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Sunday, August 16, 2015

ध्यान काम नहीं, विश्राम

नाटक में क्या ऐसा नहीं होता है कि देखने वाले दृश्यों में इतने खो जाते हैं कि स्वयं को भूल ही जाएं? ऐसा ही जीवन में भी हुआ है। वह भी एक बड़ी नाटयशाला है और हमने दृश्यों की तल्लीनता में द्रष्टा को, स्वयं को खो ही दिया है।


सत्य को, स्वयं को पाने को कुछ और नहीं करना है, बस दृश्यों से, नाटक से जागना भर है।

मैं देखता हूं कि आपके आसपास निरंतर एक अशांति का घेरा बना रहता है। आपके उठते बैठते, चलते सोते वह प्रकट होता रहता है। वह आपकी प्रत्येक छोटी बड़ी प्रक्रिया में उपस्थित होता है। क्या आप भी यह अनुभव नहीं करते हैं? क्या आपने कभी देखा है कि आप जो भी कर रहे हैं, सब अशांति में कर रहे हैं? इस अशांति के घेरे को तोड़ना है और एक शांति का घेरा, जोन ऑफ साइलेंस पैदा करना है। उस भूमिका में ही आप उस आनंद को और उस संगीत को अनुभव कर सकेंगे जो कि निरंतर आपके ही भीतर मौजूद है, पर अपने ही आतंरिक कोलाहल के कारण जिसे सुन पाना और जी पाना संभव नहीं हो रहा है।

मित्र! बाहर का कोलाहल कोई बाधा, डिस्टरबेंस नहीं है। हम भीतर शांत हों तो वह है ही नहीं। हम भीतर अशांत हैं, यही एकमात्र बाधा है।

सुबह कोई मुझसे पूछता था.’ भीतर शांत होने के लिए क्या करें?’ मैंने कहा’ फूलों को देखो, उनके खिलने को देखो। पहाड़ के झरनों को देखो और उनके बहने को देखो। क्या वहां कोई अशांति दिखाई देती है? सब कितना शांति से हो रहा है। मनुष्य को छोड़ कर कहीं भी अशांति नहीं है। इस भांति हम भी जी सकते हैं। इस तरह जीओ और अनुभव करो कि आप भी निसर्ग के एक अंग हो।’ मैं’ की पृथकता ने सब अशांति और तनाव पैदा कर दिया है!’

‘मैं शून्य’ होकर कार्य करो। और आप पाओगे कि एक अलौकिक शांति भीतर अवतरित हो रही है। हवाओं में समझो कि आप भी हवा हो, और वर्षा में समझो कि आप भी वर्षा हो। और फिर देखो कैसी शांति क्रमश: घनी होने लगती है।

आकाश के साथ आकाश हो जाओ, और अंधकार के साथ अंधकार, और प्रकाश के साथ प्रकाश। अपने को अलग न रखो और अपनी बूंद को सागर में गिरने दो, फिर वह जाना जाता है जो कि संगीत है, जो कि सौंदर्य है, जो कि सत्य है।

मैं चलूं तो मुझे स्मरण होना चाहिए कि मैं चल रहा हूं। मैं उठूं तो मुझे होश होना चाहिए कि मैं उठ रहा हूं। कोई भी क्रिया शरीर से या मन से मूर्च्छित और बेहोशी में नहीं होनी चाहिए। इस भांति जाग कर अप्रमाद से जीवनाचरण करने से चित्त अत्यंत निर्मल और निर्दोष और पारदर्शी हो जाता है। इस भांति के अप्रमत्त जीवन आचरण से ध्यान हमारे समग्र जीवन व्यवहार पर परिव्याप्त हो जाता है। उसकी अंतधारा अहर्निश हमारे साथ बनी रहती है। वह हमें शांत करती है और हमारे व्यवहार को शुद्ध और सात्विक बनाती है।

यह स्मरणीय है कि जो व्यक्ति अपनी प्रत्येक शारीरिक और मानसिक क्रिया में सजग और जाग्रत है, उससे किसी दूसरे के प्रति कोई दुर्व्यवहार असंभव है। दोषों के लिए मूर्च्छा आवश्यक है। इसलिए अमूर्च्छा में उनका परिहार सहज ही हो जाता है।

समाधि को मैं महामृत्यु, ग्रेट डैथ कहता हूं, वह है भी। साधारण मृत्यु से मैं मिटूगा, पर पुन: हो जाऊंगा, क्योंकि मेरा’ मैं’ उसमें नहीं मिटेगा। वह’ मैं’ नये जन्म लेगा और नई मृत्युओं से गुजरेगा। साधारण मृत्यु वास्तविक मृत्यु नहीं है, क्योंकि उसके बाद फिर जन्म है और फिर मृत्यु है। और यह चक्रीय गति उस समय तक है जब तक कि समाधि की महामृत्यु आकर जन्मों और मृत्युओं से छुटकारा नहीं दे देती। समाधि महामृत्यु है, क्योंकि उसमें ’मैं’ मिट जाता है और उसके साथ ही जन्म और मृत्यु भी मिट जाता है। और जो शेष रह जाता है वही जीवन है। समाधि की महामृत्यु से अमृत जीवन उपलब्ध होता है। उसका न जन्म है, न मृत्यु है। उसका न तो आदि है, न अंत है। इस महामृत्यु को ही मोक्ष कहते हैं, निर्वाण कहते हैं, ब्रह्म कहते हैं।

मेरी सलाह है कि ध्यान को काम नहीं, विश्राम समझना है। अक्रिया का यही अर्थ है। वह पूर्ण विश्राम है -समस्त क्रियाओं का पूर्ण विराम है। और जब समस्त क्रियाएं शून्य होती हैं और चित्त के सब स्पंदन विलीन हो जाते हैं, तब जो सारे धर्म मिल कर भी नहीं सिखा सकते हैं वह उस विश्राम में उभरना शुरू हो जाता है। क्रियाएं जब नहीं हैं, तब उसका दर्शन होता है जो कि क्रिया नहीं वरन सब क्रियाओं का केंद्र और प्राण है, कर्त्ता है।

साधना पथ

ओशो 

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