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Friday, August 14, 2015

छोड़ दो! छोड़ दो!

मैं अभी ग्‍वालियर में था। एक-डेढ वर्ष पहले, ग्वालियर के एक मित्र ने मुझे फोन किया कि मैं अपनी बूढ़ी मां को भी अपनी सभा में लाना चाहता हूं लेकिन मैं डरता हूं। क्योंकि उनकी उम्र कोई नब्बे वर्ष है। चालीस वर्षों से वह दिन-रात माला फेरती रहती हैं। सोती हैं, तो भी रात उनके हाथ में माला ‘होती है। और आपकी बातें कुछ ऐसी है कि कहीं उनको चोट न लग जाये। मेरी समझ में नहीं आता कि इस उम्र में उनको लाना उचित है या नहीं….?
मैंने उन मित्र को खबर दी कि आप जरूर ले आयें। क्योंकि इस उम्र में अगर न लाये, तो हो सकता है, जब दुबारा मैं आऊं तो आपकी मां से मेरा मिलना भी न हो पाये। इसलिये जरूर ले आयें। आप चाहे आयें या न आयें, मां को जरूर ले आयें…..।

वे मां को लेकर आये। दूसरे दिन मुझे उन्होंने खबर की कि बड़ी चमत्कार की बात हो गयी। जब मैं आया, तो आप माला के खिलाफ ही बोलने लगे। तो मुझे लगा कि यह आपको खबर करना तो ठीक नहीं हुआ। मैंने आपसे कहा कि मेरी मां माला फेरती है, तो मुझे लगा कि आप माला के खिलाफ ही बोलने लगे! तो मुझे लगा कि आप मेरी मां को ही ध्यान में रखकर बोल रहे हैं। उसको नाहक चोट लगेगी, नाहक दुख होगा। मैं डरा, पूरे रास्ते गाड़ी में मैंने मां से पूछा भी नहीं कि तेरे मन पर क्या असर हुआ?

घर जाकर मैंने पूछा कि कैसा लगा, तो मेरी मां ने कहा, ”कैसा लगा? मैं माला वहीं मीटिंग में ही छोड़ आयी। चालीस साल का मेरा भी अनुभव कहता है कि माला से मुझे कुछ भी नहीं मिला। लेकिन इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी कि उसे छोड़ दूं। वह बात मुझे खयाल आ गई, माला तो मुझे पकड़े हुए नहीं थी, मैं ही उसे पकड़े हुए थी। मैंने उसे छोड़ दिया तो वह छूट गयी! ”

तो आप यह मत पूछना कि कैसे हम छोड़ दें। कोई आपको पकड़े हुए नहीं है, आप ही मुट्ठी बांधे हुए हैं। छोड़ दें और वह छूट जाता है। और छूटते ही आप पायेंगे कि चित्त हल्का हो गया, निर्भार हो गया-तैयार हो गया-एक यात्रा के लिये।

सम्भोग से समाधी

ओशो 

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