पंचतंत्र में, कि गये थे
अंधे हाथी को देखने। अंधे गये थे हाथी को देखने! जिसने कान छुआ, उसने कहा
कि हाथी सूप की सिद्धांतों है। और जिसने पैर छुआ था, उसने कहा… अंधा क्या
समझेगा और.. उसने सोचा, हाथी खम्भे की भांति है, स्तम्भ की भांति है। और
पांचों अंधों ने अलग अलग वक्तव्य दिये। उनमें भारी विवाद मच गया। अंधे
अकसर दार्शनिक होते हैं। दार्शनिक अकसर अंधे होते हैं। इनमें कुछ बहुत भेद
नहीं होता। अंधे ही दार्शनिक हो सकते हैं। जिनके पास आंखें नहीं हैं वे ही
सोचते हैं, प्रकाश क्या है? नहीं तो सोचेंगे क्यों? जिसके पास आंख है, वह
देखता है, सोचेगा क्यों?
खयाल रखना, दार्शनिक और द्रष्टा में बड़ा भेद है। यह सूत्र द्रष्टा के लिए है, दार्शनिक के लिए नहीं। सोचने मत बैठ जाना कि सत्य क्या है। निर्विचार होना है। सोचने से मुक्त होना है। वही भूमिका है। जब तुम परिपूर्ण शून्य होते हो, तुम मंदिर हो जाते हो। तुम तीर्थ बन जाते हो। सत्य अपने से अवतरित होता है, उतरता है। क्योंकि तुम जब शून्य होते हो, तुम्हारे द्वार दरवाजे सब खुले होते हैं अस्तित्व तुम्हारे भीतर प्रवेश कर सकता है।
‘सत्यं एव जयते नानृतम्’
सत्य जीतता है, असत्य नहीं।
‘सत्येन पन्था विछले देवयान:’
और यह सत्य का जो पंथ है, यही है देवयान, यही है दिव्यमार्ग। विचार का नहीं, शास्त्र का नहीं, दिव्यता का।
‘सत्येन प्ल—था वितके देवयान:।’
सत्य मार्ग है। वही देवयान है।
दोनों यानों को समझ लो। एक को कहा है परंपरा में पितृयान और दूसरे को कहा है : देवयान। यान का अर्थ होता है नाव। पितृयान का अर्थ होता है. हमारे बुजुर्ग, हमारे बाप दादे जो करते रहे, वही हम करें। पितृयान यानी परंपरा। जिससे सदियों से लोग चलते रहे उन्हीं लकीरों पर हम भी फकीर बनें रहें। और देवयान का अर्थ होता है. क्रांति, परंपरा से मुक्ति; अपनी दिव्यता की खोज, औरों के पीछे न चलना- उद्घोषणा,बगावत-विद्रोह!
मैं तुम्हें देवयान दे रहा हूं। संन्यास का अर्थ है देवयान। तुम हिन्दू नहीं हो, मुसलमान नहीं हो, ईसाई नहीं हो, जैन नहीं हो, बौद्ध नहीं हो, तुम सिर्फ धार्मिक हो! मैं तो संन्यासी को चाहता हूं वह सारे विशेषणों से मुक्त हो जाए। क्योंकि वह सब पितृयान है। तुम्हारे पिता हिंदू थे, इसलिए तुम हिंदू हो। और तो तुम्हारे हिंदू होने का कोई कारण नहीं है। अगर बचपन से ही तुम्हें मुसलमान घर में बड़ा किया गया होता, तुम मुसलमान होते। चाहे हिंदू घर में ही पैदा हुए होते, लेकिन अगर मुसलमान मां बाप ने बड़ा किया होता, तो मस्जिद जाते, मंदिर नहीं; कुरान पढ़ते गीता नहीं, जरूरत पड़ जाती तो मंदिर को आग लगाते, और मस्जिद को बचाने के लिए प्राण दे देते
यह तुम नहीं हो, यह तुम्हारे भीतर सड़ा गला अतीत बोल रहा है।
