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Monday, August 17, 2015

धर्म संस्थापनार्थाय:

अंधेरा है- अंधेरा है नहीं, रोज मिटाना पड़ता है, और है बिलकुल नहीं! अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है। अंधेरा ‘एक्‍जिस्टेंशियल’ नहीं है, अंधेरा कोई चीज नहीं है फिर भी है। यह मजा है, यह पैराडाक्स है जिन्दगी का कि अंधेरा है नहीं, फिर भी है! काफी है, घना होता है, डरा देता है, प्राण कंपा देता है और है नहीं! अंधेरा सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति है-सिर्फ ‘एब्सेंस’ है।

जैसे कमरे में आप थे और बाहर चले गए तो हम कहते हैं, अब आप कमरे में नहीं हैं। अंधेरा इसी तरह है। अंधेरे का मतलब इतना ही है कि प्रकाश नहीं है। इसलिए अंधेरे को तलवार से काट नहीं सकते, अंधेरे को गठरी में बांधकर फेंक नहीं सकते। दुश्मन के घर में जाकर अंधेरा डाल नहीं सकते। अंधेरा घर के बाहर निकालना हो तो धक्का देकर निकाल नहीं सकते।’सब्सटेंशियल’ नहीं है, अंधेरे में कोई ‘सब्सटेंस’ नहीं है। कण्टेंट नहीं है, अंधेरे में कोई वस्तु नहीं है। अंधेरा अवस्तु है- ‘नो थिंग, नथिंग’! अंधेरे में कुछ है नहीं, लेकिन फिर भी है। इतना तो है कि डरा दे, इतना तो है कि कंपा दे! इतना तो है कि गड्डे में गिरा दे, इतना तो है, हाथ-पैर टूट जाएं!

यह बड़ी मुश्किल की बात है कि जो नहीं है उसके होने से आदमी गड्डे में गिर जाता है। यह कहना नहीं चाहिए क्योंकि एब्सर्ड है। जो नहीं है उसके होने से आदमी गड्डे में गिर जाता है। जो नहीं है उसके होने से हाथ-पैर टूट जाते हैं, जो नहीं है उसके होने से चोर चोरी कर ले जाते हैं, जो नहीं है उसके होने से हत्यारा हत्या कर लेता है। नहीं तो है बिलकुल, वैज्ञानिक भी कहते हैं, नहीं है! उसका कोई अस्तित्व नहीं है।

अस्तित्व है प्रकाश का। जिसका अस्तित्व हो उसको रोज जाना पड़ रहा है। रोज सांझ दीया जलाओ, न जलाओ तो अंधेरा खड़ा है। तो कृष्ण कहते हैं, संस्थापनार्थ- धर्म की संस्थापना के लिए, दीये को जलाने के लिए, अधर्म के अंधेरे को हटाने के लिए-अधर्म जो नहीं है, धर्म जो सदा है..!

सूरज स्रोत है प्रकाश का। अंधेरे का स्रोत पता है, कहां है? कहीं भी नहीं है। सूरज से आ जाती है रोशनी। अंधेरा कहां से आता है? -‘फ्रोम नो हेयर’, कोई ‘सोर्स’ नहीं है। कभी आपने पूछा, अंधेरा कहां से आता है? कौन डाल देता है इस पृथ्वी पर अंधेरे की चादर? कौन आपके घर को अंधेरे से भर देता है। स्रोत नहीं है उसका, क्योंकि है ही नहीं अंधेरा।

जब सुबह सूरज आ जाता है तो अंधेरा कहां चला जाता है? कहीं सिकुड़कर छिप जाता है? कहीं नहीं सिङ़ता, कहीं नहीं जाता। है ही नहीं, कभी था नहीं! अंधेरा कभी नहीं है, फिर भी रोज उतर आता है। प्रकाश सदा है, फिर भी रोज सांझ जलाना पड़ता है और खोजना पड़ता है।

ऐसे ही धर्म और अधर्म है। अंधेरे की भांति है अधर्म, प्रकाश की भांति है धर्म। प्रतिदिन खोजना पड़ता है। युग-युग में, कृष्ण कहते हैं, लौटना पड़ता है। मूल स्रोत से धर्म को फिर वापस पृथ्वी पर लौटना पड़ता है। सूर्य से फिर प्रकाश को वापस लेना पड़ता है। यद्यपि जब प्रकाश नहीं रह जाता सूर्य का तो हम मिट्टी के दीये जला लेते है। कैरोसिन की कंदील जला लेते है। उससे काम चलाते हैं, लेकिन काम नहीं चलता है। कहां सूरज, कहां कंदील? बस काम चलता है!

में कहता आँखन देखि

ओशो 

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