तीसरी आँख को विकसित करने लिए कुछ महत्वपूर्ण ध्यान: ओशो
लाओत्से ने कहा: व्यक्ति नासाग्र की और देखे।
क्यों? क्योंकि
इससे मदद मिलती है, यह प्रयोग तुम्हें तृतीय नेत्र की रेखा पर ले आता है।
जब तुम्हारी दोनों आंखें नासाग्र पर केंद्रित होती है तो उससे कई बातें
होती है। मूल बात यह है कि तुम्हारा तृतीय नेत्र नासाग्र की रेखा पर
है—कुछ इंच ऊपर, लेकिन उसी रेखा में। और एक बार तुम तृतीय नेत्र की रेखा
में आ जाओ तो तृतीय नेत्र का आकर्षण उसका खिंचाव, उसका चुम्बकत्व इतना
शक्तिशाली है कि तुम उसकी रेखा में पड़ जाओं तो अपने बावजूद भी तुम उसकी
और खींचे चले आओगे। तुम बस ठीक उसकी रेखा में आ जाना है, ताकि तृतीय नेत्र
का आकर्षण, गुरुत्वाकर्षण सक्रिय हो जाए। एक बार तुम ठीक उसकी रेखा में आ
जाओं तो किसी प्रयास की जरूरत नहीं है।
अचानक
तुम पाओगे कि गेस्टाल्ट बदल गया, क्योंकि दो आंखें संसार और विचार का
द्वैत पैदा करती है। और इन दोनों आंखों के बीच की एक आँख अंतराल निर्मित
करती है। यह गेस्टाल्ट को बदलने की एक सरल विधि है।
मन
इसे विकृत कर सकता है मन कह सकता है, ‘’ठीक अब, नासाग्र को देखो। नासाग्र
का विचार करो, उस चित को एकाग्र करो।‘’ यदि तुम नासाग्र पर बहुत एकाग्रता
साधो तो बात को चूक जाओगे, क्योंकि होना तो तुम्हें नासाग्र पर है, लेकिन
बहुत शिथिल ताकि तृतीय नेत्र तुम्हें खींच सके। यदि तुम नासाग्र पर बहुत
ही एकाग्रचित्त, मूल बद्ध, केंद्रित और स्थिर हो जाओ तो तुम्हारा तृतीय
नेत्र तुम्हें भीतर नहीं खींच सकेगा क्योंकि वह पहले कभी भी सक्रिय नहीं
हुआ। प्रारंभ में उसका खिंचाव बहुत ज्यादा नहीं हो सकता। धीरे-धीरे वह
बढ़ता जाता है। एक बार वह सक्रिय हो जाए और उपयोग में आने लगे, तो उसके
चारों और जमी हुई धूल झड़ जाए, और यंत्र ठीक से चलने लगे। तुम नासाग्र पर
केंद्रित भी हो जाओ तो भी भीतर खींच लिए जाओगे। लेकिन शुरू-शुरू में नहीं।
तुम्हें बहुत ही हल्का होना होगा, बोझ नहीं—बिना किसी खींच-तान के।
तुम्हें एक समर्पण की दशा में बस वहीं मौजूद रहना होगा।.....
‘’यदि
व्यक्ति नाक का अनुसरण नहीं करता तो यह तो वह आंखें खोलकर दूर देखता है
जिससे कि नाक दिखाई न पड़े अथवा वह पलकों को इतना जोर से बंद कर लेता है कि
नाक फिर दिखाई नहीं पड़ती।‘’
नासाग्र
को बहुत सौम्यता से देखने का एक अन्य प्रयोजन यह भी है: कि इससे
तुम्हारी आंखें फैल कर नहीं खुल सकती। यदि तुम अपनी आंखे फैल कर खोल लो तो
पूरा संसार उपलब्ध हो जाता है। जहां हजारों व्यवधान है। कोई सुंदर
स्त्री गुजर जाती है और तुम पीछा करने लगते हो—कम से कम मन में। या कोई
लड़ रहा है; तुम्हारा कुछ लेना देना नहीं है, लेकिन तुम सोचने लगते हो कि
‘’क्या होने वाला है?’’
