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Sunday, August 16, 2015

चैतन्य कीर्ति ने पूछा है कि एक जैन मुनि श्री मधुकर ने आपके खिलाफ एक लेख लिखा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि संभोग से समाधि असंभव है।



जहां तक मुझे याद पड़ता है, मधुकर मुनि मुझे मिले हैं। राजस्थान में ब्यावर में तीन दिन तक मुझे रोज मिले हैं। और एक ही उनकी जिज्ञासा थी कि ध्यान कैसे लगे। ध्यान का पता नहीं और संभोग और समाधि की व्याख्या में लगे हैं! दोनों शब्द एक ही बीज से निकले हैं : सम-संभोग भी और समाधि भी। जहां समता है, जहां सब सम्यक् हो गया, वहीं संभोग है। क्षणभर को होगा, लेकिन उस क्षण को सब ठहर गया, सब सम हो गया, कुछ विषम न रहा। कोई विचार न रहा, कोई चिन्ता न रही, कोई मैं-तू का भाव न रहा-ऐसी ही घड़ी को तो संभोग कहते हैं। वह एक क्षण को ठहरेगी, फिर खो जाएगी। समाधि ऐसा संभोग है जो आया तो आया, फिर जाता नहीं है। अगर संभोग बूंद है तो समाधि सागर है। मगर दोनों सम से ही बने हैं, खयाल रहे। संभोग शब्द को गाली मत देना। उसे गाली दी तो तुम सम शब्द को गाली दे रहे हो।

लेकिन उन्हें ध्यान का तो कुछ पता है नहीं, न समाधि का कुछ पता है लेकिन पंडित हैं तो उन्होंने व्याख्या कर दी समाधि की : सम + आधि। और संभोग रहेगा तो, तो आधि रहेगी, आधि से व्याधि पैदा होगी, व्याधि से उपाधि पैदा होगी। चले अब शब्द में से शब्द निकलते जाएंगे। समाधि का कोई अनुभव नहीं है। समाधि की कोई झलक नहीं है। लेकिन समाधि शब्द की व्याख्या शुरू हो गई और फिर व्याख्या में अनर्थ तो होनेवाला है।

समाधि की क्या व्याख्या की! कि जो आधियों के बीच अपने मन को संतुलित रखता है। सुख आए कि दुख आए, आधियां आती हैं; सफलता मिले कि असफलता मिले! जो दोनों के बीच अपने मन को सम रखता है-वह समाधिस्थ है। मन को सम रखता है? मन कभी सम होता ही नहीं! मन है ही विषमता का नाम। जब तक यह दिखाई पड़ रहा है कि यह सफलता है और यह असफलता, क्या खाक मन को सम रखोगे? जिस दिन मन नहीं रहता उस दिन समता आती है। मन का अभाव है समता। मन कभी सम नहीं होता। मन का तो स्वरूप विषम है। मन तो डांवाडोल ही रहेगा, नहीं तो मन ही न रहेगा। लेकिन भाषा में हम इस तरह के उपयोग करते हैं।


मुल्ला नसरुद्दीन ने एक होटल खोली और पहला ही आदमी भीतर आया—चंदूलाल मारवाड़ी। मुल्ला ने तो सिर पीट लिया कि यह कहां सुबह सुबह मारवाड़ी दिखाई पड़ गया! और पहले ही दिन होटल खोली है, हो गया भंटा ढार! लेकिन अब क्या कर सकता था? कहा कि विराजिए; क्या सेवा करूं?
चंदूलाल बोले कि बड़ी गर्मी है, बड़ी धूप पड़ रही है, एक पानी का गिलास!
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, पानी का गिलास? असंभव! पानी का गिलास यहां है ही नहीं। गिलास में पानी दे सकता हूं लेकिन पानी का गिलास कहीं और खोजो। रास्ता पकड़ो!

भाषा में चल जाता है, पानी का गिलास। मगर मुल्ला नसरुद्दीन भी मुल्ला है, मौलवी है। अरे, किसी मुनि से पीछे थोड़े ही है! किसी मधुकर मुनि से पीछे थोड़े ही हैं! आधि से व्याधि, व्याधि से उपाधि—चले! उसने वहीं तरकीब निकाल ली। मारवाडी को वहीं ठंडा कर दिया कि जा- भाग, कहां पानी का गिलास मांग रहा है! पानी का कहीं गिलास होता है?

