यहां शिविर में लोग आते हैं, दिन भर मेरा सिर खाते हैं-फलां आदमी ऐसा कर
रहा है, ढिकां आदमी ऐसा कर रहा है! तुम यहां किसलिए आए हो? तुम सारे लोगों
की चिंता के लिए यहां आए हो? तुम्हें किसने ठेका दिया सबकी चिंता का?
तुम्हारे पास बहुत समय मालूम पड़ता है, बहुत शक्ति मालूम पड़ती है। अपना जीवन
तुम दूसरों के लिए चुका रहे हो कि कौन आदमी क्या कर रहा है। क्या प्रयोजन
है? कौन आदमी किस स्त्री के साथ बात कर रहा है, कौन आदमी किस स्त्री के पास
बैठा हुआ है, तुम्हें चिंता का क्या कारण है? तुम कौन हो?
लेकिन तुम आए थे यहां अपने को बदलने को और यहां तुम फिक्र में पड़ जाते हो किसी दूसरे को बदलने की! असल में तुम अपने को बदलने आए ही नहीं हो, इसीलिए यह फिक्र पैदा होती है। तुम्हारा खयाल गलत था कि तुम अपने को बदलने आए हो। तुमने अपने को धोखा दिया। तुम चाहते तो सारी दुनिया को बदलना हो, तुम तो जैसे हो, उससे तुम रत्ती भर हटना नहीं चाहते! और फिर तुम चाहते हो कि तुम्हारा दुख समाप्त हो जाए, तुम्हारी पीड़ा समाप्त हो जाए! तुम जैसे हो, वैसे ही रह कर दुख समाप्त न होगा। फिर इससे क्या तुम्हें पीड़ा होती है कि कोई आदमी किसी स्त्री के साथ बात कर रहा है, प्रेमपूर्ण ढंग से बैठा हुआ है? इससे तुम्हें क्या पीड़ा होती है?
मुझे खबर दी किसी ने कि फलां आदमी किसी स्त्री के साथ इस ढंग से बैठा है, जो शोभादायक नहीं है। शोभा का कौन निर्णायक है? और जो आदमी खबर दे रहा है, उसे इस बात का खयाल ही नहीं है कि उसको यह पीड़ा क्यों पकड़ रही है। इस आदमी को मैं भलीभांति जानता हूं। यह किसी भी स्त्री के पास बैठने में समर्थ नहीं है। कोई स्त्री इसके पास बैठने में समर्थ नहीं है। यह परेशान है। यह उस आदमी की जगह बैठना चाहता था, इसलिए यह परेशानी की खबर ले आया। लेकिन इसे यह खयाल नहीं है कि इसका खुद का रोग इसको खा रहा है। यह दूसरे को बदलने की फिक्र में है!
मैंने उस आदमी को कहा कि जो आदमी वहां बैठा है स्त्री के पास, तुमने उस आदमी के बाबत एक बात खयाल की, कि वह आदमी सदा प्रसन्न रहता है, सदा हंसता है, सदा खुश है। और तुम सदा उदास, दुखी और परेशान हो। तुम उस आदमी से कुछ सीखो, उसके पास में बैठी स्त्री की फिक्र छोड़ दो। और यह भी हो सकता है कि तुम भी उतने खुश हो जाओ कि कोई स्त्री तुम्हारे पास भी बैठना चाहे। लेकिन तुम्हारी शकल नारकीय है। तुम इतने दुख और परेशानी से भरे हो कि कौन तुम्हारे पास बैठना चाहेगा! और फिर अगर दो व्यक्ति प्रेमपूर्ण ढंग से बैठे हैं, तो इसमें अशोभन क्या है?
यह बहुत मजे की बात है कि जीवन के असम्मान के कारण प्रेम अशोभन मालूम पड़ता है। क्योंकि प्रेम जीवन का गहनतम फूल है। अगर दो आदमी सड़क पर लड़ रहे हों तो कोई नहीं कहता कि अश्लील है। लेकिन दो आदमी गले में हाथ डाल कर एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं, तो लोग कहेंगे, अश्लील है! हिंसा अश्लील नहीं है, प्रेम अश्लील है! प्रेम क्यों अश्लील है? हिंसा क्यों अश्लील नहीं है? हिंसा मृत्यु है, प्रेम जीवन है। जीवन के प्रति असम्मान है और मृत्यु के प्रति सम्मान है!
