यहां मैं देखता हूं शिविर में भी लोग एक-दूसरे के कमरे में जा रहे हैं,
सलाह-मशवरा भी दे रहे हैं, ज्ञान दे रहे हैं; एक-दूसरे को जगा रहे हैं,
एक-दूसरे को शांति पहुंचा रहे हैं! चैन से नहीं बैठे हैं, और न दूसरे को
चैन से बैठने देते हैं! तुम्हारी सलाह किस को चाहिए? तुम्हारे पास सलाह है?
लेकिन बड़ा मजा आता है। गुरु बनने में बड़ा मजा है! कोई शिष्य बनने को उत्सुक नहीं है! गुरु बनने में बड़ा रस है, क्योंकि अहंकार की बड़ी तृप्ति है। और इन सलाहकारों की हालत अगर देखने जाओ, तो अभी वे तुम्हें सलाह दे रहे हैं, और कल जब उन पर वही घटना घट जाए, तो तुम उन्हें सलाह दोगे! और वे इसी दयनीय हालत में होंगे, जिसमें तुम हो। अगर तुम क्रोध में हो तो वे तुमको बताएंगे कि क्रोध से कैसे मुक्त होना है! और तुम उनको जरा गाली दे कर देखो। और वे भूल जाएंगे कि क्या सलाह दे रहे थे! और तुम्हें उनको सलाह देनी पड़ेगी।
क्यों? क्यों इतनी उत्सुकता है दूसरे को सलाह देने की? बिना ज्ञान के ज्ञानी होने का रस लेना चाहते हैं। बुद्धिमान आदमी से अगर आप सलाह लेने जाएंगे, तो सौ में निन्यानबे मौके पर तो वह कह देगा कि इसका मुझे कुछ पता नहीं है। एक मौके पर जिसका उसे पता है, वह आपसे निवेदन कर देगा। लेकिन वह यह भी निवेदन कर देगा कि जरूरी नहीं है कि यह आपके काम आए, क्योंकि मेरे काम आई है। क्योंकि आदमी अलग-अलग हैं, परिस्थिति भिन्न-भिन्न है। इसलिए इतना ही मैं कह सकता हूं कि यह सलाह मेरे काम आई थी, इससे मुझे लाभ हुआ था। इससे आपको हानि भी हो सकती है, इसलिए आप सोच-समझ लेना। यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है।
लेकिन जो सलाह आपके ही कभी काम नहीं आई, वह भी आप दूसरे को दे देते हैं!
मैं पढ़ रहा था एक मनोवैज्ञानिक की पत्नी का संस्मरण। उसने मुझे संस्मरण लिख कर भेजा। उसने मुझे लिखा कि मेरे पति मैरिज काउंसलर हैं। वह लोगों के शादी विवाह में जो झगड़ा-झांसा हो जाता है, उसको सुलझाते हैं। लेकिन हम दोनों के बीच जो झगड़ा-झांसा चल रहा है, उसका कोई हल नहीं है! वह सैकड़ों शादियों में जो झगड़े हो जाते हैं, उनको सुलझा देते हैं। पति-पत्नी लड़ते आते हैं, वे उन दोनों को समझते हैं, समझाते हैं, रास्ता बना देते हैं। न मालूम कितने तलाक उन्होंने बचा दिए। लेकिन हमारा तलाक हो कर रहेगा, यह निश्चित है! तो उसने मुझे पूछा कि तकलीफ क्या है? आखिर मेरे पति इतने बुद्धिमान हैं, यह मैं भी मानती हूं क्योंकि मैंने अपने सामने देखा कि उन्होंने कई लोगों को ठीक रास्ते पर ला दिया, लेकिन उनकी खुद की सलाह, खुद के काम क्यों नहीं आती?
