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Friday, August 14, 2015

जीवन में विजय के दो मार्ग हैं।



एक कि तुम लड़ो और जीतने की कोशिश करो। लेकिन वह मार्ग सिर्फ आभास मार्ग है। लड़ाई तो बहुत होगी, लेकिन विजय हाथ न लगेगी। लड़ोगे तुम जरूर और बहुत बार ऐसा लगेगा कि जीत बिलकुल करीब है,फिर भी तुम पाओगे कि जीत कभी हाथ में नहीं आती। जीत चूकती ही चली जाएगी। सदा लगेगा कि भविष्य में विजय हो सकेगी। तुम्हारा तर्क, तुम्हारी बुद्धि सब कहेंगे कि विजय संभव है, लेकिन विजय संभव नहीं होगी।

उसके कारण हैं, क्योंकि जिससे तुम लड़ रहे हो, वह तुम्हारा ही हिस्सा है। जैसे कोई अपने ही दोनों हाथों को लड़ाए तो जीत क्या होगी? किसकी होगी? कैसे होगी? दोनों हाथों के भीतर मैं ही हूं। यदि मैं चाहूं तो बाएं हाथ को दाएं हाथ से लड़ा सकता हूं। लेकिन इससे इस भांति में मत पड़ना कि दायां हाथ मैं हूं या बायां हाथ मैं हूं और दूसरा हाथ मैं नहीं हूं। लड़ाई हो सकती है, लेकिन वह लड़ाई व्यर्थ होगी। न तो दायां जीत सकता है, न बायां। चाहूं तो मैं किसी को जिताने के भ्रम में पड़ सकता हूं कि मैं दाएं को ऊपर कर लूं और बाएं को नीचे कर लूं और सोचूं कि दायां जीत गया है। लेकिन यह जीत बिलकुल मिथ्या है, क्योंकि किसी भी क्षण मैं बाएं को ऊपर कर सकता हूं।

चूंकि दोनों के भीतर मैं ही लड़ रहा हूं इसलिए जीतने का कोई उपाय नहीं है, हारने का भी कोई उपाय नहीं है। न तो कभी पूरी हार होगी, न कभी पूरी जीत होगी। एक बात निश्चित है कि इस संघर्ष में,इन दोनों हाथों की लड़ाई में, जो मेरे हैं,मेरी शक्ति क्षीण होगी, व्यय होगी, और नष्ट होगी। इस मार्ग से जो चलेगा, वह सिर्फ चुकेगा। जीतेगा कभी नहीं, हार भी कभी पूरी न होगी और भ्रम बना ही रहेगा कि जीत हो सकती है।

साधु-संत मेरे पास आते हैं। बड़े आचार्य हैं, सैकड़ों उनके शिष्य हैं, सैकड़ों उनके साधु-संन्यासी हैं, वे भी एकांत में मुझसे पूछते हैं कि कामवासना पर कैसे विजय प्राप्त हो! और ब्रह्मचर्य पर वे किताबें लिखते हैं! ब्रह्मचर्य का लोगों को नियम और व्रत दिलवाते हैं! बड़ा जाल है। मैं उनसे पूछता हूं कि जब आपको ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं हुआ है, तो क्यों ब्रह्मचर्य का व्रत लोगों को दिलवा रहे हैं? जिस झंझट में आप फंसे हैं, लोगों को क्यों फंसा रहे हैं? ईमानदारी से कहो कि यह मुझे नहीं हो सका, तो शायद रास्ता भी बने। हम सब मिल कर सोचें कि भूल कहां हो रही है? अड़चन कहां है?

भूल यहां हो रही है। आदमी गलत रास्ते से चले, तो परिणाम में सिर्फ विफलता ही हाथ आती है। ठीक रास्ता -ठीक रास्ता क्या है? अगर आप अपने से ही लड़ते हैं तो आप जीत नहीं सकेंगे। क्योंकि कौन जीतेगा, कौन हारेगा? और ये सारी ऊर्जाएं आपकी ही हैं। काम है, क्रोध है, लोभ है-आपकी ही ऊर्जाएं हैं, आपकी ही शक्तियां हैं।

तब क्या किया जाए? यह सूत्र आपको बताएगा कि क्या किया जाए।
आपके भीतर एक ऐसे बिंदु को खोजना जरूरी है जो इन दोनों के पार है, तो जीत शुरू होगी। कामवासना है, ब्रह्मचर्य का भी लोभ है, ये दोनों हैं। इन दोनों में संघर्ष है। ये एक ही तल पर हैं, इनमें जीत नहीं हो सकती। ये समान शक्ति वाले हैं, इनमें जीत नहीं हो सकती। अगर इन दोनों के ऊपर, आपके भीतर एक ऐसा बिंदु भी खोजा जा सके, जो न तो कामवासना में आतुर है, न ब्रह्मचर्य में आतुर है—फर्क समझ लें—जो न तो कहता है कि मुझे कामवासना में रस है, न जो कहता है कि मुझे ब्रह्मचर्य में रस है; आपके भीतर अगर एक ऐसा बिंदु खोजा जा सके, तो वह विजय की तरफ ले जाएगा।

उस बिंदु को ही हमने साक्षीभाव कहा है, विटनेस। यह जो साक्षी मिल जाए आपके भीतर, जो दोनों के प्रति तटस्थ भाव से देख सके, तो आप जीत की यात्रा पर निकल जाएंगे। क्योंकि उस तीसरे की कोई भी लड़ाई नहीं है। वह किसी से लड़ ही नहीं रहा है। और साक्षी हो कर देखेगा कामवासना को भी और ब्रह्मचर्य—वासना को भी।

मैं शब्द का प्रयोग करता हूं-ब्रह्मचर्य-वासना। इसे ठीक से समझ लेना। काम भी वासना है, ब्रह्मचर्य भी वासना है। किसी ने कहा नहीं है आपको कि ब्रह्मचर्य भी वासना है। लेकिन वह भी वासना है और कामवासना के विपरीत वासना है। कामवासना में जब हम परेशान होते हैं, तो हम ब्रह्मचर्य की वासना करते हैं। क्रोध भी वासना है और अक्रोध भी वासना है। जब हम क्रोध से थक जाते हैं, जल जाते हैं, घाव पड़ जाते हैं, तब हम अक्रोध की वासना करते हैं। लेकिन वह भी वासना है। क्रोध के जो विपरीत है, वह वासना ही होगी। काम के जो विपरीत है, वह वासना ही होगी। दोनों का तल समान है। विपरीत होने से कोई चीज वासना नहीं होती, ऐसा मत समझना। संसार भी वासना है। और अगर संसार से घबड़ा कर आप संन्यास लेते हैं, तो संन्यास भी वासना है।
संसार से घबड़ा कर नहीं, संसार के साक्षीभाव से जिस संन्यास का जन्म होता है, वह वासना नहीं, वह मुक्ति है।

साधनासूत्र

ओशो 
 

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