देखिए, कितनी हैरानी की बात है! युद्ध की फिल्में बनती हैं, कोई सरकार उन पर रोक नहीं लगाती। हत्या होती है, खून होता है फिल्म में, कोई दुनिया की सरकार नहीं कहती कि अश्लील है। लेकिन अगर प्रेम की घटना है तो सारी सरकारें चिंतित हो जाती हैं। सरकारें तय करती हैं कि चुंबन कितने दूर से लिया जाए! छ: इंच का फासला हो, कि चार इंच का फासला हो! कि कितने इंच के फासले पर चुंबन श्लील होता है और कितने इंच के फासले पर अश्लील हो जाता है! लेकिन छुरा भोंका जाए फिल्म में, तो अश्लील नहीं होता! कोई नहीं कहता कि छ: इंच दूर छुरा रहे।
यह बहुत विचार की बात है कि क्या कठिनाई है। चुंबन में ऐसा क्या पाप है, जो छुरा भोंकने में नहीं है? लेकिन चुंबन जीवन का साथी है और छुरा मृत्यु का। छुरे पर किसी को एतराज नहीं है। हम सब आत्मघाती हैं। हम सब हत्यारे हैं। लेकिन प्रेम के हम सब दुश्मन हैं! यह दुश्मनी क्यों है? इसको अगर हम बहुत गहरे में खोजने जाएं तो हमारा जीवन के प्रति सम्मान का भाव नहीं है।
फिर अगर दो व्यक्ति प्रेम से बैठे हैं, किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं, यह उनकी निजी बात है, यह उनका निजी आनंद है। अगर यह आपको कष्ट देता है तो आपको अपने भीतर खोज करनी चाहिए। आपके जीवन में प्रेम की कमी रह गई है। या आपकी कामवासना पूरी नहीं हो पाई है, अटकी रह गई है। आपकी कामवासना पूरी बन गई है, घाव बन गई है। मगर ये आदमी जो मेरे पास आ कर खबर लाएंगे, वे यह नहीं कहते कि हम अपनी कामवासना से पीड़ित हैं! वे यह कहते हैं कि यह क्या हो रहा है!
अपनी तरफ खयाल करो, अपने दृष्टिकोणों को सोचो, दूसरे की चिंता मत करो। और एक बात सदा खयाल में रखो कि तुम किस बात का सम्मान करते हो? जीवन का?दो व्यक्तियों का प्रेमपूर्ण ढंग से खड़ा होना, इस पृथ्वी पर घटने वाली सुंदरतम घटनाओं में से एक है। और अगर प्रेम सुंदर नहीं है, तो फूल सुंदर नहीं हो सकते, पक्षियों के गीत सुंदर नहीं हो सकते, क्योंकि फूल भी प्रेम की घटना है। वह भी वृक्ष की कामवासना है। उससे वृक्ष अपने बीज पैदा कर रहा है, अपने वीर्य क्या पैदा कर रहा है। पक्षियों के सुबह के गीत सुंदर नहीं हो सकते, क्योंकि वह भी प्रेयसियों के लिए बुलाई गई पुकार है या प्रेमियों की खोज है-वह भी कामवासना है।
अगर कोई व्यक्ति जीवन के प्रति असम्मान से भरा है तो इस जगत में फिर कुछ भी सुंदर नहीं है, सब अश्लील है। आपको फूल में दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि फूल की कामवासना का आपको पता नहीं है। जब वसंत आता है, तो पृथ्वी जवान होती है। वह जो आप खुशी देखते हैं चारों तरफ, वह भी कामवासना की ही खुशी है, वह जो उत्सव दिखाई पड़ता है।
जीवन की निंदा में कामवासना भी एक कारण है। न मालूम किस-किस भांति से हमने कामवासना का विरोध किया है, उसको पाप कहा है। वह पाप हो सकती है, क्योंकि उसमें पुण्य होने की क्षमता है। एक बात खयाल रखना. वही चीज पाप हो सकती है, जिसमें पुण्य होने की क्षमता हो।
एक छोटा बच्चा अगर कोई भूल करता है, तो हम उसे माफ कर देते हैं। हम पाप नहीं कहते, हम कहते हैं कि वह बच्चा है। अभी ठीक करने की क्षमता ही उसमें नहीं है, तो गलत करना माफ किया जाए। एक आदमी शराब पी कर कोई जुर्म कर लेता है, तो अदालत भी माफ कर देती है, क्योंकि उसने बेहोशी में किया है। होश में होता तो हम मानते हैं कि उसमें ठीक करने की क्षमता भी थी। जब क्षमता ही न थी तो फिर गलत का जुम्मा भी नहीं रह जाता। एक आदमी पागल सिद्ध हो जाए तो बड़े से बड़ा जुर्म भी माफ हो जाता है, क्योंकि पागल को क्या दोष देना? वह ठीक कर ही नहीं सकता था, तो गलत करने के लिए जिम्मेवार भी नहीं रह जाता।
