एक बहुत अदभुत कहानी है। कहानी है कि कृष्ण के गांव के बाहर एक संन्यासी
का आगमन हुआ। बरसा के दिन थे। नदी पूर पर थी। संन्यासी उस पार था। गांव की
स्त्रियां जाने लगीं भोजन कराने, तो राह में उन्होंने कृष्ण से पूछा कि
कैसे हम नदी पार करें! भारी है पूर, नाव अब लगती नहीं। संन्यासी भूखा है।
दो चार दिन हो गए। खबरें भर आती हैं। उस पार खड़ा है। उस पार तो घना जंगल
है। भोजन पहुंचाना जरूरी है। कोई तरकीब बताओ कि कैसे हम नदी पार करें।
तो कृष्ण ने कहा कि तुम जाकर नदी से कहना कि अगर संन्यासी ने जीवन में कभी भी भोजन न किया हो, सदा उपवासा रहा हो, तो नदी राह दे दे। कृष्ण ने कहा था तो स्त्रियों ने मान लिया। वे गईं और उन्होंने नदी से कहा कि हे नदी, राह दे दे। अगर संन्यासी जीवन भर का उपवासा है, तो हम भोजन लेकर उस पार चली जाएं।
कहानी कहती है कि नदी ने राह दे दी। नदी को पार करके उन स्त्रियों ने संन्यासी को भोजन कराया। वे जितना भोजन लाई थीं वह बहुत ज्यादा था। लेकिन संन्यासी सारा भोजन खा गया। अब जब वे लौटने लगीं, तब अचानक उन्हें खयाल आया कि हमने लौटने की कुंजी तो पूछी नहीं। अब मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि तब तो कह दिया था नदी से कि अगर संन्यासी जीवन भर का उपवासा हो! मगर अब तो किस मुंह से कहें कि संन्यासी जीवन भर का उपवासा हो! उपवासा कहना तो मुश्किल है, भोजन भी साधारण करने वाला नहीं है। सारा भोजन कर गया है। जो भी वे लाई थीं, वह सब साफ कर गया है। वे बिलकुल खाली हाथ हैं। उस संन्यासी ने उन्हें मनाने की भी तकलीफ न दी कि वे दोबारा उससे कहें कि और ले लो, और ले लो। और बचा ही नहीं है। अब वे बहुत घबरा गई हैं।
उस संन्यासी ने पूछा कि क्यों इतनी परेशान हो, बात क्या है? तो उन्होंने कहा, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं, हम सिर्फ आने की कुंजी लेकर आए थे, लौटने की कुंजी हमें पता नहीं। संन्यासी ने पूछा, आने की कुंजी क्या थी? उन्होंने कहा, कृष्ण ने कहा था कि नदी पार करना तो नदी से कहना कि राह दे दो अगर संन्यासी उपवासा हो। उस संन्यासी ने कहा, तो फिर इसमें क्या बात है? यह कुंजी फिर भी काम करेगी। जो कुंजी ताला बंद कर सकती है, वह खोल भी सकती है, जो खोल सकती है, वह बंद कर सकती है। फिर उपयोग करो।
उन्होंने कहा, लेकिन अब कैसे उपयोग करें, आपने भोजन कर लिया। वह संन्यासी खिलखिला कर हंसा। उस नदी के तट पर उसकी हंसी बड़ी अदभुत थी। वे स्त्रियां बहुत परेशानी में पड़ गईं। उन्होंने कहा, आप हमारी परेशानी पर हंस रहे हैं। उसने कहा, नहीं, मैं अपने पर हंस रहा हूं। तुम फिर से कहो, नदी मेरी हंसी समझ गई होगी। तुम फिर से कहो।
और उन स्त्रियों ने बड़े डर, बड़े संकोच और बड़े संदेह से उस नदी से कहा कि अगर यह संन्यासी जीवन भर का भूखा रहा हो……। उनका मन ही कह रहा था कि बिलकुल गलत है यह बात। लेकिन नदी ने रास्ता दे दिया। वे तो बड़ी मुश्किल में पड़ गईं। लौटते वक्त जितना बड़ा चमत्कार हुआ था, वह जाते वक्त भी नहीं हुआ था।
