं भी मरने वाला हूं। उसने कभी अपने को मरते नहीं देखा, सदा किसी दूसरे को ही मरते देखा है। वह कैसे कल्पना करे, कैसे निष्पत्ति निकाले कि मैं भी मरूंगा? पशु को मृत्यु का बोध नहीं है, इसी लिए कोई पशु संसार का त्याग नहीं करता। कोई पशु संन्यासी नहीं हो सकता।
केवल एक बहुत ऊंची कोटि की चेतना ही तुम्हें संन्यास की तरफ ले जा सकती है। मृत्यु के प्रति जागने से ही संन्यास घटित होता है। और अगर आदमी होकर भी तुम मृत्यु के प्रति जागरूक नहीं हो तो तुम अभी पशु ही हो, मनुष्य नहीं हुए हो। मनुष्य तो तुम तभी बनते हो जब मृत्यु का साक्षात्कार करते हो। अन्यथा तुममें और पशु में कोई फर्क नहीं है। पशु और मनुष्य में सब कुछ समान है, सिर्फ मृत्यु फर्क लाती है। मृत्यु का साक्षात्कार कर लेने के बाद तुम पशु नहीं रहे। तुम्हें कुछ घटित हुआ है जो कभी किसी पशु को घटित नहीं होता है। अब तुम एक भिन्न चेतना हो
जब श्वास बाहर जा रही है, जब तुम जीवन से सर्वथा रिक्त हो, तब तुम मृत्यु को छूते हो, तब तुम उसके बहुत करीब पहुंच जाते हो। तब तुम्हारे भीतर सब कुछ मौन और शांत हो जाता है।
इसे मंत्र की तरह उपयोग करो। जब भी तुम्हें थकावट महसूस हो, तनाव महसूस हो तो अ: से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार करो। अल्लाह से भी काम चलेगा—कोई भी शब्द जो तुम्हारी श्वास को समग्रत: बाहर ले आए, जो तुम्हें श्वास से बिलकुल खाली कर दे। जिस क्षण तुम श्वास से रिक्त होते हो उसी क्षण तुम जीवन से भी रिक्त हो जाते हो।
और तुम्हारी सभी समस्याएं जीवन की समस्याएं हैं, मृत्यु की कोई समस्या ही नहीं है। तुम्हारी चिंताएं, तुम्हारे दुख—संताप, तुम्हारा क्रोध, सब जीवन की समस्याएं हैं। मृत्यु तो समस्याहीन है, मृत्यु असमस्या है। मृत्यु कभी किसी को समस्या नहीं देती है। तुम भला सोचते हो कि मैं मृत्यु से डरता हूं कि मृत्यु समस्या पैदा करती है, लेकिन हकीकत यह है कि मृत्यु नहीं, जीवन के प्रति तुम्हारा आग्रह, जीवन के प्रति तुम्हारा लगाव समस्या पैदा करता है। जीवन ही समस्या खड़ी करता है, मृत्यु तो सब समस्याओं का विसर्जन कर देती है।
तो जब श्वास बिलकुल बाहर निकल जाए—अ:ऽऽ—तुम जीवन से रिक्त हो गए। उस क्षण अपने भीतर देखो, जब श्वास बिलकुल बाहर निकल जाए। दूसरी श्वास लेने के पहले उस अंतराल में गहरे उतरो जो रिक्त है और उसके आंतरिक मौन और शांति के प्रति सजग होओ। उस क्षण तुम बुद्ध हो।
तंत्र-सूत्र
ओशो
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