एक बात कि जिस स्थिति में पाप हो सकता है, वह वही स्थिति है, जिसमें पुण्य भी हो सकता था। नहीं तो पाप नहीं हो सकता है। जो ऊर्जा पाप बन सकती है, वही ऊर्जा पुण्य भी बन सकती है। इसलिए कामवासना का जो विरोध किया है जानने वालों ने, उसका कारण दूसरा है। न जानने वालों ने विरोध को पकड़ लिया, उसका कारण दूसरा है। जानने वालों ने इसलिए कहा है कि तुम कामवासना में मत पड़ों, ताकि तुम्हारी काम—ऊर्जा परमात्मा की तरफ प्रवाहित हो सके। इसमें कामवासना की निंदा नहीं है, केवल उसका महत्तर उपयोग है। सच पूछें तो इसमें उसकी महत्ता है। क्योंकि कामवासना में पड़ कर तुम संसार में प्रवेश कर जाओगे, और गहन अंधकार में। अगर तुम कामवासना में न पड़ी, तो यही ऊर्जा ऊपर चढने की सीढ़ी बन जाएगी।
तो जो सीढ़ी तुम्हें ऊपर ले जा सकती हो, उसको तुम नीचे की यात्रा पर मत लगाओ। इसमें सम्मान है, अपमान नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि कामऊर्जा परम सत्य तक ले जा सकती है। और तुम उसे व्यर्थ मत खो देना। लेकिन रुग्ण लोगों ने उसका जो अर्थ लिया, उन्होंने अर्थ लिया कि कामवासना के शत्रु हो जाओ। वे सीढ़ी ऊपर की तरफ तो लगाते नहीं, सीढ़ी नीचे की तरफ भी नहीं लगाते! वे सीढ़ी कंधे पर ले कर घूमते रहते हैं, वे सीडी लगाते ही नहीं!
ऊपर की तरफ लगाओ, बहुत सुखद है, परम आनंदपूर्ण है। ऊपर की तरफ न लगा सको, तो कंधे पर ले कर मत घूमो। क्योंकि उससे तुम सिर्फ रुग्ण हो रहे हो और बोझ ढो रहे हो। कामवासना के विरोध के कारण जीवन का भी अपमान हो गया हमारे मन में। क्योंकि जीवन उसी से तो उठता है, जीवन उसी से तो जगता है। जीवन कामवासना का ही तो फैलाव है।
साधनासुत्र
ओशो
लेकिन तुम आए थे यहां अपने को बदलने को और यहां तुम फिक्र में पड़ जाते हो किसी दूसरे को बदलने की! असल में तुम अपने को बदलने आए ही नहीं हो, इसीलिए यह फिक्र पैदा होती है। तुम्हारा खयाल गलत था कि तुम अपने को बदलने आए हो। तुमने अपने को धोखा दिया। तुम चाहते तो सारी दुनिया को बदलना हो, तुम तो जैसे हो, उससे तुम रत्ती भर हटना नहीं चाहते! और फिर तुम चाहते हो कि तुम्हारा दुख समाप्त हो जाए, तुम्हारी पीड़ा समाप्त हो जाए! तुम जैसे हो, वैसे ही रह कर दुख समाप्त न होगा। फिर इससे क्या तुम्हें पीड़ा होती है कि कोई आदमी किसी स्त्री के साथ बात कर रहा है, प्रेमपूर्ण ढंग से बैठा हुआ है? इससे तुम्हें क्या पीड़ा होती है?
मुझे खबर दी किसी ने कि फलां आदमी किसी स्त्री के साथ इस ढंग से बैठा है, जो शोभादायक नहीं है। शोभा का कौन निर्णायक है? और जो आदमी खबर दे रहा है, उसे इस बात का खयाल ही नहीं है कि उसको यह पीड़ा क्यों पकड़ रही है। इस आदमी को मैं भलीभांति जानता हूं। यह किसी भी स्त्री के पास बैठने में समर्थ नहीं है। कोई स्त्री इसके पास बैठने में समर्थ नहीं है। यह परेशान है। यह उस आदमी की जगह बैठना चाहता था, इसलिए यह परेशानी की खबर ले आया। लेकिन इसे यह खयाल नहीं है कि इसका खुद का रोग इसको खा रहा है। यह दूसरे को बदलने की फिक्र में है!