उन्होंने कृष्ण से जाकर कहा कि हद हो गई। हम तो सोचते थे, चमत्कार तुमने किया है, लेकिन चमत्कार उस संन्यासी ने किया है। जाते वक्त तो बात ठीक थी, ठीक है, हो गई। लौटते वक्त भी वही बात हमने कही और नदी ने रास्ता दे दिया! तो कृष्ण ने कहा कि नदी रास्ता देगी ही, क्योंकि संन्यासी वही है, जो भोजन नहीं करता है। उन्होंने कहा, लेकिन हमने अपनी आंखों से उसको भोजन करते देखा है। तो कृष्ण ने कहा, जैसे तुमने उसे भोजन करते देखा है, ऐसे ही वह संन्यासी भी अपने को भोजन करते देख रहा था। इसलिए वह कर्ता नहीं है।
यह कहानी है। किसी नदी के साथ ऐसा करने की कोशिश मत करना। नहीं तो नाहक किसी संन्यासी को फंसा देंगे आप। कोई नदी रास्ता देगी नहीं।
लेकिन बात यह ठीक ही है। अगर हम अपने को भी अपनी क्रियाओं में कर्ता की तरह नहीं द्रष्टा की तरह देख पाएं सारी क्रियाओं में-तों मरना भी एक किया है और वह आखिरी किया है। और अगर तुम जीवन की क्रियाओं में अपने को दूर रख पाए, तो मरते वक्त भी तुम अपने को दूर रख पा सकते हो। तब तुम देखोगे कि मर रहा है वही, जो कल भोजन करता था; मर रहा है वही, कल जो दुकान करता था; मर रहा है वही, जो कल रास्ते पर चलता था; मर रहा है वही, जो कल लड़ता था, झगड़ता था, प्रेम करता था। तब तुम इस एक क्रिया को और देख पाओगे। क्योंकि यह मरने की क्रिया है, वह प्रेम की थी, वह दुश्मनी की थी, वह दूकान की थी, वह बाजार की थी। यह भी एक क्रिया है। अब तुम देख पाओगे कि मर रहा है वही।
मैं मृत्यु सिखाता हूँ
ओशो
तो कृष्ण ने कहा कि तुम जाकर नदी से कहना कि अगर संन्यासी ने जीवन में कभी भी भोजन न किया हो, सदा उपवासा रहा हो, तो नदी राह दे दे। कृष्ण ने कहा था तो स्त्रियों ने मान लिया। वे गईं और उन्होंने नदी से कहा कि हे नदी, राह दे दे। अगर संन्यासी जीवन भर का उपवासा है, तो हम भोजन लेकर उस पार चली जाएं।
कहानी कहती है कि नदी ने राह दे दी। नदी को पार करके उन स्त्रियों ने संन्यासी को भोजन कराया। वे जितना भोजन लाई थीं वह बहुत ज्यादा था। लेकिन संन्यासी सारा भोजन खा गया। अब जब वे लौटने लगीं, तब अचानक उन्हें खयाल आया कि हमने लौटने की कुंजी तो पूछी नहीं। अब मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि तब तो कह दिया था नदी से कि अगर संन्यासी जीवन भर का उपवासा हो! मगर अब तो किस मुंह से कहें कि संन्यासी जीवन भर का उपवासा हो! उपवासा कहना तो मुश्किल है, भोजन भी साधारण करने वाला नहीं है। सारा भोजन कर गया है। जो भी वे लाई थीं, वह सब साफ कर गया है। वे बिलकुल खाली हाथ हैं। उस संन्यासी ने उन्हें मनाने की भी तकलीफ न दी कि वे दोबारा उससे कहें कि और ले लो, और ले लो। और बचा ही नहीं है। अब वे बहुत घबरा गई हैं।
