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Monday, August 24, 2015

“जब कोई अपनी प्राणवायु को अपनी ही एकाग्रता के द्वारा नमनीयता की चरम सीमा तक पहुंचा दे, तो वह व्यक्ति शिशुवत कोमल हो जाता है।’


पहला सूत्र है, श्वास को धीरे-धीरे नाभि पर ले आना। सीने का काम ही न रह जाए।
 
दूसरा ताओ प्राण-साधना का हिस्सा है कि सदा श्वास बाहर जाए, उस पर ध्यान देना; भीतर आती श्वास पर बिलकुल ध्यान नहीं देना। और जब श्वास बाहर जाए, तो जितने जोर से श्वास को उलीचा जा सके, उलीच देना; और भीतर कभी श्वास अपनी तरफ से नहीं लेना। जितनी आए आ जाने देना। आने की प्रक्रिया परमात्मा पर छोड़ देनी; और भेजने की प्रक्रिया जितनी हमसे उलीचते बन सके, उलीच देना। इसके अदभुत परिणाम होते हैं।
हम सभी लोग श्वास लेने में तो बहुत उत्सुकता दिखाते हैं, छोड़ने में नहीं। अगर आप ध्यान करेंगे, तो हमारी एम्फेसिस सदा छोड़ने पर कभी नहीं होती, सदा लेने पर होती है। और यह सिर्फ श्वास का ही सवाल नहीं है; हमारा पूरा जीवन ही लेने पर निर्भर होता है, देने पर कभी निर्भर नहीं होता। जो व्यक्ति श्वास को छोड़ने पर जोर देगा और लेने पर नहीं, उसके पूरे व्यक्तित्व में दान और देना अपने आप गहन हो जाएगा और लेना कम हो जाएगा।

ताओ का मानना है कि श्वास को उलीचें और लेने की आप फिक्र न करें। क्योंकि लेना तो अपने आप हो जाएगा, उलीचना भर काफी है। और जितनी आप श्वास को उलीच देंगे, उतनी ताजी श्वास भीतर चली आएगी। और यह उलीचने पर जोर देने का कारण है, क्योंकि इस जोर की बदलाहट से, इस उलीचने की तरफ जोर बढ़ने से आपके पूरे जीवन में देने की संभावना बढ़ने लगेगी। हमारा सारा क्रोध इसीलिए है कि हम देना नहीं चाहते, लेना चाहते हैं। हमारी सारी घृणा इसीलिए है कि हम देना नहीं चाहते, लेना चाहते हैं। हमारीर् ईष्या इसीलिए है कि हम देना नहीं चाहते, लेना चाहते हैं। हमारे जीवन का सारा उलझाव क्या है? कि देने की हमें जरा भी इच्छा नहीं है और लेना हम बहुत चाहते हैं। जो दे नहीं सकता, उसे कुछ भी नहीं मिलेगा। और जो दे सकता है, उसे हजार गुना सदा मिल जाता है। और जो हम देते हैं, अगर हम लोहा देते हैं, तो सोना मिल जाता है। कार्बन डाय आक्साइड उलीचिए और प्राणवायु भीतर भर जाती है, आक्सीजन भीतर भर जाती है। यही पूरे जीवन का सूत्र है।

तो लाओत्से का दूसरा सूत्र है: सदा श्वास को फेंकिए; लेने को भूल ही जाइए। लेने का आपको काम ही नहीं करना है, वह तो प्रकृति स्वयं कर लेती है। आप सिर्फ उलीच दें, फेंक दें, हटा दें। खाली जगह छोड़ दें, वह भर जाएगी। और अगर आपका जोर छोड़ने पर हो और लेने पर बिलकुल न हो, तो चित्त एकदम नमनीय हो जाएगा। क्योंकि लेने में तनाव होता है, जबर्दस्ती होती है। छोड़ने में तो सिर्फ हलकापन आता है। छोड़ने में सिर्फ निर्भार होते हैं। भरना तो एक भार है। छोड़ना निर्भार होना है। छोड़ना तो वजन कम कर देता है।
तो दूसरा सूत्र है: छोड़ें, श्वास को लें मत।

तीसरा सूत्र है लाओत्से का–केंद्र नाभि हो जाए, छोड़ने पर जोर हो जाए और तीसरा–यह जो श्वास का आना-जाना है, इससे अपने को पृथक न समझें। जब श्वास बाहर जाए, तो समझें कि मैं बाहर चला गया; और जब श्वास भीतर आए, तो समझें कि मैं भीतर आ गया। प्राण के साथ एक हो जाएं।

हम क्या करते हैं? हम कहते हैं, श्वास मुझमें आई, श्वास मुझसे बाहर गई। लाओत्से कहता है इससे बिलकुल उलटी बात। वह कहता है, श्वास के साथ मैं बाहर गया, श्वास के साथ मैं भीतर आया। मैं ही बाहर हूं, मैं ही भीतर हूं। श्वास के साथ इस शरीर में भीतर आता हूं, श्वास के साथ इस शरीर के बाहर विराट शरीर में जाता हूं। चलते, उठते, बैठते, अगर यह खयाल रख सकें कि श्वास के साथ मैं बाहर गया और श्वास के साथ मैं भीतर आया। इसका जप निर्मित हो जाए। यह धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे जप की भांति आपके भीतर गूंजने लगे कि श्वास में बाहर गया, श्वास में भीतर आया। तो श्वास की यह सतत क्रिया अगर जप बन जाए बाहर और भीतर आने की, तो अद्वैत फलित होता है, तो अद्वैत का अनुभव होता है।