या कोई रो रहा है और तुम जिज्ञासा से भर जाते हो। हजारों चीजें सतत
तुम्हारे चारों और चल रही है। यदि आंखे फैल कर खुली हुई है तो तुम पुरूष
ऊर्जा—याँग—बन जाते हो।
यदि
आंखे बिलकुल बंद हो तो तुम एक प्रकार सी तंद्रा में आ जाते हो। स्वप्न
लेने लगते हो। तुम स्त्रैण ऊर्ज—यन—बन जाते हो। दोनों से बचने के लिए
नासाग्र पर देखो—सरल सी विधि है, लेकिन परिणाम लगभग जादुई है।
और
ऐसा केवल ताओ को मानने वालों के साथ ही है। बौद्ध भी इस बात को जानते है,
हिंदू भी जानते है। ध्यानी साधक सदियों से किसी न किसी तरह इस निष्कर्ष
पर पहुंचते रहे है कि आंखे यदि आधी ही बंद हों तो अत्यंत चमत्कारिक ढंग
से तुम दोनों गड्ढों से बच जाते हो। पहली विधि में साधक बह्म जगत से विचलित
हो रहा है। और दूसरी विधि में भीतर के स्वप्न जगत से विचलित हो रहा है।
तुम ठीक भीतर और बाहर की सीमा पर बने रहते हो और यही सूत्र है: भीतर और
बाहर की सीमा पर होने का अर्थ है उस क्षण में तुम न पुरूष हो न स्त्री हो
तुम्हारी दृष्टि द्वैत से मुक्त है; तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे भीतर
के विभाजन का अतिक्रमण कर गई। जब तुम अपने भीतर के विभाजन से पार हो जाते
हो, तभी तुम तृतीय नेत्र के चुम्बकीय क्षेत्र की रेखा में आते हो।
‘’मुख्य बात है पलकों को ठीक ढंग से झुकाना और तब प्रकाश को स्वयं ही भीतर बहने देना।‘’
इसे स्मरण रखना बहुत महत्वपूर्ण है: तुम्हें प्रकाश को भीतर नहीं खींचना
है, प्रकाश को बलपूर्वक भीतर नहीं लाना है। यदि खिड़की खुली हो तो प्रकाश
स्वयं ही भीतर आ जाता है। यदि द्वार खुला हो तो भीतर प्रकाश की बाढ़ जा
जाती है। तुम्हें उसे भीतर प्रकाश की बाढ़ आ जाती है। तुम्हें उसे भीतर
लाने की जरूरत नहीं है। उसे भीतर धकेलने की जरूरत नहीं है। भीतर घसीटने की
जरूरत नहीं है। और तुम प्रकाश को भी तर कैसे घसीट सकते हो? प्रकाश को तुम भीतर कैसे धकेल सकते हो? इतना ही चाहिए कि तुम उसके प्रति खुले और संवेदनशील रहो।.....
‘’दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है।‘’
स्मरण
रखो, तुम्हें दोनों आँखो से नासाग्र को देखना है ताकि नासाग्र पर दोनों
आंखे अपने द्वैत को खो दें। तो जो प्रकाश तुम्हारी आंखों से बाहर बह रहा
है वह नासाग्र पर एक हो जाता है। वह एक केंद्र पर आ जाता है। जहां
तुम्हारी दोनों आंखें मिलती है, वहीं स्थान है जहां खिड़की खुलती है। और
फिर सब शुभ है। फिर इस घटना को होने दो, फिर तो बस आदत मनाओ, उत्सव मनाओ,
हर्षित होओ। प्रफुल्लित होओ। फिर कुछ भी नहीं करना है।
‘’दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है, सीधा होकर बैठता है।‘’
सीधी
होकर बैठना सहायक है। जब तुम्हारी रीढ़ सीधी होती है। तुम्हारे
काम-केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्ध हो जाती है। सीधी-सादी
विधियां है, कोई जटिलता इनमें नहीं है, बस इतना ही है कि जब दोनों आंखें
नासाग्र पर मिलती है, तो तुम तृतीय नेत्र के लिए उपलब्ध कर दो। फिर प्रभाव
दुगुना हो जाएगा। प्रभाव शक्तिशाली हो जाएगा, क्योंकि तुम्हारी सारी
ऊर्जा काम केंद्र में ही है। जब रीढ़ सीधी खड़ी होती है तो काम केंद्र की
ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्ध हो जाती है। यह बेहतर है कि दोनों आयामों
से तृतीय नेत्र पर चोट की जाए, दोनों दिशाओं से तृतीय नेत्र में प्रवेश
करने की चेष्टा की जाए।
‘’व्यक्ति सीधा होकर और आराम देह मुद्रा में बैठता है।‘’
सदगुरू
चीजों को अत्यंत स्पष्ट कर रहे है। सीधे होकर, निश्चित ही, लेकिन इसे
कष्टप्रद मत बनाओ; वरन फिर तुम अपने कष्ट से विचलित हो जाओगे। योगासन का
यही अर्थ है। संस्कृत शब्द ‘’आसन’’ का अर्थ है: एक आरामदेह मुद्रा। आराम
उसका मूल गुण है। यदि वह आरामदेह न हो तो तुम्हारा मन कष्ट से विचलित हो
जाएगा। मुद्रा आरामदेह ही हो.....
