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Thursday, August 20, 2015

पानी पर लकीर

हम अभी जी रहे हैं छाया में। वह जो परिवर्तनशील है, उसमें हम जी रहे हैं। जीवन हमारे पास अभी है, लेकिन क्षणभंगुर है; जो अभी है और नहीं हो जाएगा। जितनी देर कहने में लगती है, उतनी देर में भी हो सकता है, नहीं हो गया। जैसे कोई रेत के मकान बनाता हो या कोई ताश के घर बनाता हो, ऐसा हमारा जीवन है–क्षणभंगुर से बंधा।

सोचें, जहां-जहां आप पाते हैं कि आपका रस है, वहां-वहां क्या है? वहां कुछ है जो क्षणभंगुर है। धन को कोई पकड़ रहा है, बहुत रस है धन में। कितना धन पकड़ सकते हैं? धन का क्या शाश्वत मूल्य है? धन का क्या सनातन मूल्य है? और अगर एक रेगिस्तान में पड़े हों और धन का ढेर भी आपके पास हो, तो एक चुल्लू पानी भी उससे नहीं मिल सकेगा। उसका कोई वास्तविक मूल्य भी नहीं है। उसका मूल्य काल्पनिक है, और समझौते पर निर्भर है।

सुना है मैंने एक फकीर एक सम्राट से कह रहा था, तूने बहुत धन इकट्ठा कर लिया, लेकिन अगर मरुस्थल में तू प्यासा मरता हो, तो एक गिलास पानी के लिए इसमें से कितना मूल्य दे सकेगा? उस सम्राट ने कहा, अगर मर ही रहा हूं, तो सारा साम्राज्य भी दे दूंगा एक गिलास पानी के लिए। तो जिस साम्राज्य का मूल्य एक गिलास पानी में भी चुकाना पड़ सकता हो, उसमें मूल्य भी कितना होगा!

कोई रूप के लिए जी रहा है, सौंदर्य के लिए जी रहा है। पानी पर पड़ी लकीर जैसा है; अभी है और अभी नहीं हो जाएगा। और जिसे हम सुंदर पाते हैं आज, कल वह कुरूप हो जाएगा। और जिसे हम युवा पाते हैं।

समाधी के सप्तद्वार 

ओशो

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