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Monday, August 17, 2015

एलोपेथी और आयुर्वेद

एक बीमार व्यक्ति को जरूरत होती है कामवासना की, स्वस्थ व्यक्ति तो प्रेम करता है। और प्रेम समग्र रूपेण अलग बात है। और जब दो स्वस्थ व्यक्ति मिलते हैं, तो स्वस्थता कई गुना बढ़ जाती है। तब वह परम सत्य को पाने में एक-दूसरे के सहायक बन जाते हैं। वह परम सत्य के लिए एक साथ मिलकर कार्य कर सकते हैं, परस्पर सहायता करते हुए। लेकिन मांग समाप्त हो जाती है, यह अब कोई निर्भरता न रही।

जब कभी तुम्हें कोई असुविधाजनक अनुभूति हो स्वयं के साथ, तो इसे कामवासना में और विषयासक्ति में डुबोने की कोशिश मत करना। बल्कि और ज्यादा स्वस्थ होने की कोशिश करना। योगासन मदद करेंगे। हम बाद में उनकी चर्चा करेंगे जब पतंजलि उनकी बात कहें। अभी तो वे कहते हैं, यदि तुम ओम् का जाप .और उसी का ध्यान करो, तो रोग तिरोहित हो जायेगा। और वे सही हैं। न ही केवल रोग जो कि वहां था वही तिरोहित हो जायेगा, बल्कि वह रोग भी जो भविष्य में आने को था, वह भी तिरोहित हो जायेगा।

यदि आदमी एक संपूर्ण जाप बन सकता है जिससे कि जाप करने वाला पूर्णतया खो जाये, यदि वह केवल एक शुद्ध चेतना बन सकता है-प्रकाश की एक अग्निशिखा-और चारों ओर होता है जाप ही जाप, तो ऊर्जा एक वर्तुल में उतर रही होती है। तो वह एक वर्तुल ही बन जाती है। और तब तुम्हारे पास होता है जीवन का सबसे अधिक सुखात्मक क्षणों में से एक क्षण। जब ऊर्जा एक वर्तुल में उतर रही होती है और एक आंतरिक समस्वरता बन जाती है तो कोई विसंगति नहीं रहती, कोई संघर्ष नहीं होता। तुम एक हो गये होते हो। लेकिन साधारणतया भी, रोग एक बाधा बनेगा। यदि तुम बीमार हो, तो तुम्हें इलाज की आवश्यकता होती है।

पतंजलि की योग-प्रणाली और चिकित्सा-शाख की हिन्दू-प्रणाली, आयुर्वेद, साथ-साथ इकट्ठी विकसित हुईं। आयुर्वेद समग्रतया विभिन्न है एलौपैथी से। एलोपैथी रोग के प्रति दमनाअत्‍मक होती है। एलोपैथी ईसाइयत के साथ ही साथ विकसित हुई; यह एक उप-उअत्ति है। और क्योंकि ईसाइयत दमनात्मक है, यदि तुम बीमार हो तो एलोपैथी तुरंत बीमारी का दमन करती है। तब बीमारी कोई और कमजोर स्थल आजमाती है जहां से उभर सके। फिर किसी दूसरी जगह से यह फूट पड़ती है। तब तुम इसे वहां दबाते हो, तो फिर यह किसी और जगह से फूट पड़ती है। एलोपैथी के साथ, तुम एक बीमारी से दूसरी बीमारी तक पहुंचते जाते हो, दूसरी से तीसरी तक, और एक कभी न खअ होने वाली प्रक्रिया होती है।

आयुर्वेद की अवधारणा पूर्णत: अलग ही होती है। अस्वस्थता को दबाना नहीं चाहिए, यह मुक्त की जानी चाहिए। रेचन की जरूरत होती है। बीमार आदमी को आयुवेदिक दवा दी जाती है इसलिए कि बीमारी बाहर आ जाये और फेंकी जाये। यह एक रेचन होता है। इसलिए हो सकता है कि प्रारंभिक आयुर्वेद की खुराक की मात्रा तुम्हें और ज्यादा बीमार कर दे, और इसमें बहुत लंबा समय लग जाता है क्योंकि यह कोई दमन नहीं है। यह बिलकुल अभी कार्य नहीं कर सकती-यह एक लंबी प्रक्रिया होती है। बीमारी को फेंक देना होता है, और तुम्हारी आंतरिक ऊर्जा को एक समस्वरता बन जाना होता है ताकि स्वस्थता भीतर से उमग सके। दवाई बीमारी को बाहर फेंकेगी और स्वास्थदायिनी शक्ति उसका स्थान भरेगी तुम्हारे अपने अस्तित्व से आयी स्वस्थता द्वारा।
आयुर्वेद और योग एक साथ विकसित हुए। यदि तुम योगासन करते हो, यदि तुम पतंजलि का अनुसरण करते हो तो कभी मत जाना एलोपैथिक डॉक्टर के पास। यदि तुम पतंजलि का अनुसरण नहीं कर रहे, तब कोई समस्या नहीं है। लेकिन यदि तुम अनुसरण कर रहे हो योग-प्रणाली का और तुम्हारी देह-ऊर्जा की बहुत सारी चीजों पर कार्य कर रहे हो, तो कभी मत जाना एलोपैथी की ओर क्योंकि दोनों विपरीत हैं। तब ढूंढना किसी आयुवेदिक डॉक्टर को या होम्योपैथी या प्राकृतिक चिकित्सा को खोज लेना-कोई ऐसी चीज जो विरेचन में मदद करे।

लेकिन यदि बीमारी है तो पहले उससे जूझ लेना। बीमारी के साथ रहना मत। मेरी विधियों के साथ यह बहुत सरल होता है बीमारी से छुटकारा पा लेना। पतंजलि की ओम् की विधि, जाप करने की और ध्यान करने की, वह बहुत मृदु है, सौम्य है। लेकिन उन दिनों वह पर्याप्त सशक्त थी क्योंकि लोग सीधे-सच्चे थे। वे प्रकृति के साथ जीते। अस्वस्थता असामान्य बात थी, स्वास्थ्य सामान्य बात थी। अब बिलकुल विपरीत है अवस्था-स्वस्थता है असामान्य और अस्वस्थता है सामान्य। और लोग हैं बहुत जटिल, वे प्रकृति के करीब नहीं रहते।

तो पतंजलि की मृदुल विधियां कुछ ज्यादा मदद न देंगी; इसीलिए हैं मेरी सक्रिय, अराजक विधियां। क्योंकि तुम तो लगभग पागल हो, तुम्हें चाहिए तीव्र पागल विधियां जो उस सबको बाहर ला सकें और बाहर फेंक सकें जो कि तुम्हारे भीतर दबा हुआ है। लेकिन स्वास्थ्य एक जरूरी बात है। वह जो चल पड़ता है लंबी यात्रा पर उसे देख लेना चाहिए कि वह स्वस्थ हो। बीमार के लिए, शय्यापस्त के लिए आगे बढ़ना कठिन होता है।

पतंजलि योगसूत्र

ओशो

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