कभी-कभी यह हो सकता है कि आपकी सलाह दूसरे के काम आ जाए। लेकिन यह दूसरे के काम आ ही इसलिए रही है कि आप दूसरे से दूर खड़े हैं, तो आप निष्पक्ष देख सकते हैं। जब आपका ही मामला होता है, तो आप दूर खड़े नहीं हो पाते, निष्पक्ष नहीं देख सकते, पक्ष हो जाता है।
तो मैंने उसकी पत्नी को पत्र लिखवा दिया, तू फिकर मत कर, किसी और मैरिज काउंसलर के पास तुम दोनों चले जाओ, वह कुछ रास्ता बना देगा। इस अंधों की दुनिया में, अंधे भी एक-दूसरे को रास्ता बताते रहते हैं! चलता है। तो वह रास्ता बनेगा। अगर तू अपने ही पति से सलाह लेना चाहती है, तो मुश्किल है। क्योंकि पति से तू सलाह ले नहीं सकती। पति तुझे सलाह निष्पक्ष दे नहीं सकता। क्योंकि वह खुद भी हिस्सा है एक, पार्टी है झगड़े में। तुम दोनों किसी और के पास चले जाओ।
यह जो बुद्धिमानी है, जो इस तरह एकदूसरे के काम आती रहती है, यह बुद्धिमानी बहुत गहरी नहीं है। यह बुद्धिमानी किसी गहरे अनुभव से नहीं निकली है। यह बुद्धिमानी किताबी है, यह ऊपरी है। इससे बचना जरूरी है।
जब तक हमें आत्मा की कुछ झलक न मिलने लगे, तब तक कम से कम आत्मा के संबंध में सलाह मशवरा से बचना जरूरी है। क्योंकि उससे तुम उपद्रव ही पैदा करोगे। और दूसरे की जिंदगी में अगर तुमसे कोई आनंद न आए, तो कम से कम इतनी तो कृपा करनी ही चाहिए कि कोई उपद्रव पैदा न हो।
‘जब तुमको आरंभ के पंद्रह नियमों का ज्ञान हो चुकेगा और तुम अपनी शक्तियों को विकसित और अपनी इंद्रियों को उन्मुक्त करके ज्ञान मंदिर में प्रविष्ट हो जाओगे, तब तुम्हें ज्ञात होगा कि तुम्हारे भीतर एक स्रोत है, जहां से वाणी मुखरित होगी।’
‘ये बातें केवल उनके लिए लिखी गई हैं, जिनको मैं अपनी शांति देता हूं और जो लोग, जो कुछ मैंने लिखा है, उसके बाह्य अर्थ के अतिरिक्त उसके भीतरी अर्थ को भी साफ समझ सकते हैं।’
साधनसूत्र
ओशो
लेकिन बड़ा मजा आता है। गुरु बनने में बड़ा मजा है! कोई शिष्य बनने को उत्सुक नहीं है! गुरु बनने में बड़ा रस है, क्योंकि अहंकार की बड़ी तृप्ति है। और इन सलाहकारों की हालत अगर देखने जाओ, तो अभी वे तुम्हें सलाह दे रहे हैं, और कल जब उन पर वही घटना घट जाए, तो तुम उन्हें सलाह दोगे! और वे इसी दयनीय हालत में होंगे, जिसमें तुम हो। अगर तुम क्रोध में हो तो वे तुमको बताएंगे कि क्रोध से कैसे मुक्त होना है! और तुम उनको जरा गाली दे कर देखो। और वे भूल जाएंगे कि क्या सलाह दे रहे थे! और तुम्हें उनको सलाह देनी पड़ेगी।
क्यों? क्यों इतनी उत्सुकता है दूसरे को सलाह देने की? बिना ज्ञान के ज्ञानी होने का रस लेना चाहते हैं। बुद्धिमान आदमी से अगर आप सलाह लेने जाएंगे, तो सौ में निन्यानबे मौके पर तो वह कह देगा कि इसका मुझे कुछ पता नहीं है। एक मौके पर जिसका उसे पता है, वह आपसे निवेदन कर देगा। लेकिन वह यह भी निवेदन कर देगा कि जरूरी नहीं है कि यह आपके काम आए, क्योंकि मेरे काम आई है। क्योंकि आदमी अलग-अलग हैं, परिस्थिति भिन्न-भिन्न है। इसलिए इतना ही मैं कह सकता हूं कि यह सलाह मेरे काम आई थी, इससे मुझे लाभ हुआ था। इससे आपको हानि भी हो सकती है, इसलिए आप सोच-समझ लेना। यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है।
लेकिन जो सलाह आपके ही कभी काम नहीं आई, वह भी आप दूसरे को दे देते हैं!