तूफान आता है, सागर में लहरें ही लहरें उठ आती हैं; उलुंग लहरें, जैसे आकाश को छू लेंगीं। नावें डावांडोल होती हैं, डूबती हैं, जहाजें टकराती हैं। फिर तूफान चला गया। तुम कहते हो, तूफान शांत हो गया लेकिन यह सिर्फ उसी तरह का शाब्दिक उपयोग है, जैसे पानी का गिलास। तूफान शात हो गया या नहीं हो गया? तूफान शात होने का अर्थ तो यह है कि तूफान है तो, मगर अभी शात है। अगर शब्द को ही पकड़ो… और पंडित के पास कुछ और तो पकड़ने को होता नहीं, सिर्फ शब्द ही पकड़ने को होते हैं। तूफान शांत है, इसका अर्थ है कि तूफान तो है मगर शान्त है और कब अशात हो जाएगा, क्या पता? जंजीरें डाल दी हैं, शांत बैठा है। है तो, लेकिन जब तुम कहते हो तूफान शांत हो गया, तो असल में तुम्हारा मतलब यह है कि तूफान नहीं हो गया, अब तूफान नहीं हो गया, अब तूफान नहीं है।

मन शांत नहीं होता। मन को शात कहने का कोई अर्थ नहीं है। मन को शात कहने का अर्थ है : अमनी दशा। नानक ने कहा : अमनी दशा। मन नहीं रहा। वही शांति है, मन का न होना। जहां मन नहीं है वहा समाधि है।
मगर मधुकर मुनि व्याख्या कर रहे हैं : ‘सफलता में, असफलता में, सुख-दुख में, हार में, जीत में-समभाव रखना।’ मगर अभी हार और जीत दिखाई तो पड़ती है न! जब दिखाई पड़ती है तो समभाव कैसे रहेगा? हार हार है, जीत जीत है। मिट्टी पड़ी है, सोना पड़ा है; दोनों के बीच समभाव से बैठे हैं मधुकर मुनि, कि समभाव रखना है—सोना सोना है, मिट्टी मिट्टी है, अपने को क्या लेना देना? मगर जब तक सोना सोना दिखाई पड़ रहा है और मिट्टी मिट्टी दिखाई पड़ रही है, तब तक तुम लाख अपने को समझाकर बिठाए रखो, यह जबरदस्ती थोपा हुआ संयम तो हो सकता है, लेकिन समाधि नहीं। समाधि तो बड़ी और बात है!

ये मधुकर मुनि सिर्फ लफ्फाजी कर रहे हैं। न इन्हें संभोग शब्द का अर्थ पता है क्योंकि अनुभव का पता नहीं, समता का कोई अनुभव ही नहीं। एक क्षण नहीं जाना समता का। मेरे सामने गिड़गिड़ाते थे, पूछते थे कि ध्यान कैसे लगे। और उस लेख में उन्होंने ध्यान समझाया है-’चित्त की एकाग्रता ध्यान है। और धारणा ध्यान बन जाती है जब मजबूत होती है। और ध्यान जब मजबूत होता है तो समाधि!’ मजबूत! जैसे धारणा डंड-बैठक लगाए तो ध्यान बने, फिर ध्यान अखाडाबाजी करे तो समाधि बने! मजबूत! कौन करेगा धारणा? धारणा के मन में होती है। अगर धारणा मजबूत होगी तो मन मजबूत होगा, ध्यान मजबूत नहीं होगा। और चित्त की एकाग्रता से तो चित्त ही मजबूत होगा, इससे समाधि कैसे आ जाएगी? मगर यही चलता है!

यह सूत्र ठीक कहता है कि जो उसे नहीं जानता, जो स्वयं के भीतर के वेद को नहीं पढ़ा है अभी, वह वेदों से क्या निष्कर्ष निकालेगा। मगर वे ही लोग व्याख्याएं कर रहे हैं, टीकाएं कर रहे हैं, बड़ी विस्तीर्ण व्याख्याएं लिखते हैं।

ब्रह्म का कोई अनुभव नहीं है और ब्रह्म-सूत्र पर भाष्य लिखते हैं। योग की कोई झलक भी नहीं मिली। योग मतलब जोड़। परमात्मा से मिलने की कोई प्रतीति ही नहीं हुई और पंतजलि के योगसूत्र पर लिखे चले जाते हैं।

 अभी भगवान ने कोई गीत भीतर गाया नहीं, अभी भगवद्गीता जन्मी नहीं-हा, मगर वह जो बाहर की गीता है उस पर कितनी टीकाएं हैं! एक हजार तो प्रसिद्ध टीकाएं हैं और अनेक हजार अप्रसिद्ध टीकाएं होंगीं।


‘सहज आसिकी नाहिं’

ओशो 



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