मैंने उस आदमी को कहा कि जो आदमी वहां बैठा है स्त्री के पास, तुमने उस आदमी के बाबत एक बात खयाल की, कि वह आदमी सदा प्रसन्न रहता है, सदा हंसता है, सदा खुश है। और तुम सदा उदास, दुखी और परेशान हो। तुम उस आदमी से कुछ सीखो, उसके पास में बैठी स्त्री की फिक्र छोड़ दो। और यह भी हो सकता है कि तुम भी उतने खुश हो जाओ कि कोई स्त्री तुम्हारे पास भी बैठना चाहे। लेकिन तुम्हारी शकल नारकीय है। तुम इतने दुख और परेशानी से भरे हो कि कौन तुम्हारे पास बैठना चाहेगा! और फिर अगर दो व्यक्ति प्रेमपूर्ण ढंग से बैठे हैं, तो इसमें अशोभन क्या है?
यह बहुत मजे की बात है कि जीवन के असम्मान के कारण प्रेम अशोभन मालूम पड़ता है। क्योंकि प्रेम जीवन का गहनतम फूल है। अगर दो आदमी सड़क पर लड़ रहे हों तो कोई नहीं कहता कि अश्लील है। लेकिन दो आदमी गले में हाथ डाल कर एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं, तो लोग कहेंगे, अश्लील है! हिंसा अश्लील नहीं है, प्रेम अश्लील है! प्रेम क्यों अश्लील है? हिंसा क्यों अश्लील नहीं है? हिंसा मृत्यु है, प्रेम जीवन है। जीवन के प्रति असम्मान है और मृत्यु के प्रति सम्मान है!
देखिए, कितनी हैरानी की बात है! युद्ध की फिल्में बनती हैं, कोई सरकार उन पर रोक नहीं लगाती। हत्या होती है, खून होता है फिल्म में, कोई दुनिया की सरकार नहीं कहती कि अश्लील है। लेकिन अगर प्रेम की घटना है तो सारी सरकारें चिंतित हो जाती हैं। सरकारें तय करती हैं कि चुंबन कितने दूर से लिया जाए! छ: इंच का फासला हो, कि चार इंच का फासला हो! कि कितने इंच के फासले पर चुंबन श्लील होता है और कितने इंच के फासले पर अश्लील हो जाता है! लेकिन छुरा भोंका जाए फिल्म में, तो अश्लील नहीं होता! कोई नहीं कहता कि छ: इंच दूर छुरा रहे।
यह बहुत विचार की बात है कि क्या कठिनाई है। चुंबन में ऐसा क्या पाप है, जो छुरा भोंकने में नहीं है? लेकिन चुंबन जीवन का साथी है और छुरा मृत्यु का। छुरे पर किसी को एतराज नहीं है। हम सब आत्मघाती हैं। हम सब हत्यारे हैं। लेकिन प्रेम के हम सब दुश्मन हैं! यह दुश्मनी क्यों है? इसको अगर हम बहुत गहरे में खोजने जाएं तो हमारा जीवन के प्रति सम्मान का भाव नहीं है।
फिर अगर दो व्यक्ति प्रेम से बैठे हैं, किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं, यह उनकी निजी बात है, यह उनका निजी आनंद है। अगर यह आपको कष्ट देता है तो आपको अपने भीतर खोज करनी चाहिए। आपके जीवन में प्रेम की कमी रह गई है। या आपकी कामवासना पूरी नहीं हो पाई है, अटकी रह गई है। आपकी कामवासना पूरी बन गई है, घाव बन गई है। मगर ये आदमी जो मेरे पास आ कर खबर लाएंगे, वे यह नहीं कहते कि हम अपनी कामवासना से पीड़ित हैं! वे यह कहते हैं कि यह क्या हो रहा है!