मैं पढ़ रहा था एक मनोवैज्ञानिक की पत्नी का संस्मरण। उसने मुझे संस्मरण लिख कर भेजा। उसने मुझे लिखा कि मेरे पति मैरिज काउंसलर हैं। वह लोगों के शादी विवाह में जो झगड़ा-झांसा हो जाता है, उसको सुलझाते हैं। लेकिन हम दोनों के बीच जो झगड़ा-झांसा चल रहा है, उसका कोई हल नहीं है! वह सैकड़ों शादियों में जो झगड़े हो जाते हैं, उनको सुलझा देते हैं। पति-पत्नी लड़ते आते हैं, वे उन दोनों को समझते हैं, समझाते हैं, रास्ता बना देते हैं। न मालूम कितने तलाक उन्होंने बचा दिए। लेकिन हमारा तलाक हो कर रहेगा, यह निश्चित है! तो उसने मुझे पूछा कि तकलीफ क्या है? आखिर मेरे पति इतने बुद्धिमान हैं, यह मैं भी मानती हूं क्योंकि मैंने अपने सामने देखा कि उन्होंने कई लोगों को ठीक रास्ते पर ला दिया, लेकिन उनकी खुद की सलाह, खुद के काम क्यों नहीं आती?
कभी-कभी यह हो सकता है कि आपकी सलाह दूसरे के काम आ जाए। लेकिन यह दूसरे के काम आ ही इसलिए रही है कि आप दूसरे से दूर खड़े हैं, तो आप निष्पक्ष देख सकते हैं। जब आपका ही मामला होता है, तो आप दूर खड़े नहीं हो पाते, निष्पक्ष नहीं देख सकते, पक्ष हो जाता है।
तो मैंने उसकी पत्नी को पत्र लिखवा दिया, तू फिकर मत कर, किसी और मैरिज काउंसलर के पास तुम दोनों चले जाओ, वह कुछ रास्ता बना देगा। इस अंधों की दुनिया में, अंधे भी एक-दूसरे को रास्ता बताते रहते हैं! चलता है। तो वह रास्ता बनेगा। अगर तू अपने ही पति से सलाह लेना चाहती है, तो मुश्किल है। क्योंकि पति से तू सलाह ले नहीं सकती। पति तुझे सलाह निष्पक्ष दे नहीं सकता। क्योंकि वह खुद भी हिस्सा है एक, पार्टी है झगड़े में। तुम दोनों किसी और के पास चले जाओ।
यह जो बुद्धिमानी है, जो इस तरह एकदूसरे के काम आती रहती है, यह बुद्धिमानी बहुत गहरी नहीं है। यह बुद्धिमानी किसी गहरे अनुभव से नहीं निकली है। यह बुद्धिमानी किताबी है, यह ऊपरी है। इससे बचना जरूरी है।
जब तक हमें आत्मा की कुछ झलक न मिलने लगे, तब तक कम से कम आत्मा के संबंध में सलाह मशवरा से बचना जरूरी है। क्योंकि उससे तुम उपद्रव ही पैदा करोगे। और दूसरे की जिंदगी में अगर तुमसे कोई आनंद न आए, तो कम से कम इतनी तो कृपा करनी ही चाहिए कि कोई उपद्रव पैदा न हो।
‘जब तुमको आरंभ के पंद्रह नियमों का ज्ञान हो चुकेगा और तुम अपनी शक्तियों को विकसित और अपनी इंद्रियों को उन्मुक्त करके ज्ञान मंदिर में प्रविष्ट हो जाओगे, तब तुम्हें ज्ञात होगा कि तुम्हारे भीतर एक स्रोत है, जहां से वाणी मुखरित होगी।’
‘ये बातें केवल उनके लिए लिखी गई हैं, जिनको मैं अपनी शांति देता हूं और जो लोग, जो कुछ मैंने लिखा है, उसके बाह्य अर्थ के अतिरिक्त उसके भीतरी अर्थ को भी साफ समझ सकते हैं।’
साधनसूत्र
ओशो
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