उस संन्यासी ने पूछा कि क्यों इतनी परेशान हो, बात क्या है? तो उन्होंने कहा, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं, हम सिर्फ आने की कुंजी लेकर आए थे, लौटने की कुंजी हमें पता नहीं। संन्यासी ने पूछा, आने की कुंजी क्या थी? उन्होंने कहा, कृष्ण ने कहा था कि नदी पार करना तो नदी से कहना कि राह दे दो अगर संन्यासी उपवासा हो। उस संन्यासी ने कहा, तो फिर इसमें क्या बात है? यह कुंजी फिर भी काम करेगी। जो कुंजी ताला बंद कर सकती है, वह खोल भी सकती है, जो खोल सकती है, वह बंद कर सकती है। फिर उपयोग करो।
उन्होंने कहा, लेकिन अब कैसे उपयोग करें, आपने भोजन कर लिया। वह संन्यासी खिलखिला कर हंसा। उस नदी के तट पर उसकी हंसी बड़ी अदभुत थी। वे स्त्रियां बहुत परेशानी में पड़ गईं। उन्होंने कहा, आप हमारी परेशानी पर हंस रहे हैं। उसने कहा, नहीं, मैं अपने पर हंस रहा हूं। तुम फिर से कहो, नदी मेरी हंसी समझ गई होगी। तुम फिर से कहो।
और उन स्त्रियों ने बड़े डर, बड़े संकोच और बड़े संदेह से उस नदी से कहा कि अगर यह संन्यासी जीवन भर का भूखा रहा हो……। उनका मन ही कह रहा था कि बिलकुल गलत है यह बात। लेकिन नदी ने रास्ता दे दिया। वे तो बड़ी मुश्किल में पड़ गईं। लौटते वक्त जितना बड़ा चमत्कार हुआ था, वह जाते वक्त भी नहीं हुआ था।
उन्होंने कृष्ण से जाकर कहा कि हद हो गई। हम तो सोचते थे, चमत्कार तुमने किया है, लेकिन चमत्कार उस संन्यासी ने किया है। जाते वक्त तो बात ठीक थी, ठीक है, हो गई। लौटते वक्त भी वही बात हमने कही और नदी ने रास्ता दे दिया! तो कृष्ण ने कहा कि नदी रास्ता देगी ही, क्योंकि संन्यासी वही है, जो भोजन नहीं करता है। उन्होंने कहा, लेकिन हमने अपनी आंखों से उसको भोजन करते देखा है। तो कृष्ण ने कहा, जैसे तुमने उसे भोजन करते देखा है, ऐसे ही वह संन्यासी भी अपने को भोजन करते देख रहा था। इसलिए वह कर्ता नहीं है।
यह कहानी है। किसी नदी के साथ ऐसा करने की कोशिश मत करना। नहीं तो नाहक किसी संन्यासी को फंसा देंगे आप। कोई नदी रास्ता देगी नहीं।
लेकिन बात यह ठीक ही है। अगर हम अपने को भी अपनी क्रियाओं में कर्ता की तरह नहीं द्रष्टा की तरह देख पाएं सारी क्रियाओं में-तों मरना भी एक किया है और वह आखिरी किया है। और अगर तुम जीवन की क्रियाओं में अपने को दूर रख पाए, तो मरते वक्त भी तुम अपने को दूर रख पा सकते हो। तब तुम देखोगे कि मर रहा है वही, जो कल भोजन करता था; मर रहा है वही, कल जो दुकान करता था; मर रहा है वही, जो कल रास्ते पर चलता था; मर रहा है वही, जो कल लड़ता था, झगड़ता था, प्रेम करता था। तब तुम इस एक क्रिया को और देख पाओगे। क्योंकि यह मरने की क्रिया है, वह प्रेम की थी, वह दुश्मनी की थी, वह दूकान की थी, वह बाजार की थी। यह भी एक क्रिया है। अब तुम देख पाओगे कि मर रहा है वही।
मैं मृत्यु सिखाता हूँ
ओशो
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