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Friday, August 14, 2015

परतंत्रता से आदमी का ऐसा प्रेम क्या है?


…… नहीं परतंत्रता से किसी का भी प्रेम नहीं है। लेकिन परतंत्रता को हमने स्वतंत्रता के शब्द और वस्त्र ओढ़ा रखे हैं। एक आदमी अपने को हिंदू कहने में जरा भी ऐसा अनुभव नहीं करता कि मैं अपनी गुलामी की सूचना कर रहा हूं। एक आदमी अपने को मुसलमान कहने में जरा भी नहीं सोचता कि मुसलमान होना मनुष्यता के ऊपर दीवाल बनानी है। एक आदमी किसी बात में, किसी संप्रदाय में, किसी देश में अपने को बांधकर कभी ऐसा नहीं सोचता कि मैंने अपना कारागृह अपने हाथों से बना लिया है। बड़ी चालाकी, बड़ा धोखा आदमी अपने को देता रहा है। और सबसे बड़ा धोखा यह है कि हमने कारागृहों को सुंदर नाम दे दिये हैं, हमने बेड़ियों को फूलों से सजा दिया है; और जो हमें बांधे हुए हैं, उन्हें हम मुक्तिदायी समझ रहे हैं!

यह मैं पहली बात आज आपसे कहना चाहता हूं कि जो लोग भी अपने जीवन में क्रांति लाना चाहते हैं, सबसे पहले उन्हें यह समझ लेना होगा कि बंधा हुआ आदमी कभी भी जीवन की क्रांति से नहीं गुजर सकता। और हम सारे ही लोग बंधे हुए लोग है। यद्यपि हमारे हाथों में जंजीरें नहीं हैं, हमारे पैरों में बेड़ियां नहीं हैं; लेकिन हमारी आत्माओं पर बहुत जंजीरें हैं, बहुत बेड़ियां हैं। और पैरों में बेड़ियां पड़ी हों, तो दिखायी भी पड़ जाती है, पर आत्मा पर जंजीरें पड़ी हों, तो दिखायी भी नहीं पड़ती। अदृश्य बंधन इस बुरी तरह बांध लेते हैं कि उनका पता भी नहीं चलता। और जीवन हमारा एक कैद बन जाता है। और वे अदृश्य बंधन हैं-सिद्धांतों के, शास्त्रों के और शब्दों के।

सम्भोग से समाधी की और

ओशो

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