‘’और इसका अर्थ अनिवार्य रूप से सिर के मध्य में होना नहीं है।‘’
और केंद्रिय होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम्हें सिर के मध्य में केंद्रित होना है।
‘’केंद्र सर्वव्यापी है; सब कुछ उसमें समाहित है; वह सृष्टि की समस्त प्रक्रिया के निस्तार से जुड़ा हुआ है।‘’
और
जब तुम तृतीय नेत्र के केंद्र पर पहुंच कर वहां केंद्रित हो जाते हो और
प्रकाश बाढ़ की भांति भीतर आने लगता है, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए, जहां
से पूरी सृष्टि उदित हुई है। तुम निराकार और अप्रकट पर पहुच गए। चाहो तो
उसे परमात्मा कह लो। यही वह बिंदु है, यह वह आकाश है, जहां से सब जन्मा
है। यही समस्त अस्तित्व का बीज है। यह सर्वशक्तिमान है। सर्वव्यापी
है, शाश्वत है।......
और
यही राज है। बुद्ध भी इसी राज को उपयोग में लाए। वास्तव में सभी राज तो
लगभग एक से ही है क्योंकि मनुष्य यही है—ताला वही है, जो कुंजी भी वहीं
होनी चाहिए। यही राज है; बुद्ध इसे सम्मा सती, सम्यक स्मृति कहते है।
इतना स्मरण रखो: यह विचार आया है, बिना किसी विरोध, बिना किसी दलील , बिना
किसी निंदा के देखो कि वह है, कहां एक वैज्ञानिक की भांति निरीक्षक हो
रहो। देखो कि वह कहां है, कहां से आ रहा है। कहां जा रहा है। उसके आने को
देखो उसके रूकने को देखो उसके जाने को देखो। और विचार बहुत गत्यात्मक है;
वे देर तक नहीं रुकते। तुम्हें तो बस विचार के उठने उसके रूकने, उसके
जाने को देखना भर है। न संघर्ष करने की चेष्टा करो। न अनुसरण करो, बस एक
मौन निरीक्षक बने रहो। और तुम्हें हैरानी होगी; निरीक्षक जितना थिर हो
जाता है, विचार उतने ही कम आएँगे। जब निरीक्षक बिलकुल पूर्ण हो जाता है तो
विचार समाप्त हो जाते है। बस एक अंतराल, एक मध्यांतर ही बचता है।
लेकिन एक बात और याद रखना: मन फिर से एक चाल चल सकता है।
‘’प्रतिबिंब को आगे सरकाने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता।‘’
यही
फ्रायडियन मनोविश्लेषण भी है: विचारों की मुक्त साहचर्य शृंखला। एक
विचार आता है, और फिर तुम दूसरे विचार की प्रतीक्षा करते हो, और फिर तीसरे
की, और यह पूरी शृंखला है। ... हर मनोविश्लेषण यही कहता है—तुम अतीत में
पीछे जाने लगते हो। एक विचार दूसरे से जुड़ा होता है। और यह शृंखला अनंत तक
चलती है। उसका काई अंत नहीं है। यदि तुम उसके भीतर जाने लगो तो तुम एक
अनंत यात्रा पर निकल जाओगे। और यह बिलकुल अपव्यय होगा। मन ऐसा कर सकता है।
तो इसके प्रति सजग रहो।....
मन
के द्वारा तुम मन के पार नहीं जा सकते। इसलिए व्यर्थ में अनावश्यक
चेष्टा मत करो। वरना एक बात तुम्हें दूसरे में ले जाएगी। और ऐस आगे से
आगे चलता रहेगा। और तुम बिलकुल भूल ही जाओगे कि तुम क्या करने का प्रयास
कर रहे थे। नासाग्र गायब हो जाएगा। तृतीय नेत्र भूल जाएगा। और प्रकाश का
प्रवाह तो तुमसे मीलों दूर चला जाएगा। तो ये दो बातें स्मरण रखने की है,
ये दो पंख है। एक: जब अंतराल आ जाएं, कोई विचार न चलता हो, तो ध्यान करो।
जब कोई विचार आए तो बस इन तीन बातों को देखो: विचार कहां है, वह कहां से
आया है और कहां जा रहा है। एक क्षण के लिए अंतराल को देखना छोड़ दो और
विचार को देखो, उसे अलविदा करो। जब वह चला जाए, तो फिर से ध्यान के
अभ्यास पर वापस लौट आओ।
ओशो
ध्यान योग: प्रथम और अंतिम मुक्ति
No comments:
Post a Comment