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Sunday, August 16, 2015

आठवां सूत्र, ‘समझपूर्वक मानव हृदय में झांकना सीखो।’



‘समझपूर्वक मानव हृदय में झांकना सीखो। मनुष्यों के हृदय का अध्ययन करो, ताकि तुम जान
सको कि वह जगत कैसा है, जिसमें तुम रहते हो और जिसके तुम एक अंश बन जाना चाहते हो।’
समझपूर्वक मानव हृदय में झांकना सीखो-हम झांकते ही नहीं, समझ की तो बात ही दूर है। नासमझी तक से नहीं झांकते। दूसरे के हृदय में झांकने की हम झंझट नहीं लेते। सच तो यह है कि हम बिना दूसरे को समझे, दूसरे के संबंध में धारणाएं बना लेते हैं। हम अपनी धारणाओं से ही चलते हैं। हम दूसरे के हृदय में नहीं झांकते, हम पहले से ही पक्का कर लेते हैं, कौन कैसा है! फिर हम जो पक्का कर लेते हैं, उसी के अनुकूल हम तथ्य भी खोज लेते हैं। हमने हजार तरकीबें बना ली हैं, जिससे हम मानव हृदय में झांकने से बच जाते हैं। वह कष्ट हमें नहीं उठाना पड़ता, वह श्रम नहीं उठाना पड़ता।

आप किसी के पड़ोस में बैठे हैं। आप उससे पूछते हैं कि कौन हैं आप? क्या है धर्म आपका? क्या है जाति? नाम- धाम? पता-ठिकाना? आप यह इसलिए पूछते हैं, ताकि उस आदमी में झांकने से बच सकें। अगर वह आदमी कह दे कि मैं ब्राह्मण हूं और आप भी ब्राह्मण हैं, तो आप आश्वस्त हुए, अब झांकने की जरूरत नहीं है। आप ब्राह्मण के संबंध में जानते ही हैं। लेकिन कोई ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण जैसा ब्राह्मण नहीं है। हर आदमी अलग है।

अगर वह आदमी कह दे कि मैं मुसलमान हूं तो आप पक्के हो गए कि अब इससे आगे बातचीत बढ़ाना ठीक नहीं है। आदमी मुसलमान है। और मुसलमान बुरा है हिंदू के लिए। हिंदू है तो मुसलमान के लिए बुरा है। बात तय हो गई। अब इस निजी एक व्यक्ति में झांकने की कोई जरूरत नहीं है। हमने लेबल चिपका दिया है कि यह मुसलमान है। हमारे भीतर हृदय ने कह दिया है कि आदमी बुरा है।

अब आगे संबंध बढ़ाना ठीक नहीं है। अगर उस आदमी ने कहा कि मैं कम्युनिस्ट हूं तब हम सरक कर बैठ गए कि अब जरा दूर ही बैठना उचित है। हम व्यक्तियों में झांकने से बचते हैं, हम लेबल लगा देते हैं। कोई दो मुसलमान एक से होते हैं? कि कोई दो हिंदू एक से होते हैं? कि कोई दो कम्युनिस्ट एक से होते हैं? एक आदमी तो अकेला अपने ही जैसा होता है, दूसरा उसके जैसा कोई होता ही नहीं। लेकिन सुविधा इसमें है। क्योंकि अगर हम एक-एक को अद्वितीय मान लें, तो एक-एक का अध्ययन करना पड़ेगा। इतनी झंझट में कौन पड़े? तो हम उसका धंधा पूछ लेते हैं, व्यवसाय पूछ लेते हैं, फिर हम निश्चिंत हो जाते हैं। उससे हम तय कर लेते हैं। ऊपर-ऊपर से दो मिनट में तय हो जाता है कि दूसरा आदमी कौन है।

