आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि कुरूपता का जानना, कुरूपता से
मुक्त हो जाना है। स्वयं के भय को जानना, भय से मुक्त हो जाना है। घृणा को
जानना, घृणा से मुक्त हो जाना है।
उन पर दृष्टि नहीं है, इसलिए वे हैं। हम उनसे भाग रहे हैं, इसलिए वे हमारे पीछे हैं। हम रुके तो वे रुक जाएं, वैसे ही जैसे स्वयं के भागने के साथ स्वयं की छाया भागती है और रुकने के साथ रुक जाती है।
और यदि हम उनका निरीक्षण करें, तो सारा दृश्य ही बदल जाता है। जिन्हें हमने भूत-प्रेत समझा था, वे हमारी छायाएं मात्र थीं! हम भागते थे, इसलिए वे भूत-प्रेत हमारा पीछा करते और हमें भगाते थे। उनके प्राण उनमें नहीं, हमारे भागने में थे! रुकते ही वे निष्प्राण हैं, निरीक्षण करते ही वे भूत-प्रेत भी नहीं हैं, वे मात्र छायाएं हैं। और निश्चय ही छायाएं, शैडोज़ तो कुछ भी नहीं कर सकती हैं।
कुरूपता की छाया थी, उसे ढांकने को फूलों के वस्त्र पहनाए थे ऐसे एक भ्रांति को जन्म दिया था। अब जब दिखता है कि वहां केवल छाया ही है, और वस्त्र पहनाने अनावश्यक हो जाते हैं, तो छाया से मुक्ति होती है और उसका बोध होता है, जिसकी कि वह छाया थी। यही बोध सुंदर के, परम सुंदर के दर्शन को जन्म देता है।
यह दर्शन मुझे हुआ। छायाओं से भागने से रुका, तो छायाओं के पीछे देखने की क्षमता आई। और जो वहां दिखाई पड़ा उसने उस सत्य ने सब कुछ बदल डाला। सत्य सब बदल डालता है, उसकी उपस्थिति ही क्रांति है।
इसलिए कहता हूं डरो मत। जो है, उसे देखो और कल्पनाओं में, स्वप्नों में शरण मत लो। उस शरण से जो बचने का साहस करता है, सत्य उसे अपनी शरण में ले लेता है।
सुबह कोई पूछता था कि स्वयं को सीधा जानने का क्या अर्थ है? सीधा जानने का अर्थ है कि अपने संबंध में दूसरों के मतों, ओपिनियस को ग्रहण मत करो। खुद देखो कि आपके भीतर क्या है आपके विचारों में, आपकी वासनाओं में, आपकी क्रियाओं में, आपकी आकांक्षाओं अभीप्साओ में क्या छिपा है? क्या गुप्त हिडन है? इसका सीधा साक्षात करो जैसे कोई बिलकुल अभिनव भूमि में पहुंच कर निरीक्षण करता है। ऐसे ही स्वयं को देखो, वैसे ही जैसे कोई अपरिचित को और अजनबी, स्ट्रेजर को देखता है। इससे बहुत हित होगा। सबसे बड़ा तो यह कि आपने अपनी ही आंखों में अपनी जो दिव्य मूर्ति बना रखी होगी, वह भग्न और खंडित हो जाएगी। यह मूर्ति भंजन आवश्यक है, क्योंकि इस कल्पना मूर्ति के गिरने के बाद ही हम स्वप्न भूमि से वास्तविक भूमि पर चरण रखते हैं।
साधनापथ
ओशो
उन पर दृष्टि नहीं है, इसलिए वे हैं। हम उनसे भाग रहे हैं, इसलिए वे हमारे पीछे हैं। हम रुके तो वे रुक जाएं, वैसे ही जैसे स्वयं के भागने के साथ स्वयं की छाया भागती है और रुकने के साथ रुक जाती है।
और यदि हम उनका निरीक्षण करें, तो सारा दृश्य ही बदल जाता है। जिन्हें हमने भूत-प्रेत समझा था, वे हमारी छायाएं मात्र थीं! हम भागते थे, इसलिए वे भूत-प्रेत हमारा पीछा करते और हमें भगाते थे। उनके प्राण उनमें नहीं, हमारे भागने में थे! रुकते ही वे निष्प्राण हैं, निरीक्षण करते ही वे भूत-प्रेत भी नहीं हैं, वे मात्र छायाएं हैं। और निश्चय ही छायाएं, शैडोज़ तो कुछ भी नहीं कर सकती हैं।
कुरूपता की छाया थी, उसे ढांकने को फूलों के वस्त्र पहनाए थे ऐसे एक भ्रांति को जन्म दिया था। अब जब दिखता है कि वहां केवल छाया ही है, और वस्त्र पहनाने अनावश्यक हो जाते हैं, तो छाया से मुक्ति होती है और उसका बोध होता है, जिसकी कि वह छाया थी। यही बोध सुंदर के, परम सुंदर के दर्शन को जन्म देता है।
यह दर्शन मुझे हुआ। छायाओं से भागने से रुका, तो छायाओं के पीछे देखने की क्षमता आई। और जो वहां दिखाई पड़ा उसने उस सत्य ने सब कुछ बदल डाला। सत्य सब बदल डालता है, उसकी उपस्थिति ही क्रांति है।
इसलिए कहता हूं डरो मत। जो है, उसे देखो और कल्पनाओं में, स्वप्नों में शरण मत लो। उस शरण से जो बचने का साहस करता है, सत्य उसे अपनी शरण में ले लेता है।
सुबह कोई पूछता था कि स्वयं को सीधा जानने का क्या अर्थ है? सीधा जानने का अर्थ है कि अपने संबंध में दूसरों के मतों, ओपिनियस को ग्रहण मत करो। खुद देखो कि आपके भीतर क्या है आपके विचारों में, आपकी वासनाओं में, आपकी क्रियाओं में, आपकी आकांक्षाओं अभीप्साओ में क्या छिपा है? क्या गुप्त हिडन है? इसका सीधा साक्षात करो जैसे कोई बिलकुल अभिनव भूमि में पहुंच कर निरीक्षण करता है। ऐसे ही स्वयं को देखो, वैसे ही जैसे कोई अपरिचित को और अजनबी, स्ट्रेजर को देखता है। इससे बहुत हित होगा। सबसे बड़ा तो यह कि आपने अपनी ही आंखों में अपनी जो दिव्य मूर्ति बना रखी होगी, वह भग्न और खंडित हो जाएगी। यह मूर्ति भंजन आवश्यक है, क्योंकि इस कल्पना मूर्ति के गिरने के बाद ही हम स्वप्न भूमि से वास्तविक भूमि पर चरण रखते हैं।
साधनापथ
ओशो
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