यह जो हारा है, यह जो केंद्र है, यह आपकी बुद्धि में नहीं है। यह आपके
हृदय में भी नहीं है। यह आपकी नाभि के पास है। और इसीलिए मां से बच्चे की
खोपड़ी नहीं जुड़ी रहती उसके पेट में और न हृदय जुड़ा रहता है; उसकी नाभि जुड़ी
रहती है। नाभि से बच्चा जुड़ा रहता है। लेकिन यह चमत्कार की बात है कि
बच्चा न तो श्वास लेता मां के पेट में, न उसके हृदय में धड़कन होती, सिर्फ
नाभि से मां से जुड़ा रहता है और जीवित रहता है। इसका अर्थ साफ है कि न तो
हृदय अनिवार्य है जीवन के लिए और न बुद्धि अनिवार्य है जीवन के लिए। हृदय
की धड़कन के बिना भी बच्चा जीवित रहता है और श्वास के बिना चले भी जीवित
रहता है, लेकिन नाभि के बिना जीवित नहीं रह सकता। इसलिए मां से बच्चे के
अलग होते ही पहला काम हम नाभि से संबंध तोड़ने का करते हैं। क्योंकि जब तक
नाभि से संबंध न टूट जाए, बच्चा अपनी श्वास नहीं ले सकेगा। व्यक्तित्व नहीं
पैदा होगा उसका, अलग खड़ा नहीं होगा। वह मां से जुड़ा है, मां से संबंध
तोड़ना पड़ेगा। जब हम मां से संबंध तोड़ देंगे, तब उसके शरीर को पहली दफे
जरूरत पैदा होगी कि वह श्वास ले, हृदय धड़के, खून बहे। बच्चा अपने पैरों पर
जीवन को चलना शुरू करे।
ठीक इसे ऐसा समझें कि मां से नाभि से हमारा जो धागा जुड़ा है, यह एक धागा है; और ठीक नाभि से दूसरा धागा हमारा परमात्मा से जुड़ा है, अस्तित्व से जुड़ा है। वह जिस जगह से हमारा धागा जुड़ा है, नाभि के दूसरे छोर को हम समझें, दूसरे पहलू को, जहां से हम अस्तित्व से जुड़े हैं, उसका नाम हारा है। और ताओ कहता है कि उस हारा को जो पा लेता है, उस केंद्र को जो पा लेता है, वह सरल हो जाता है। फूल की तरह, आकाश के तारों की तरह, बच्चों की तरह, पशुओं की आंखों की तरह तरल और सरल हो जाता है।
यह तरलता और सरलता अगर पानी हो, तो तीसरे सूत्र में लाओत्से कहता है, “जब वह कल्पना के अतिशय रहस्यमय दृश्यों को झाड़-पोंछ कर साफ कर लेता है, तो निर्विकार हो जाता है।’
श्वास नमनीय हो जाए, केंद्र पर आ जाए और कल्पना का सारा जाल तोड़ कर फेंक दिया जाए!
कल्पना के जो हमने जाल बना रखे हैं, न मालूम कितने-कितने प्रकार के। संसार के नाम पर ही नहीं, धर्म के नाम पर भी न मालूम कितने जाल हमने अपनी कल्पना के बना रखे हैं। न मालूम कितने ईश्वर, न मालूम कितने देव, न मालूम कितने स्वर्ग-नर्क कल्पना से बना रखे हैं। जाना हमने नहीं है; पहचान हमारी कुछ भी नहीं है; सिर्फ अपनी कल्पना को भर रखा है। हमारी कल्पना एक पुस्तकालय है, जिस पुस्तकालय में जमाने भर की कल्पनाएं संगृहीत हो गई हैं। जन्मों-जन्मों में न मालूम कितनी कल्पनाओं के जाल हमने इकट्ठे कर लिए हैं और उन सब जालों के बीच में हम घिरे जीते हैं।
लेकिन ये सारे के सारे जाल बुद्धि में हैं। और अगर किसी व्यक्ति ने बुद्धि से ही इन जालों को तोड़ने की कोशिश की, तो वह नहीं तोड़ पाएगा। जरूरी है कि बुद्धि से नीचे चला जाए, गहरा चला जाए, अस्तित्व के केंद्र पर खड़ा हो जाए! और जैसे ही कोई व्यक्ति नाभि के पास आ जाता है, वैसे ही सशक्त हो जाता है कि कल्पनाओं को तोड़ कर फेंक दे। कुछ लोग बुद्धि से ही बुद्धि से लड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं। बुद्धि के एक तर्क को आप दूसरे तर्क से काट सकते हैं, लेकिन ध्यान रखिए, दूसरा तर्क आपको पकड़ लेगा। बुद्धि की एक कल्पना को आप दूसरी कल्पना से काट सकते हैं, लेकिन तब दूसरी कल्पना आपको पकड़ लेगी। यह कठिनाई ऐसी है कि जिससे आप काटने चले हैं, वह बुद्धि ही कटनी चाहिए, अन्यथा कुछ भी नहीं कटेगा।