अपनी तरफ खयाल करो, अपने दृष्टिकोणों को सोचो, दूसरे की चिंता मत करो। और एक बात सदा खयाल में रखो कि तुम किस बात का सम्मान करते हो? जीवन का?दो व्यक्तियों का प्रेमपूर्ण ढंग से खड़ा होना, इस पृथ्वी पर घटने वाली सुंदरतम घटनाओं में से एक है। और अगर प्रेम सुंदर नहीं है, तो फूल सुंदर नहीं हो सकते, पक्षियों के गीत सुंदर नहीं हो सकते, क्योंकि फूल भी प्रेम की घटना है। वह भी वृक्ष की कामवासना है। उससे वृक्ष अपने बीज पैदा कर रहा है, अपने वीर्य क्या पैदा कर रहा है। पक्षियों के सुबह के गीत सुंदर नहीं हो सकते, क्योंकि वह भी प्रेयसियों के लिए बुलाई गई पुकार है या प्रेमियों की खोज है-वह भी कामवासना है।
अगर कोई व्यक्ति जीवन के प्रति असम्मान से भरा है तो इस जगत में फिर कुछ भी सुंदर नहीं है, सब अश्लील है। आपको फूल में दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि फूल की कामवासना का आपको पता नहीं है। जब वसंत आता है, तो पृथ्वी जवान होती है। वह जो आप खुशी देखते हैं चारों तरफ, वह भी कामवासना की ही खुशी है, वह जो उत्सव दिखाई पड़ता है।
जीवन की निंदा में कामवासना भी एक कारण है। न मालूम किस-किस भांति से हमने कामवासना का विरोध किया है, उसको पाप कहा है। वह पाप हो सकती है, क्योंकि उसमें पुण्य होने की क्षमता है। एक बात खयाल रखना. वही चीज पाप हो सकती है, जिसमें पुण्य होने की क्षमता हो।
एक छोटा बच्चा अगर कोई भूल करता है, तो हम उसे माफ कर देते हैं। हम पाप नहीं कहते, हम कहते हैं कि वह बच्चा है। अभी ठीक करने की क्षमता ही उसमें नहीं है, तो गलत करना माफ किया जाए। एक आदमी शराब पी कर कोई जुर्म कर लेता है, तो अदालत भी माफ कर देती है, क्योंकि उसने बेहोशी में किया है। होश में होता तो हम मानते हैं कि उसमें ठीक करने की क्षमता भी थी। जब क्षमता ही न थी तो फिर गलत का जुम्मा भी नहीं रह जाता। एक आदमी पागल सिद्ध हो जाए तो बड़े से बड़ा जुर्म भी माफ हो जाता है, क्योंकि पागल को क्या दोष देना? वह ठीक कर ही नहीं सकता था, तो गलत करने के लिए जिम्मेवार भी नहीं रह जाता।
एक बात कि जिस स्थिति में पाप हो सकता है, वह वही स्थिति है, जिसमें पुण्य भी हो सकता था। नहीं तो पाप नहीं हो सकता है। जो ऊर्जा पाप बन सकती है, वही ऊर्जा पुण्य भी बन सकती है। इसलिए कामवासना का जो विरोध किया है जानने वालों ने, उसका कारण दूसरा है। न जानने वालों ने विरोध को पकड़ लिया, उसका कारण दूसरा है। जानने वालों ने इसलिए कहा है कि तुम कामवासना में मत पड़ों, ताकि तुम्हारी काम—ऊर्जा परमात्मा की तरफ प्रवाहित हो सके। इसमें कामवासना की निंदा नहीं है, केवल उसका महत्तर उपयोग है। सच पूछें तो इसमें उसकी महत्ता है। क्योंकि कामवासना में पड़ कर तुम संसार में प्रवेश कर जाओगे, और गहन अंधकार में। अगर तुम कामवासना में न पड़ी, तो यही ऊर्जा ऊपर चढने की सीढ़ी बन जाएगी।
तो जो सीढ़ी तुम्हें ऊपर ले जा सकती हो, उसको तुम नीचे की यात्रा पर मत लगाओ। इसमें सम्मान है, अपमान नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि कामऊर्जा परम सत्य तक ले जा सकती है। और तुम उसे व्यर्थ मत खो देना। लेकिन रुग्ण लोगों ने उसका जो अर्थ लिया, उन्होंने अर्थ लिया कि कामवासना के शत्रु हो जाओ। वे सीढ़ी ऊपर की तरफ तो लगाते नहीं, सीढ़ी नीचे की तरफ भी नहीं लगाते! वे सीढ़ी कंधे पर ले कर घूमते रहते हैं, वे सीडी लगाते ही नहीं!
ऊपर की तरफ लगाओ, बहुत सुखद है, परम आनंदपूर्ण है। ऊपर की तरफ न लगा सको, तो कंधे पर ले कर मत घूमो। क्योंकि उससे तुम सिर्फ रुग्ण हो रहे हो और बोझ ढो रहे हो। कामवासना के विरोध के कारण जीवन का भी अपमान हो गया हमारे मन में। क्योंकि जीवन उसी से तो उठता है, जीवन उसी से तो जगता है। जीवन कामवासना का ही तो फैलाव है।
साधनासुत्र
ओशो
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