जो व्यक्ति अपने को हिंदू या मुसलमान या ईसाई या जैन कहता है, वह अपने व्यक्तिव को नकार रहा है, अपनी आत्मा को इनकार कर रहा है। वह कह रहा है. मेरा कोई मूल्य नहीं है; कब्रों का मूल्य है, मुर्दों का मूल्य है। देवयान का अर्थ होता है. अपनी दिव्यता की अनुभूति और घोषणा; परंपरा से मुक्ति; अतीत से मुक्ति और वर्तमान में जीने की कला।
मेरा स्वर्णिम भारत
ओशो
खयाल रखना, दार्शनिक और द्रष्टा में बड़ा भेद है। यह सूत्र द्रष्टा के लिए है, दार्शनिक के लिए नहीं। सोचने मत बैठ जाना कि सत्य क्या है। निर्विचार होना है। सोचने से मुक्त होना है। वही भूमिका है। जब तुम परिपूर्ण शून्य होते हो, तुम मंदिर हो जाते हो। तुम तीर्थ बन जाते हो। सत्य अपने से अवतरित होता है, उतरता है। क्योंकि तुम जब शून्य होते हो, तुम्हारे द्वार दरवाजे सब खुले होते हैं अस्तित्व तुम्हारे भीतर प्रवेश कर सकता है।
‘सत्यं एव जयते नानृतम्’
सत्य जीतता है, असत्य नहीं।
‘सत्येन पन्था विछले देवयान:’
और यह सत्य का जो पंथ है, यही है देवयान, यही है दिव्यमार्ग। विचार का नहीं, शास्त्र का नहीं, दिव्यता का।
‘सत्येन प्ल—था वितके देवयान:।’
सत्य मार्ग है। वही देवयान है।
दोनों यानों को समझ लो। एक को कहा है परंपरा में पितृयान और दूसरे को कहा है : देवयान। यान का अर्थ होता है नाव। पितृयान का अर्थ होता है. हमारे बुजुर्ग, हमारे बाप दादे जो करते रहे, वही हम करें। पितृयान यानी परंपरा। जिससे सदियों से लोग चलते रहे उन्हीं लकीरों पर हम भी फकीर बनें रहें। और देवयान का अर्थ होता है. क्रांति, परंपरा से मुक्ति; अपनी दिव्यता की खोज, औरों के पीछे न चलना- उद्घोषणा,बगावत-विद्रोह!
मैं तुम्हें देवयान दे रहा हूं। संन्यास का अर्थ है देवयान। तुम हिन्दू नहीं हो, मुसलमान नहीं हो, ईसाई नहीं हो, जैन नहीं हो, बौद्ध नहीं हो, तुम सिर्फ धार्मिक हो! मैं तो संन्यासी को चाहता हूं वह सारे विशेषणों से मुक्त हो जाए। क्योंकि वह सब पितृयान है। तुम्हारे पिता हिंदू थे, इसलिए तुम हिंदू हो। और तो तुम्हारे हिंदू होने का कोई कारण नहीं है। अगर बचपन से ही तुम्हें मुसलमान घर में बड़ा किया गया होता, तुम मुसलमान होते। चाहे हिंदू घर में ही पैदा हुए होते, लेकिन अगर मुसलमान मां बाप ने बड़ा किया होता, तो मस्जिद जाते, मंदिर नहीं; कुरान पढ़ते गीता नहीं, जरूरत पड़ जाती तो मंदिर को आग लगाते, और मस्जिद को बचाने के लिए प्राण दे देते
यह तुम नहीं हो, यह तुम्हारे भीतर सड़ा गला अतीत बोल रहा है।
जो व्यक्ति अपने को हिंदू या मुसलमान या ईसाई या जैन कहता है, वह अपने व्यक्तिव को नकार रहा है, अपनी आत्मा को इनकार कर रहा है। वह कह रहा है. मेरा कोई मूल्य नहीं है; कब्रों का मूल्य है, मुर्दों का मूल्य है। देवयान का अर्थ होता है. अपनी दिव्यता की अनुभूति और घोषणा; परंपरा से मुक्ति; अतीत से मुक्ति और वर्तमान में जीने की कला।
मेरा स्वर्णिम भारत
ओशो
No comments:
Post a Comment