तो लोग काटने में लगे रहते हैं। एक धर्म को दूसरे धर्म से बदल लेते हैं। एक गुरु को दूसरे गुरु से बदल लेते हैं। एक सिद्धांत को दूसरे सिद्धांत से बदल लेते हैं। एक शास्त्र को दूसरे शास्त्र से बदल लेते हैं। और कुछ लोग तो इतनी कठिनाई में पड़ जाते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि उन्होंने सब शास्त्र छोड़ दिए; और तब वे अपना ही शास्त्र निर्मित कर लेते हैं, जो कि और भी गरीब होने वाला है। उससे तो बेहतर किसी और का भी बेहतर था।
ताओ उपनिषद
ओशो
ठीक इसे ऐसा समझें कि मां से नाभि से हमारा जो धागा जुड़ा है, यह एक धागा है; और ठीक नाभि से दूसरा धागा हमारा परमात्मा से जुड़ा है, अस्तित्व से जुड़ा है। वह जिस जगह से हमारा धागा जुड़ा है, नाभि के दूसरे छोर को हम समझें, दूसरे पहलू को, जहां से हम अस्तित्व से जुड़े हैं, उसका नाम हारा है। और ताओ कहता है कि उस हारा को जो पा लेता है, उस केंद्र को जो पा लेता है, वह सरल हो जाता है। फूल की तरह, आकाश के तारों की तरह, बच्चों की तरह, पशुओं की आंखों की तरह तरल और सरल हो जाता है।
यह तरलता और सरलता अगर पानी हो, तो तीसरे सूत्र में लाओत्से कहता है, “जब वह कल्पना के अतिशय रहस्यमय दृश्यों को झाड़-पोंछ कर साफ कर लेता है, तो निर्विकार हो जाता है।’
श्वास नमनीय हो जाए, केंद्र पर आ जाए और कल्पना का सारा जाल तोड़ कर फेंक दिया जाए!
कल्पना के जो हमने जाल बना रखे हैं, न मालूम कितने-कितने प्रकार के। संसार के नाम पर ही नहीं, धर्म के नाम पर भी न मालूम कितने जाल हमने अपनी कल्पना के बना रखे हैं। न मालूम कितने ईश्वर, न मालूम कितने देव, न मालूम कितने स्वर्ग-नर्क कल्पना से बना रखे हैं। जाना हमने नहीं है; पहचान हमारी कुछ भी नहीं है; सिर्फ अपनी कल्पना को भर रखा है। हमारी कल्पना एक पुस्तकालय है, जिस पुस्तकालय में जमाने भर की कल्पनाएं संगृहीत हो गई हैं। जन्मों-जन्मों में न मालूम कितनी कल्पनाओं के जाल हमने इकट्ठे कर लिए हैं और उन सब जालों के बीच में हम घिरे जीते हैं।
लेकिन ये सारे के सारे जाल बुद्धि में हैं। और अगर किसी व्यक्ति ने बुद्धि से ही इन जालों को तोड़ने की कोशिश की, तो वह नहीं तोड़ पाएगा। जरूरी है कि बुद्धि से नीचे चला जाए, गहरा चला जाए, अस्तित्व के केंद्र पर खड़ा हो जाए! और जैसे ही कोई व्यक्ति नाभि के पास आ जाता है, वैसे ही सशक्त हो जाता है कि कल्पनाओं को तोड़ कर फेंक दे। कुछ लोग बुद्धि से ही बुद्धि से लड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं। बुद्धि के एक तर्क को आप दूसरे तर्क से काट सकते हैं, लेकिन ध्यान रखिए, दूसरा तर्क आपको पकड़ लेगा। बुद्धि की एक कल्पना को आप दूसरी कल्पना से काट सकते हैं, लेकिन तब दूसरी कल्पना आपको पकड़ लेगी। यह कठिनाई ऐसी है कि जिससे आप काटने चले हैं, वह बुद्धि ही कटनी चाहिए, अन्यथा कुछ भी नहीं कटेगा।
तो लोग काटने में लगे रहते हैं। एक धर्म को दूसरे धर्म से बदल लेते हैं। एक गुरु को दूसरे गुरु से बदल लेते हैं। एक सिद्धांत को दूसरे सिद्धांत से बदल लेते हैं। एक शास्त्र को दूसरे शास्त्र से बदल लेते हैं। और कुछ लोग तो इतनी कठिनाई में पड़ जाते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि उन्होंने सब शास्त्र छोड़ दिए; और तब वे अपना ही शास्त्र निर्मित कर लेते हैं, जो कि और भी गरीब होने वाला है। उससे तो बेहतर किसी और का भी बेहतर था।
ताओ उपनिषद
ओशो
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