पूरी जिंदगी भी अध्ययन करके मुश्किल है दूसरे आदमी को जानना कि वह क्या है! हम दो मिनट में तय कर लेते हैं, उस हिसाब से चलने लगते हैं! फिर हम इमेज बना लेते हैं, प्रतिमाएं बना लेते हैं। ईं वे भी तरकीबें हैं हमारी। आपके मन में आपकी पत्नी की एक प्रतिमा है। आपकी पत्नी के मन में आपके बाबत, अपने पति के बाबत एक प्रतिमा है। बस उसी प्रतिमा से काम चलता है! सीधे आदमी से कोई संबंध नहीं है! पत्नी जानती है कि पति को क्या करना चाहिए। अगर पति वही करता है तो ठीक है, अगर वही नहीं करता है तो गलत है। लेकिन पति क्या है, इसके समझने की उसे कोई चिंता नहीं है। सिद्धांत पहले से तय हैं। उन सिद्धांतो पर, आदमियों को हम ढांचे में बिठा देते हैं! ढांचे आदमियों के लिए नहीं हैं, आदमी ढांचों के लिए मालूम पड़ते हैं! तो वह यह नहीं देखती कि यह जो पति सामने खड़ा है, यह क्या है? पति की एक धारणा है, उस धारणा से वह जीवित है! अगर वह धारणा के अनुकूल है तो ठीक है, अगर प्रतिकूल है तो ठीक नहीं है!

लेकिन कोई भी आदमी किसी धारणा के अनुकूल, प्रतिकूल नहीं होता। प्रत्येक आदमी अपने ही जैसा होता है। सभी धारणाएं ओछी पड़ जाती हैं। सभी धारणाएं रेडीमेड कपड़ों की तरह होती हैं। वह आपके लिए नहीं बनाई गई होती हैं। सामान्य हिसाब से बनाई गई होती हैं, औसत होती हैं। और हर आदमी औसत से भिन्न होता है। कोई आदमी औसत में नहीं होता।

जैसे, हो सकता है आप अपने गांव की ऊंचाई नाप लें, सब आदमी की ऊंचाई नाप ली जाए-छोटे बच्चे भी हैं, बूढ़े भी हैं, लंबे लोग भी हैं, ठिगने लोग भी हैं, पांच सौ आदमी हैं-पांच सौ की ऊंचाई नाप कर पांच सौ का भाग दे दिया जाए, तो जो आएगा, वह औसत ऊंचाई होगी। फिर आप उस औसत ऊंचाई के आदमी को खोजने जाएं, गांव में एक आदमी नहीं मिलेगा, जो उस औसत ऊंचाई का हो। क्योंकि कोई औसत होता ही नहीं। औसत तो एक झूठ है। हर आदमी अपनी ही ऊंचाई का होता है। औसत जैसी कोई चीज नहीं होती। एवरेज गणित का हिसाब है, जिंदगी का नहीं है।

तो हम सिद्धांत, प्रतिमाएं निर्मित करके उनमें जीते रहते हैं। सीधा कोई देखता ही नहीं, हृदय में कोई झांकता नहीं! हृदय में क्या हो रहा होगा, इससे किसी को प्रयोजन भी नहीं! वह जरा खतरनाक मामला भी है। क्योंकि हृदय में झांको तो आप उलझन में पड़ सकते हो। इसलिए दूर बाहर खडे रहना अच्छा है। ज्यादा गहराई में किसी के भी उतरना खतरनाक है। क्योंकि तब दूसरे की गहराई आपको भी बदलेगी। तब इतनी आसानी से आप निपटारा न कर सकेंगे।

आपका नौकर है। आप उसके हृदय में कैसे झांक सकते हैं? झाकेंगे तो झंझट आएगी। झांकेंगे तो फिर उसके साथ नौकर जैसा व्यवहार करना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि तब वह एक मानव हृदय है। उसके साथ नौकर जैसा व्यवहार रखना है, तो फिर आपको हृदय में नहीं झांकना चाहिए। कभी आपने खयाल किया है कि आप कमरे में बैठे अखबार पढ़ रहे हैं, अगर कोई अजनबी कमरे में आ जाए तो आप उसकी तरफ उठ कर खड़े हो जाएंगे, बैठने को कहेंगे। कोई परिचित आ जाए, तो आप उस पर ध्यान देंगे। नौकर कमरे में आ कर बुहारी लगा जाएगा, आपको पता ही नहीं चलेगा कि कोई आया और गया! जैसे नौकर कोई मनुष्य नहीं है, एक यंत्र है। काम फंक्शनल है, उसका काम से संबंध है। उसके हृदय में झांकना खतरनाक है। क्योंकि उसकी मां बीमार है, उसके बच्चे को शिक्षा चाहिए। उसके हृदय में भी वही सब घटित होता है, जो किसी मनुष्य के हृदय में घटित होता है।
अगर आप उसके हृदय में झांकते हैं, तो आप झंझट में पड़ेंगे। आपको कुछ करना पडेगा। तब आप भी सोच में पड़ जाएंगे कि पचास रुपए वेतन इस आदमी को हम देते हैं, क्या होता होगा? इसकी मां है की, इसका बच्चा है, इसकी पत्नी है, घर है, पचास रुपए में यह कैसे जीता होगा? अगर इसके ह्रदय में झांकेंगे तो आपको किसी न किसी दिन इस आदमी की जगह अपने को रख कर सोचना पड़ेगा कि अगर मुझे पचास रुपए मिलें, तो क्या होगा?