और अगर ये तीन बातें ध्यानपूर्वक हो जाएं, तो लाओत्से कहता है, “जब कोई अपनी प्राणवायु को अपनी ही एकाग्रता के द्वारा नमनीयता की चरम सीमा तक पहुंचा देता है, तो वह शिशुवत कोमल हो जाता है।’
तो फिर बच्चे की भांति कोमल हो जाता है। यह कोमलता जितनी ज्यादा हो, उतना ज्यादा जीवन। यह कोमलता जितनी कम हो, उतनी ज्यादा मृत्यु। सख्त हो जाना ही मौत का दरवाजा और कोमल बने रहना ही जीवन का द्वार है। तो कोमल, जैसे कि नया-नया उगा हुआ अंकुर होता है। दिखता है कमजोर, लेकिन वही उसकी शक्ति है। बूढ़ा दिखता हो भला ताकतवर, लेकिन बच्चे से ज्यादा ताकतवर नहीं है। क्योंकि मौत करीब आती चली जा रही है। जितना सख्त होता चला जाता है, उतना मृत्यु के करीब पहुंचता चला जाता है। बच्चा बिलकुल कमजोर दिखता है, लेकिन अपनी कमजोरी में भी महा शक्तिशाली है, क्योंकि जीवन अभी उसमें फैलेगा और बड़ा होगा।

नमनीयता! लेकिन यह श्वास पर प्रयोग के बिना संभव नहीं है। और श्वास पर अगर यह संभव हो जाए, तो फिर जीवन के सभी पहलुओं पर संभव हो जाती है। और हमारी श्वास हमारे व्यक्तित्व को सब तरफ से प्रभावित करती है। आपकी श्वास आपका पूरा दर्पण है। आप श्वास के साथ क्या कर रहे हैं, उससे पता चल जाएगा कि आप अपने साथ क्या कर रहे हैं। आप कैसी श्वास लेते हैं, पता चल जाएगा, आप कैसे व्यक्ति हैं।

लाओत्से के पास कोई आता था साधना के लिए, तो लाओत्से कहता था कि एक सप्ताह मेरे पास रुक जाओ, जरा मैं देख तो लूं कि तुम कैसी श्वास लेते हो, कैसी श्वास छोड़ते हो। खोजी आया हो, अगर ज्ञानी हो, तो हैरान होगा कि हम ब्रह्मज्ञान लेने आए, सत्य का पता लगाने आए और यह आदमी कह रहा है कैसी श्वास लेते हो, कैसी छोड़ते हो। सात दिन लाओत्से देखेगा उस आदमी को अनेक हालतों में–सोते में, जगते में, काम करते, चलते वक्त, क्रोध में, प्रेम में–और देखेगा, उसकी श्वास की व्यवस्था क्या है। और जब तक वह श्वास की व्यवस्था न समझ ले, तब तक साधना का कोई सूत्र न देगा। श्वास के साथ ही साधना पूरी की पूरी व्यवस्थित की जा सकती है।

तो ये तीन सूत्र खयाल रखें। आपने सुना होगा जापानी शब्द हाराकिरी। हाराकिरी का हम अनुवाद करते हैं आत्मघात, स्युसाइड। लेकिन जापानी शब्द का अर्थ और ज्यादा है। हारा का अर्थ होता है केंद्र, परम केंद्र–जहां से जीवन पैदा होता है। उसी केंद्र में छुरा मार कर अगर कोई मरता है, तो उसको हाराकिरी कहते हैं। इसलिए हर कोई हाराकिरी नहीं कर सकता। आप चाहें कि हाराकिरी कर लें, तो आप नहीं कर सकते। हाराकिरी करने के लिए हारा को पहचानना जरूरी है कि वह केंद्र कहां है।

अभी मैंने आपसे कहा तांदेन, नाभि से दो इंच नीचे, अगर आप श्वास को नाभि से लेते रहें, तो धीरे-धीरे आपको नाभि से दो इंच नीचे एक जगह पर स्मरण होने लगेगा केंद्र का। वही केंद्र जब इतना स्पष्ट हो जाता है कि आपको लगता है पूरा शरीर परिधि है और वही केंद्र है, पूरा शरीर एक वर्तुल है और वही केंद्र है, जिस दिन आप सोते-जागते, उठते-बैठते सतत उस केंद्र के स्मरण से भरे रहते हैं और दीए की एक ज्योति की तरह वह केंद्र आपके भीतर जलने लगता है, तब उसका नाम हारा है। और जिस व्यक्ति का वह केंद्र दीए की ज्योति की तरह जलने लगता है भीतर, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं है।

तो हाराकिरी का मतलब होता है, शरीर को केंद्र से तोड़ देना। तो वह ज्योति परम ज्योति में विलीन हो जाएगी।


ताओ उपनिषद

ओशो 

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