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Monday, August 17, 2015

भागे हिरण और भटके राम

मारा अनुभव यह है कि हमने जहां-जहां कामना के फूल तोड़ना चाहा वहीं दुख का कांटा हाथ में लगा। जहां-जहां कामना के फूल के लिए हाथ बढाया, फूल दिखायी पड़ा, जब तक हाथ में न आया-जब हाथ में आया तो रह गया सिर्फ लहू? खून! कांटा चुभा, फूल तिरोहित हो गया। लेकिन मनुष्य अदभुत है। उसका सबसे अदभुत होना इस बात में है कि वह अनुभव से सीखता नहीं। शायद ऐसा कहना भी ठीक नहीं। कहना चाहिए, मनुष्य अनुभव से सदा गलत सीखता है। उसने हाथ बढ़ाया और फूल हाथ में न आया, कांटा हाथ में आया तो वह यही सीखता है कि मैंने गलत फूल की तरफ ही हाथ बढ़ा दिया। अब मैं ठीक फूल की तरफ हाथ बढ़ाऊंगा। यह नहीं सीखता कि फूल की तरफ हाथ बढ़ाना ही गलत है।

साधारण आदमियों की बात हम छोड़ दें। स्वयं राम अपनी कुटिया के बाहर बैठे है और एक स्वर्ण मृग दिखाई पड़ जाता है स्वर्णमृग! सोने का हिरण होता नहीं, पर जो नहीं होता वह दिखाई पड़ सकता है। जिन्दगी में बहुत कुछ दिखाई पड़ता है, जो है ही नहीं। परन्तु जो है वह दिखाई नहीं पड़ता है। स्वर्णमृग दिखाई पड़ता है, राम उठा लेते हैं धनुषबाण। सीता कहती है, जाओ, ले आओ इसका चर्म। राम निकल पड़ते हैं स्वर्ण मृग को मारने।

यह कथा बडी मीठी है। सोने का मृग भी कहीं होता है? लेकिन आपको कहीं दिखाई पड़ जाए तो रुकना मुश्किल हो जाए। असली मृग हो तो रुका भी जाए, सोने का मृग दिखाई पड़ जाए तो रुकना मुश्किल हो जाएगा। हम सभी सोने के मृग के पीछे ही भटकते हैं। एक अर्थ में हम सबके भीतर का राम सोने के मृग के लिए ही तो भटकता है, और हम सबके भीतर की सीता भी उकसाती है, जाओ, सोने के मृग को ले आओ! हम सब के भीतर की कामना, हम सब के भीतर की वासना, हम सबके भीतर की ‘डिजायरिग’ कहती है भीतर की शक्ति को, उस ऊर्जा को, उस राम को, कि जाओ तुम-‘इच्छा है सीता, शक्ति है राम’! कहती है, जाओ, स्वर्ण मृग को ले आओ! राम दौड़ते फिरते हैं। स्वर्णमृग हाथ में न आए तो लगता है कि अपनी कोशिश में कुछ कमी रह गयी… और तेजी से दौड़ो! स्वर्ण मृग को तीर मारो ताकि वह गिर जाए, न ठीक निशाना लगे तो लगता है कि विषधर तीर बनाओ; लेकिन यह खयाल में नहीं आता कि स्वर्णमृग होता ही नहीं!

कामना के फूल आकाश कुसुम हैं, होते नहीं। जैसे धरती पर तारे नहीं होते वैसे आकाश में फूल नहीं होते। कामना के कुसुम या तो धरती के तारे है या आकाश के फूल। सकाम हमारी दौड़ है। बारबार थककर गिरगिरकर भी, बारबार कांटों से उलझकर भी फूल की आकांक्षा नहीं जाती दुख हाथ लगता है। लेकिन कभी हम दूसरा प्रयोग करने को नहीं सोचते। वह दूसरा प्रयोग है निष्काम भाव का।

बड़ा मजा है, निष्काम भाव से कांटा भी पकड़ा जाए तो पकडने पर पता चलता है कि फूल हो गया। ऐसा ही ‘पेराडोक्स है, ऐसा ही जिन्दगी का नियम है। ऐसा होता है। आपने एक अनुभव तो करके देख लिया। फूल को पकड़ा और कांटा हाथ में आया, यह आप देख चुके। और अगर ऐसा हो सकता है कि फूल पकड़े और काटा हाथ में आए तो उल्टा क्यों नहीं हो सकता है कि कांटा पकड़े और फूल हाथ में आ जाए? क्यों नहीं हो सकता ऐसा? अगर यह हो सकता है तो इससे उल्टा होने में कौन सी कठिनाई है? हां, जो जानते है वे तो कहते हैं, होता है!

मैं कहता आँखन देखी

ओशो 

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