इससे उचित है कि भीतर हृदय में न उतरा जाए, दूर रहा जाए। इतना ही समझा जाए कि यह आदमी काम करता है, पचास रुपए काम के दिए जाते हैं। इससे ज्यादा इस आदमी के संबंध में समझदारी खतरनाक है। इसलिए हमने दीवालें खड़ी कर ली हैं। हम किसी के हृदय में नहीं झांकते, हम दूर दूर रहते हैं। हम सब एक दूसरे से अछूत की तरह रहते हैं।

यह सूत्र कहता है, ‘समझपूर्वक मानव हृदय में झांकना सीखो।’

क्योंकि जब तक तुम मानव के हृदय में झांकना न सीखोगे, तब तक तुम पिघलोगे भी नहीं, गलोगे भी नहीं, तब तक तुम मिटोगे भी नहीं, तब तक तुम्हारे अहंकार से छुटकारा बहुत मुश्किल है। तुम दूसरे के हृदय में बहो, तो धीरे  धीरे तुम्हारा अहंकार अपने आप गल जाएगा। क्योंकि तुम पाओगे कि तुम्हारा जैसा ही हृदय दूसरों में भी धड़कता है। तब तुम पाओगे कि ठीक तुम ही, दूसरे के भीतर भी बैठे हुए हो। तब तुम्हें अपना जो दंभ है, वह व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगा। तब तुम्हें यह भी दिखाई पड़ना साफ हो जाएगा, यह भी दिखाई पडने लगेगा कि व्यक्ति—व्यक्ति के जो फासले हैं, वह बहुत ऊपरी हैं। भीतर शायद एक ही महा-हृदय धड़क रहा है। अगर हृदय में झांकना तुम सीख लो तो हृदय की जो शुद्धतम गहराई है, वह तुम्हें दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी। तब तुम पाओगे कि एक ही हृदय धड़क रहा है बहुत हृदयों में। फेफड़े बहुत होंगे, हृदय शायद एक ही है। और यह प्रतीति तुम्हें परमात्मा की तरफ ले जाने में एक बहुत बड़ा कदम सिद्ध होगी।

‘मनुष्यों के हृदय का अध्ययन करो, ताकि तुम जान सको कि यह जगत कैसा है, जिसमें तुम रहते हो और जिसके तुम एक अंश बन जाना चाहते हो। बुद्धि निष्पक्ष होती है। न कोई तुम्हारा शत्रु है और न कोई मित्र। सभी समान रूप से तुम्हारे शिक्षक हैं। तुम्हारा शत्रु एक रहस्य बन जाता है, जिसे तुम्हें हल करना है, चाहे इस हल करने में युगों का समय लग जाए। क्योंकि मानव को समझना तो है ही। तुम्हारा मित्र तुम्हारा ही एक अंग बन जाता है, तुम्हारा ही एक विस्तृत रूप हो जाता है, जिसे समझना कठिन होता है।’

मनुष्यों के हृदय का अध्ययन अगर करना है, तो निष्पक्ष होना जरूरी है, नहीं तो अध्ययन न हो सकेगा। अगर तुम्हारे पक्ष पूर्व से ही तय हैं, तो तुम जो भी खोज लोगे, वह तुम्हारी ही मान्यता का पुन: आविष्कार होगा, वह तुम्हारी ही धारणा की पुनरुक्ति होगी। तुम अपने को ही ठीक सिद्ध कर लोगे। हम इसी तरह जीते हैं। हमारा पक्ष तो पहले से तय होता है, फिर हम सत्य की खोज करने निकलते हैं। तो यह सत्य की खोज तो पहले से ही झूठ हो गई। अगर तुम्हारा पक्ष पहले से ही तय है, तो बात ही व्यर्थ हो गई।

साधनासुत्र

ओशो 

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